विचार क्रांति युगे युगे

संसार में व्याप्त समस्याओं के समाधान का एकमात्र उपाय यह है कि उनके मूल कारण को ही हटाया जाय। जैसा कि देखा जाता है कि स्वरूप कुछ और रहता है और कारण कुछ और। उसी प्रकार विभिन्न समस्याओं का कारण हमारे चिंतन में बैठी विकृतियाँ दृष्टिकोण में आई गिरावट और विचारों में आई विसंगतियाँ हैं । व्यक्तिगत समस्याओं का सामूहिक रूप ही सामाजिक समस्याएँ हैं और एक ही तरह के चिंतन-दृष्टिकोण को ही जनमानस के प्रवाह की दिशा कहा जा सकता है । चिंतन और दृष्टिकोण को परिष्कृत किया जा सके, तो बाह्य जीवन में भी सुखद परिवर्तन किया जा सकता है । यही स्थिति जनमानस के प्रवाह की है। उसे जैसी दिशा दी जाएगी, उसी स्तर के सामाजिक परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगेंगे । मनुष्य की आस्थाएँ, उसकी भावनाएँ और उसकी मान्यताएँ ही उसकी नियंत्रणकर्त्री शक्तियाँ हैं। उसके विचार ही उसके मर्मस्थल हैं, उसकी आस्थाएँ ही उसके प्राण हैं और उन्हें प्रभावित कर ही मनुष्य तथा समाज को अभीष्ट दिशा दी जा सकती है । प्राचीनकाल से अब तक के इतिहास पर दृष्टि दौड़ाने पर इस तरह के ढेरों उदाहरण मिल जाएँगे, जिनमें कि इन मर्मस्थलों को छूकर व्यक्ति के जीवन की दिशा ही बदल दी गई ।

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