व्यक्तित्व निर्माण युवा शिविर - 1

नारियों की ब्रह्मचर्य साधना, सुसन्तति उत्पादन व नारी स्वास्थ्य

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परम पूज्य गुरुदेव कहते थे, कि जब बच्चे एक निश्चित आयु में पहुँच जाए तब अन्य विषयों की शिक्षा की भांति उन्हें यौन शिक्षा देनी चाहिए, ताकि उस विषय में उनका जिज्ञासु व कोमल मन गलत तरीकों एवं गलत साधनों व व्यक्तियों के चंगुल में फंसकर भ्रम व भटकाव का शिकार न बन जाए। इसकी कारण आज इस कक्षा में ब्रह्मचर्य व स्वास्थ्य सम्बन्धी कुछ चर्चाएं आपसे करनी है। यह विषय लडक़ों के लिए जितना अनिवार्य है, उतना ही अनिवार्य और महत्वपूर्ण लड़कियों के लिए भी है। क्योंकि दोनों ही ज्ञान, पवित्रता व उत्कृष्ट चरित्र के समान अधिकारी है तथा श्रेष्ठ समाज व परिवार निर्माण की जिम्मेदारी भी दोनों पर समान रूप से है।

    संसार में भगवान ने नर और नारी की रचना की है। आदिकाल से ही सुगढ़ समाज के निर्माण में नारियों की भूमिका रही है। श्रेष्ठ व्यक्ति, श्रेष्ठ परिवार व समाज के निर्माण हेतु प्रकृति ने नारी को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी है। परन्तु यह जिम्मेदारी वह तभी पूरा कर सकती है जब वह स्वयं स्वस्थ्य हो, पवित्र विचार वाली सुसंस्कृत हो।

    व्यक्तित्व निर्माण के क्रम में संयम साधना प्रमुख है। इंद्रिय संयम के क्रम में दो संयम आते हैं।  स्वादेन्द्रिय एवं कामेन्द्रिय। यहां ब्रह्मचर्य का तात्पर्य कामेन्द्रिय संयम से है, जिससे व्यक्ति का चरित्र एवं स्वास्थ्य दोनों प्रभावित होता है।

    ब्रह्मचर्य दो प्रकार के होते हैं- शारीरिक एवं मानसिक।

    शारीरिक ब्रह्मचर्य अर्थात् विवाहित जीवन में कामेन्द्रिय का मर्यादा में रहते हुए सन्तानोत्पादन व काम सुख के प्रयोजन  से उपयोग करना, मर्यादा में रहना एवं अविवाहित जीवन में कामेन्द्रिय का पूर्ण संयम बरतना।

    एक बार सन्त सुकरात से एक व्यक्ति ने पूछा कि जीवन में स्त्री प्रसंग कितनी बार किया जाना चाहिए? तो सुकरात ने कहा- जीवन में एक बार। व्यक्ति असन्तोष जाहिर करते हुए इसे बहुत कम बताया तो सुकरात ने कहा-वर्ष मे एक बार। फिर भी व्यक्ति को सन्तुष्टि नहीं हुई तो कहा माह में एक बार। लेकिन फिर भी उस व्यक्ति के असन्तुष्ट रहने पर उन्होंने ने कहा- ‘‘कि जाओ सिर में कफन बांध लो और अपना कब्र खोद लो, फिर चाहे जितनी बार स्त्री प्रसंग करो। ’’

(तीन चार माह में एक बार काम सेवन पर्याप्त होता है।)

मानसिक ब्रह्मचर्य अर्थात् नर-नारियों का अपने चिन्तन और व्यवहार में एक दूसरे के प्रति पवित्रता का समावेश करना। नर, नारी को माता, बहिन, बेटी के रूप में एवं नारी पुरुष को पिता, भाई, पुत्र के रूप में पवित्र दृष्टि से देखें।

    स्वयं नारी अपने को रमणी रूप मे न देखें, न ही अपने रमणीय रूप का मायाजाल पुरुषों पर फेंकने की वासनात्मक कुकल्पनाएं व कुचेष्टएं करे।

    प्रकृति ने नारी को संसार में पवित्रता, स्नेह, संवेदना, समता, ममता, करुणा, सहकार, सदाशयता आदि दैवी भावों के संचार हेतु बनाया है, न कि दूषण फैलाने और सूर्पणखा जैसा व्यवहार करने। विवाहित जीवन में भी ध्यान देनें योग्य बात है कि विवाह का उद्देश्य दो शरीरों को एक आत्मा बनाकर जीवन की गाड़ी का भार दो कंधों पर ढोते चलना है, न कि एक दूसरे की गलत आदतों को प्रोत्साहित करना। जो नारी अपने आपको मन से रमणी, कामिनी, भोग्या समझती है वह वैसी ही चेष्टाएं करती है और स्वयं अपने लिए पतन का मार्ग बनाती है। उसे पुरुषों के बीच सम्मान प्रतिष्ठा मिलने के बजाय पुरुषों की लोलुप दृष्टि बेधती है एवं बहुत जल्दी उनका चरित्र नाश हो जाता है।

    पत्नी, पति को अपने संयमित व्यवहार एवं पवित्र भावों से, प्रेरणाप्रद ज्ञानवद्र्धक समझाइश से ब्रह्मचर्य पालन हेतु प्रेरित कर सकती है। संयमी दम्पत्ति की सन्ताने बलशाली, बुद्धिमान, सुसंस्कारी, स्वस्थ होते हैं। मनु सतरुपा ने प्रचण्ड तपश्चर्या से संयम साधना किया था, फलस्वरूप अगले जन्म में राजा दशरथ एवं कौशिल्या बने। पुत्र रूप में राम को पाया।

ब्रह्मचर्य के लाभ

    ब्रह्मचर्य से आयु में वृद्धि होती है, प्राण बल बढ़ता है। स्मरण शक्ति, मेघा, पराक्रम, व्यक्तित्व में अद् भुत आकर्षण शक्ति, वाणी में तेज, शरीर में ओज, कार्य के प्रति अपूर्व उमंग उत्साह बढ़ता है। ब्रह्मचर्य पूर्वक रहने से ज्ञान की बातें अभ्यास में उतर पाती है। हर उपलब्धि के मूल में ब्रह्मचर्य साधना है।

    आध्यात्म का ककहरा ब्रह्मचर्य साधना से ही आरम्भ होता है। पञ्चकोषीय साधना का मूलाधार एवं सभी कोषों के खजाने की चाबी ब्रह्चर्य है। श्रृंगी ऋषि, महर्षि दयानन्द सरस्वती, भीष्म पितामह, विवेकानन्द, महाबली हनुमान, पराक्रमी लक्ष्मण ने ब्रह्मचर्य से अतुलित शक्ति, पवित्रता, पराक्रम एवं अद् भुत आत्मबल पाया। वहीं पृथ्वीराज चौहान एवं योद्धा अभिमन्यु को असंयम के कारण युद्ध में असफलता मिलने का उल्लेख इतिहास में मिलता है। मीरा, सुलभा, गार्गी, मैत्रेयी, सावित्री, दमयन्ती आदि नारी रत्न ब्रह्म चारिणी थी।

    मानज जीवन भोग विलास में डूबे रहकर अपने शारीरिक, मानसिक और आत्मिक पतन करने के लिए नहीं, बल्कि उत्तरोत्तर उन्नति के शिखर पर पहुँचने के लिए मिला है। महात्मा गांधी ने 32 वर्ष की आयु में कस्तुरबा को माँ बना लिया था। परम पूज्य गुरुदेव भी वन्दनीया माता जी को ‘माताजी’ कहते थे।

    काम वासना का सम्बन्ध मन से होता है, इन्द्रिय से नहीं। एक युवक एक संत के पास प्रतिदिन उपदेश सुनने जाया करता था। अपनी समस्याओं को भी सुनाया करता था। एक दिन युवक ने संत से अपनी परेशानी बताई, कहा- महात्मन्  आजकल मेरा मन काम वासना की ओर भागता है, मन नियंत्रण में नही रहता। संत ने समस्या सुनी और उसे हल करने की बात कही। कुछ देर बाद उसका हाथ देखा- और विस्मय से कहा-‘‘अरे! यह क्या। आठ दिनों के बाद तुम्हारा जीवन समाप्त होने वाला है। अब तुम्हें इस जीवन को ईश्वर के मनन चिन्तन में लगाना चाहिए।’’ युवक का मुँह सुख गया। सभा समाप्त हुई युवक घर चला गया। दूसरे दिन, युवक सत्संग में नहीं पहुँचा, तीसरे, चौथे........आठवें दिन भी युवक सत्संग में नहीं पहुँचा, तब संत ने युवक को बुलवाया। युवक का शरीर चिन्ता से आधा सुख गया था। संत ने पूछा बेटा कैसे हो? सत्संग में नहीं आए। अच्छा अब तुम्हारा कामुक मन का क्या हाल है? युवक ने कहा- ‘‘महात्मन् मेरा मन तो मौत की प्रतीक्षा में ही लगा हुआ है उसे कामुक होने का अवसर ही नहीं मिला।’’ संत ने युवक को समझाया कि- तुम्हें व्यवहारिक शिक्षण देने हेतु मौत की बात कही थी, ताकि तुम अपने मन की प्रकृति और कामुकता से उसके सम्बन्ध को समझ सको। मन को किसी उच्चस्तरीय लक्ष्य या विषय से जोड़ो उस पर चिन्तन करो तो मन की सारी ऊर्जा उसमें लगकर कार्य सिद्ध कर देगी अन्यथा शरीर नाश कर देगी।

    किशोरावस्था से ही शरीर एवं मन में अनेक परिवर्तन होने लगते हैं। विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण बढऩे लगता है। ऐसे में सावधानी बरती जाए नहीं तो अनजाने में ही बड़े अनर्थ होते रहते है और अन्त में बड़ी-बड़ी दुर्घअनाएं घट जाती है।

    जींस, घुटने तक के ड्रेस, ऊपर चुस्त, कंधे उघाड़ कपड़ों के फैशन हमारी बेटियों को लीलते जा रहे हैं। वे आज की आधुनिक नग्नता और फैशन की अंधी दौड़ में शामिल होकर अपने को गौरवान्वित महसूस करती है। हमारी संस्कृति में जो स्थिति उसके लिए परम लज्जा का रहा है, उसमें वह गौरव अनुभव करती है। इस पर अधिक दु:ख तो तब होता है जब स्वयं माता-पिता उन्हें ऐसा करने पर प्रतिबन्ध लगाने के बजाय मूकदर्शक बन उसके ऐसे कार्य में सहयोग करते हैं। इस भोग प्रधान पाश्चात्य संस्कति जिसमें नारी को भोग की वस्तु की तरह देखा जा रहा है, की मार को चांदी के जूते खाने की तरह सौभाग्य माना जा रहा है।

    भारतीय संस्कृति में नारी का स्थान देवी, पूज्या, माता का है। हमारी बेटियों को सद् बुद्धि आए, आप भारतीय संस्कृति के गौरव को समझें, स्वरूप को जाने और उसे अपनाकर भारतीय संस्कृति की पुरोधा बनें, तो आपका भारतवर्ष में नारी जन्म लेना सार्थक होगा, अन्यथा सूर्पणखा संस्कृति की संवाहिका बनकर समाज व परिवार के लिए कलंक साबित हो सकती है।

    लड़कियों की वेशभूषा लड़कियों की तरह ही हो-सूट पहिनें, साड़ी पहनें। ऐसे वस्त्र जिससे शरीर का आकार स्पष्ट दिखाई देता हो, अश्लील वेशभूषा कही जाती है, उससे बचें। सूट का दुपट्टा गले से चिपकाकर नहीं वक्षस्थल पर रखें।

ब्रह्मचर्य के उपाय

1.    टीवी, सिनेमा, श्रृंगारिता, अश्लील साहित्य, उत्तेजक दृश्य-संगीत आदि से बचें।

2.    चटोरा खान-पान, मिर्च मसालेदार राजसिक, तामसिक (मांसाहार) भोजन से बचें।

3.    किसी भी प्रकार का नशा (शराब, तम्बाकू, पान गुटखा, गुड़ाखू) शरीर में उत्तेजना एवं चरित्रभ्रष्टता लाता है। नशे से बचें।

4.    चरित्रहीन, व्यसनी, आवारा मित्रों (लडक़े-लड़कियों दोनों) से बचें। कुसंग त्यागें।

5.    सत् साहित्य, महापुरुषों के जीवन चरित्र से प्रेरणा लें। स्वाध्याय की आदत डालें।

6.    मन को किसी रचनात्मक कार्य का लक्ष्य से जोड़ें, खाली न बैठें।

7.    जब मन में असंयम उत्तेजना आए तो अकेले न रहें। ऐसे में कोई अच्छी पुस्तकें पढ़ें, स्थान परिवर्तन कर दें। या किसी सात्विक स्वभाव वाले मित्र, माता महापुरुष या गुरुजन से मिलें या उन्हें याद करें।

8.    लड़कियाँ बनाव श्रृंगार से दूर रहें। चुस्त भडक़ीले कपड़े पहनना, फूहड़पन, लडक़ों से अत्यधिक बातें करना, दूसरों को आकर्षित करने के विचार और भाव से अपने का सजाना आदि आदतों को पूर्णत: त्यागें।

9.    एकांत में लडक़ों से बातें करना, उनसे हाथ मिलाना, अनावश्यक मेलजोल बढ़ाना या मिलने का क्रम बनाना आदि से बचें।

10.    ब्यूटी पार्लर, रैम्प शो, ब्यूटी कांस्टेस्ट से दूर रहना। सौंदर्य हेतु प्राकृतिक साधनों का प्रयोग करें, योग करें।

11.    प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में उठें।

12.    प्रतिदिन प्राणायाम (भस्रिका, कपालभाति, अनुलोम विलोम) पश्चिमोत्तासन, हलासन, सर्वांगासन, भद्रासन, मूलबंध का अभ्यास करें।

सुसन्तति उत्पादन व निर्माण

    नारी का जननी रूप सर्वविदित है। नारी का गौरव मातृत्व में है। सृष्टा ने संसार की निरन्तरता को बनाए रखने के लिए पृथ्वी पर अपनी जगह नारी की रचना की है, इसलिए उसकी जिम्मेदारी है कि वह ईश्वर की प्रतिनिधि बनकर समाज में अपनी कोख से, चरित्र से, व्यवहार से, ज्ञान से देवता गढ़े और देवत्व का संचार करे। इस क्रम में सन्तान उत्पादन उसकी बड़ी जिम्मेदारी है, लेकिन इस जिम्मेदारी की गम्भीरता को न समझने के कारण आज समाज में उद् भिजों की तरह एक्सीडेंटल बच्चे पैदा हो रहे हैं। इसी वजह से व्यसनी, व्यभिचारी, हिंसक, कामुक, विलासी, आलसी बच्चों से समाज भरा पड़ा है। नारी समाज को श्रेष्ठ , संस्कारवान पीढ़ी, श्रेष्ठ नस्ल की सन्तान देने में समर्थ हो सकें इस क्रम में ध्यान देने  योग्य बिन्दु है कि कन्या-

1.    स्वयं संस्कारवान, चरित्रनिष्ठ  बने, ब्रह्मचर्य शिक्षा को जीवन में उतारने का सतत् अभ्रयास करे।

2.    उपासना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के अभ्यास से तपी हुई नारी का व्यक्तित्व देवताओं को भी आकर्षित करती है, अत: वह ऐसे अभ्यास से नर रत्न गढऩे वाली सांख बने।

3.    सतोगुणी प्रवृत्ति प्रधान पवित्र गर्भ को, देवात्माएँ, पवित्र आत्माएं तलाश कर रही हैं, ताकि पृथ्वी पर अवतरित हो सकें। परन्तु उपयुक्त गर्भ के अभाव में वापस चली जाती हैं। पवित्र चिन्तन, चरित्रवाली एवं आदर्श लक्ष्य वाली कन्या ही ऐसी आत्माओं का जन्म देने योग्य होती हैं। उसके गर्भ में सन्त, शहीद, सूर, आविष्कारक, विचारक अवतरित हो सकेंगे।

4.    श्रेष्ठ संतान ही पैदा करने का संकल्प करें और श्रेष्ठ परिवार व श्रेष्ठ समाज के निर्माण में सहयोग करें।

श्रेष्ठ संतान कैसे पाएँ

    प्रकृति से ऊपर उठना संस्कृति है तथा प्रकृति से नीचे गिर जाना विकृति है। मनुष्य यदि गिरना चाहे तो वह पशु और दानव से भी नीचे गिर सकता है और उठना चाहे तो देव व उससे भी श्रेष्ठ बन सकता है। इसके लिए भारतीय संस्कृति में संस्कार परम्परा के अन्तर्गत 16 संस्कारों का अविष्कार किया गया है।

    संस्कार एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रथम संस्कार गर्भाधान संस्कार है। जिसका आज लोप हो गया है। आज कामज विवाहों की बाढ़ है तथा बिना किसी योजना के सन्तानें पैदा हो जाती है जिससे परिवार व समाज का स्वरुप अपाहिज जैसा हो गया है।

    विकलांग, मन्दबुद्धि, नीचबुद्धि, हिंसक, पशुतुल्य सन्तान न हो, इस हेतु आवश्यक है कि गर्भधान संस्कार ठीक से हो। गर्भाधान संस्कार अर्थात् वर-वधु शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, आध्यात्मिक सभी दृष्टि से उन्नत सन्तुष्ट होकर भलीभांति सोच विचार कर, श्रेष्ठ सन्तान प्राप्ति की इच्छा से, गुरुजन, ईश्वर व माता-पिता से आशीष लेकर श्रेष्ठ तिथि में सन्तानोत्पादन हेतु श्रेष्ठ, श्रद्धापर्ण (कामवासना रहित) मनोभाव के साथ प्रवृत्त होते हैं।

गर्भाधानकाल से सम्बन्धित कुछ बातें विशेष महत्व के हैं-

1. यदि पत्नी के हृदय में पति के प्रति श्रद्धा का अभाव होगा तो अश्रद्धा की स्थिति में गर्भधान होने पर श्रेष्ठ सन्तान की उत्पत्ति सम्भव नहीं। अत: पत्नी के हृदय में पति के प्रति प्रेम व श्रद्धा हो।

उदा.- महाभारत में वर्णन आता है कि जब रानी सत्यवती के दोनों पुत्र चित्रांगद और विचित्रवीर्य नि:संतान मर गए, तब माता सत्यवती ने ऋषि वेदव्यास को नियोग परम्परा द्वारा पुत्रवधु अम्बिका व अम्बालिका से एक-एक पुत्र उत्पन्न करने को कहा। गर्भाधान के समय अम्बिका ने ऋषि की जटा, दाढ़ी व तप से काले हुए चेहरे को देखकर घृणा से आंखें बंद कर ली, इसलिए उसका अन्धा पुत्र धृतराष्ट्र हुआ और ऋषि अम्बालिका के पास गए तो वह भय से पीली पड़ गई इसलिए उससे पीले रंग व कमजोर शरीर वाला पाण्डु  हुआ। जब इनकी दासी ऋषि के पास गई तब उसने एक ऋषि की सन्तान की माँ बनना अपना अहोभाग्य माना इसलिए उसकी विदुर जैसी श्रेष्ठ संतान हुई।

    गर्भाधान शास्त्र में समस्त तिथियों में हो तथा गर्भाधान की अवधि में पति-पत्नी का मनोभाव, प्रेम समर्पण, श्रद्धा, भक्तिपूर्ण हो तथा समाज को श्रेष्ठ सुसंस्कृत, संत, शहीद, सूर, आविष्कारक, बुद्धिमान संतान देने का हो।

2. पुरुष के एक बार के वीर्य में 2 करोड़ से 5 करोड़ शुक्राणु होते हैं। प्रत्येक शुक्राणु में एक जीवात्मा होती है, जो मानव देह धारण करने के लिए आतुर होती है। इनमें अधिकांश जीवात्माएँ सामान्य श्रेणी की होती है, जबकि कुछ तो बहुत ही श्रेष्ठ या पुष्ट होती हैं। गर्भाधान के समय जिस शुक्राणु को सबसे अनुकूल वातावरण मिलता है, वह तेजी से आगे बढ़ता चला जाता है, अन्य मरते व पिछड़ते चले जाते है। श्रद्धा, प्रेम, समर्पण, विवशता, उदासीनता, झुंझलाहट, क्रोध, घृणा, भय, वासना, लोभ, छल आदि भावों के समय शरीर में अलग-अलग प्रकार के हार्मोनों का स्राव होता है। गर्भाधान काल में जिस प्रकार का भाव होगा, उसी प्रकार के हार्मोन्स की प्रधानता होगी और उस वातावरण में जो शुक्राणु सर्वाधिक सक्षम होगा वही डिम्ब का निषेचन करने में सफल होगा।

    पाश्चात्य विज्ञान के अनुसार कौन सा शुक्राणु निषेचन करेगा और सन्तान किस प्रकार की होगी यह मात्र संयोग पर आधारित है। उनके अनुसार जानवर और मनुष्य की गर्भाधान क्रिया में कोई अन्तर नहीं है इसलिए पाश्चात्य देशों में गर्भाधान संस्कार नहीं होता। भारतीय ऋषियों ने मनुष्य की नस्ल सुधार के विज्ञान का आविष्कार किया। इस विज्ञान के अनुसार यह पति-पत्नी के हाथ में है कि वे किस प्रकार की सन्तान उत्पन्न करे।

    इसके लिए मुहुत्र्त का बड़ा महत्त्व है। महाभारत में एक कथा आती है। पाराशर ऋषि विद्वानों में मतभेदों से उत्पन्न मन भेद के कारण बड़े दु:खी थे। वे दु:खी मन से आकाश की ओर निहार रहे थे कि आकाश में नक्षत्रों की स्थिति देखकर उनके ध्यान में आया कि इस समय ऐसा मुहुत्र्त है, जो हजारों साल में एक बार आता है। इस समय यदि योग्य स्त्री में गर्भाधान हो तो ऐसा पुत्र पैदा होगा जो समस्त मतभेदों को मिटाकर विद्वानों को एक साथ ला सकेगा। उन्होंने अपने सम्मुख खड़ी पवित्र और निश्चल मत्स्य कन्या को देखा और अपना हेतु बताया। उसने ऋषि के उत्कृष्ट हेतु को जानकर स्वयं को ऋषि को समर्पित कर दिया, परिणाम स्वरूप वेदव्यास जी का जन्म हुआ। वेदव्यास जी ने वेदों के बिखरे ज्ञान को चार खण्डों में व्यवस्थित कर विद्वानों में व्याप्त मतभेदों को मिटाया। 18 पुराणों और महाभारत की रचना की।

    इसलिए हमारे शास्त्रों में कुछ विशेष दिन वार, तिथियों में गर्भाधान की मनाही है। दिन के समय, रजोदर्शन के बाद प्रथम चार रात्रियाँ, कृष्ण तथा शुक्ल दोनों ही पक्षों की-चतुर्थी, षष्टि , अष्टमी, नवमी, एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या तिथि। मंगल, शनि, रविवार, मूल, मघा व रेवती नक्षत्र, नक्षत्र की संधि, माता-पिता का श्राद्ध दिवस, स्वयं का जन्म नक्षत्र, जन्मतिथि व जन्मवार आदि में गर्भाधान से श्रेष्ठ सन्तान पैदा नहीं होती।

    श्रेष्ठ पुत्र व कन्या के लिए रजोदर्शन के बाद पीछे की रात्रियाँ पहले की रात्रियों से अधिक श्रेष्ठ होती है। विवाह के पश्चात पहले होने वाले/वाली सन्तान प्राय: वासना की प्रमुखता से होती है। बाद की सन्तानें विचार की प्रमुखता से होती है।

    संयम साधना से श्रेष्ठ सन्तान पाना सम्भव है। वर-वधू पहले श्रेष्ठ आदतें, संस्कार अपने व्यक्तित्व में लाएँ तब सन्तान की इच्छा करें। माता-पिता भी शीघ्र सन्तान हेतु दबाव न डालें।

नारी स्वास्थ्य

    लड़कियाँ/महिलाएँ यूँ तो सामान्य क्रम में पुरुषों की ही भाँति स्वास्यि की समस्याओं से ग्रस्त होती हैं, परन्तु यौवन काल में कुछ समस्याएँ चरम पर होती हैं जैसे-गर्भाशय संबंधी तकलीफें, गर्भाशय में सूजन, सफेद पानी का जाना, प्रदर रोग, मासिक धर्म की अनियमितता, मासिक धर्म से पहले या उसी अवधि में कमर, पेडू आदि में अत्यधिक दर्द होना आदि। ऐसे समय में वे एलोपैथी दवाएँ लेकर तत्काल राहत पाना चाहती हैं, जो कि बहुत खतरनाक दुष्परिणाम पैदा करती है। थोड़ी उम्र में बढऩे के बाद  गर्भाशय से अत्यधिक रक्तस्राव और उसके बाद उसका ऑपरेशन द्वारा शरीर से बाहर निकाल दिये जाने की डॉक्टरों की सलाह से आज बहुत सी महिलाओं को नई समस्या से जूझना पड़ रहा है।

    बहुत सी महिलाएँ मासिक धर्म को समय से पहले या बाद में लाने या टालने हेतु दवाएँ लेती हैं, जो अत्यधिक नुकसान देह होती है। मासिक के समय वाँछित स्वच्छता सफाई न बरतना खान-पान का समय न बरतना भी नई तकलीफों को जन्म देता है।

इस विषय में ध्यान देने योग्य कुछ बिन्दु है-

1.    मासिक धर्म काई छूत का रोग नहीं है। प्रकृतिगत स्वाभावित क्रिया है, जिससे शरीर की सफाई होती है। अत: मासिक धर्म को लेकर लड़कियाँ हीनता ही भाव न लाएँ और न ही परिवार में अन्य सदस्य उनसे हीनतापूर्ण छूआछूत का व्यवहार करें।

2.    इस अवधि में शरीर को आराम चाहिए अत: अतिश्रम से बचें। सर्दी गर्मी से बचें। पूजा पाठ सम्बन्धी नियमों का पालन के क्रम में इतना ही पर्याप्त है कि स्थूल पूजा सामग्री को न छूएँ। मानसिक जप, ध्यान, मन्त्रलेखन से कोई परहेज करने की आवश्यकता नहीं है।

3.    मासिक धर्म की अवधि में दर्द होने पर एलोपैथी दवा न लें। योग्य विशेषज्ञ से सलाह लेकर आयुर्वेदिक या होमियोपैथी दवा ले सकते हैं। पेडू व पेट में गरम पानी की थैली या जॉटल से सेंक करें ठंडी खट्टी चींजे न खाएँ। गरम पेय, गरम भोजन लें। मिर्च मसालेदार भोजन न लें।

4.     मासिक धर्म की अवधि में वस्त्रों की सफाई का पर्याप्त ध्यान रखें। मेडिकल के पैड इस्तेमाल करें। यदि कॉटन कपड़ा इस्तेमाल करते हों तो एक कपड़े को (छ: बार) अधिक इस्तेमाल न करें। कपड़े को अच्छी तरह साबुन से धोकर धूप में सुखाएँ तथा कीटाणु रहित स्वच्छ स्थान में रखें। ग्रामीण क्षेत्रों की बहनें विशेष रूप से ध्यान रखें।

5.     पूजा-पाठ अनुष्ठान के कारण कभी भी मासिक धर्म के समय को आगे बढ़ाने तथा उसके लिए दवाएँ लेने की गलती न करें। प्रकूति की स्वाभाविक क्रिया में दखल न दें।

6.     विवाहित बहनें अपने दाम्पत्य जीवन में संयम बरतें असंयमित (ब्रह्मचर्य का अभाव) मर्यादाहीन यौन संबंधों के कारण यौन रोग, गर्भाशय संबंधी तकलीफें, अत्यधिक रक्तस्राव की स्थिति आती है।

7.     उत्तेजक खान-पान, मांसाहार, टी.वी. के उत्तेजक दृश्य, अश्लील साहित्य तथा अश्लील यौन संबंधी चर्चा से मासिक धर्म संबंधी तकलीफें अधिक बढ़ जाती है।

8.    मासिक धर्म संबंधी तकलीफों व अनियमितताओं के लिए मेंहदी बीज (सूखी) का पाउडर बना लें। एक-एक चम्मच सबेरे शाम आधा कप पानी में 6-8 घण्टे के लिए भिगा दें। सबेरे भिगाया हुआ शाम को एवं शाम को भिगाया हुआ सबेरे के समय खाली पेट लें। ऐसा दो-तीन महिने लगातार देते रह सकते हैं।

9.    काले तिल एक पाव, पानी 3 लीटर पानी में मिलाकर उबालें। डेढ़ गिलास बच जाए तो 3 खुराक बनाकर खाली पेट में सबेरे शाम ले लें। यह क्रिया माह में एक बार करें। सीता अशोक की छाल का काड़ा भी फायदेमंद होता है।

10.    गायनिक समस्या हेतु नियमित रूप से चक्की आसन, तितली आसन, पश्चिमोत्तासन, प्रज्ञायोग तथा कपालभाति प्राणायाम करें।

11.    विवाहिताएँ इस अवधि में ब्रह्मचर्य का सख्ती से पालन करें।

संदर्भ पुस्तकें:-

1.    ब्रह्मचर्य जीवन की अनिवार्य आवश्यकता।

2.    काम तत्त्व ज्ञान विज्ञान।

3.    अपने डॉ. स्वयं बनें-डॉ. गौरीशंकर माहेश्वरी, मुम्बई।

4.    स्वस्थ एवं सुन्दर बनने की विद्या।

5.    ब्रह्मचर्य साधना-स्वामी शिवानन्द।

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