उपभोग नहीं उपयोग

जीवन उतना जटिल नहीं है जितना कि बन जाता है या बना दिया गया है ।। हँसी- खुशी की संभावनाओं से वह भरा- पूरा है ।। शरीर और मन की संरचना इस प्रकार हुई है कि वह बाहर के तनिक से साधनों की सुविधा प्राप्त हो जाने पर सहज ही स्वस्थ और सुखी रह सकता है ।। अति स्वल्प साधनों से अन्य जीवधारी अपना संतोषपूर्ण व्यवस्था क्रम चलाते रहते हैं, न उन्हें रुग्णता सताती है और न खिन्नता ।। यदि उन्हें सताया न जाए, तो शरीर यात्रा की प्रचुर परिमाण में उपलब्ध साधन सामग्री से ही अपना काम चला लेते है और हँसी- खुशी के दिन काटते है ।। मनुष्य को यह सुविधा और भी अधिक मात्रा में उपलब्ध है ।। उसका अस्तित्व एवं व्यक्तित्व इतना समर्थ है कि न केवल शारीरिक सुविधा की सामग्री, वरन् मानसिक प्रसन्नता की परिस्थिति भी स्वल्प प्रयत्न से प्रचुर मात्रा में प्राप्त कर सकता है ।। इतने पर भी देखा यह जाता है कि मनुष्य खिन्नता और अतृप्ति से ही घिरा रहता है ।। आधियों और व्याधियों की घटाएँ उस पर छाई रहती हैं ।। सौभाग्य जैसे समस्त साधन प्राप्त होने पर भी दुर्भाग्य की जलन में झुलसते रहने के पीछे एक ही कारण ढूँढ़ा जा सकता है कि सहज सरल रीति- नीति को छोड़कर हम जाल- जंजाल भरी विद्रुप विडम्बनाओं में उलझ गए और अपना मार्ग स्वयं कंटकाकीर्ण बना लिया ।। सहज स्वाभाविकता का नाम है धर्म और उसके विपरीत आचरण को अधर्म कहते हैं ।। वैयक्तिक और सामाजिक कर्तव्यों को जो सही तरह समझता है और सही तरह पालन करता है, उसे स्वल्प साधनों में भी तुष्ट- पुष्ट और प्रगतिशील देखा जा सकेगा ।।

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