सूर्य चिकित्सा विज्ञान

रोगों का निदान

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सूर्य चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थी को विभिन्न प्रकार के रोगों के नाम याद करने की जरूरत नहीं है, उसे तो यह देखना चाहिए कि रोग क्यों हुआ है। आमतौर से बीमारियों के तीन मुख्य कारण हैं-(1) गर्मी का बढ़ जाना, (2) सर्दी का बढ़ जाना, (3) पाचन क्रिया में कमी आ जाना। गर्मी बढ़ जाने से रोगी को जलन, बेचैनी, प्यास खुश्की, घबराहट आदि बातें होती हैं। पीड़ित स्थान गरम होता है।

 बीमार को ठण्ड प्राप्त करने की विशेष इच्छा होती है। ऐसे में रोगों को लाल रंग की अधिकता से उत्पन्न हुआ समझना चाहिए। सर्दी बढ़ जाने से रोगी की नसें सिकुड़ जाती हैं। पेशाब अधिक होता है, दस्त पतला होता है, शरीर में पीलापन छाया रहता है तथा मुंह, नाक आदि से बलगम आने लगता है। बीमार गर्मी में सुख अनुभव करता है। ऐसे रोगों को नीले रंग की अधिकता से उत्पन्न हुआ समझना चाहिए। शरीर के रसों का ठीक तरह से परिपाक न होने का कारण पीले रंग की कमी है। पीले रंग का काम है कि वह शरीर की समस्त धातुओं को पचाए।

भोजन से रस, रस से रक्त, रक्त से मांस इसी प्रकार क्रमशः अस्थि, मज्जा, मेद, शुक्र का ठीक प्रकार से बनाना, शरीर स्थित पीले रंग का काम है। यदि धातुएं ठीक प्रकार न बन रही हों और वे कच्ची रह जाती हों तो पीले रंग की न्यूनता समझते हुए उसी रंग को शरीर में पहुंचाने का प्रबंध करना चाहिए। आयुर्वेद प्रणाली में वात, पित्त, कफ का सिद्धांत है। वह भी इन रंगों से मिलता जुलता है। पीला रंग वात, लाल पित्त और नीला कफ से बहुत कुछ समानता रखता है।

आयुर्वेदिक वैद्य जिस बीमारी को पित्त से उत्पन्न बताएगा, सूर्य चिकित्सक उसे प्रायः लाल रंग से उत्पन्न निर्णय करेगा। वैद्य जैसे दो या तीनों दोषों के मिलने से कई बीमारियों की उत्पत्ति बताते हैं, वैसे दो-दो या तीन-तीन रंगों की कमी से कई बीमारियां उत्पन्न हो सकती हैं। सूर्य-चिकित्सक को रोग का निदान करने के लिए किसी पुस्तक पर पूरी तरह अवलंबित न रहकर अपनी बुद्धि से अधिक काम लेना पड़ता है। उसके लिए यह जरूरी नहीं है कि हजारों बीमारियों और उनके लक्षणों को कण्ठाग्र करे, अपितु उसकी बुद्धि ऐसी तीक्ष्ण होनी चाहिए कि सूक्ष्म दृष्टि से इस बात की परीक्षा भली भांति कर ले कि किस रंग की किस रोग में कमी या अधिकता रंगों का निदान कर लेना आधा इलाज है।

यदि इस विज्ञान के विद्यार्थी रोग के कारण को ठीक प्रकार समझ लेंगे तो वे चिकित्सा करने में अवश्य सफल होंगे। रंगों की कमी के कुछ लक्षण इस प्रकार हैं:— नीले रंग की कमी से — आंखों में जलन तथा सुर्खी, नाखूनों पर अधिक सुर्खी, पेशाब में ललाई या पीलापन, दस्त ढीला और पता, चमड़ी पर पीलापन या शरीर में उष्णता बढ़ना, चंचलता, क्रोध की अधिकता, अतिसार, पाण्डु रोग। पीले रंग की कमी से — खुश्की, मंदाग्नि, भूख न लगना, नींद कम आना, शरीर में दर्द, जंभाई, हाथ-पैरों में भड़कन। लाल रंग की कमी से — नींद की अधिकता, सुस्ती, आलस्य, कब्ज, आंख, नख, मल-मूत्र आदि में सफेदी के साथ नीली झलक। दो रंगों की कमी होने पर दोनों के लक्षण मिलते हैं।

तीनों रंग कम हो जाने पर तीनों के लक्षण पाए जाएंगे। रोग की परीक्षा करते समय सूर्य चिकित्सक रोगी के सारे कष्टों को मालूम करता है तथा समस्त शरीर के रंगों को बड़े ध्यान पूर्वक देखता है। तदुपरांत अपनी सूक्ष्म बुद्धि के अनुसार निर्णय करता है कि— (1) समस्त शरीर में गर्मी बढ़ रही है? (2) सर्दी बढ़ रही है? (3) परिपाक नहीं होता? (4) गर्मी सर्दी मिली हुई है? (5) अपरिपाक के साथ सर्दी-गर्मी भी मिश्रित है? (6) अलग-अलग अंगों में अलग-अलग विकार हैं? (7) तीनों कारणों में से कौन-सा कारण कम और कौन-सा अधिक तादाद में है? इन सब प्रश्नों पर विचार करके वह रोग की वर्तमान स्थिति का पूरा निश्चय कर लेता है। तदुपरांत उसके लिए चिकित्सा का निश्चय करता है। मान लीजिए गर्मी और अपरिपाक का मिश्रित रोग है, तो नीला और पीला मिला हुआ रंग देता है। यदि गर्मी बहुत अधिक और अपरिपाक साधारण है तो पीला रंग कम और नीला रंग अधिक मिलाना पड़ेगा, किंतु यदि गर्मी साधारण हो और अपच बढ़ा हुआ हो तो पीला अधिक और नीला कम मिलाना पड़ेगा।

अलग-अलग अंगों में अलग-अलग दोष हैं तो उनका बाहरी उपचार भी अलग-अलग होगा। एक अंग पर एक प्रकार की तो दूसरे पर दूसरे रंग की रोशनी डालने या लगाने का उपचार हो सकता है, किंतु पीने का जो जल होगा वह समस्त शरीर में बढ़े हुए कारणों की मात्रा का ध्यान रखते हुए कोई मिश्रित रंग निर्णय करना पड़ेगा और उसी का जल औषधि की तरह देना पड़ेगा। इस निदान और उपचार के निर्णय में चिकित्सक की तीक्ष्ण बुद्धि ही निर्णय कर सकती है। सूर्य का रंग सूर्य का रंग देखने में पारे की तरह सफेद मालूम पड़ता है, परंतु उसकी किरणों में सात रंग रहते हैं। यह सब रंग अलग-अलग ग्रहों के हैं। सूर्य के आस-पास जो ग्रह घूमते हैं, उनकी किरणें पृथ्वी पर आती हैं और वह भी सूर्य की किरणों के साथ ही मिल जाती हैं।

 योरोप के ज्योतिषियों ने यंत्रों द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि चंद्रमा का रंग चांदी के जैसा सफेद, मंगल का तांबे के समान, बुद्ध का गहरा पीला, बृहस्पति का सुनहरी, शुक्र का नीलमणि के समान, शनि का लोहे जैसा, राहू का अंधियारा और केतु का अनिश्चित रंग है। राहू-केतु की किरणें नहीं चमक सकतीं, केतू के रंग का कोई ठिकाना नहीं। इसलिए सात ग्रहों के सात रंग ही सूर्य की किरणों में पाए जाते हैं। उपरोक्त ग्रह हमेशा घूमते रहते हैं। अपनी गति के अनुसार जब वे पृथ्वी के निकट या दूर होते हैं तो उनकी किरणों में भी घट-बढ़ हो जाती है। तदनुसार प्राणियों पर अपना प्रभाव डालती हैं। पुराणों में सूर्य के सात घोड़े होने की कथा इसी आधार पर है। उन्होंने किरणों को घोड़ों की उपमा दी है। सातों रंग मिलने से सफेद रंग बनता है, इसी से सूर्य सफेद दिखाई देता है।

 एक तिकोना बिल्लौरी कांच लेकर उसे धूप में रखो तो उन सातों किरणों को अलग-अलग देख सकते हो। पानी की बूंदों में जब दूरस्थ सूर्य किरणें चमकती हैं तो पूर्व या पश्चिम में इन्द्रधनुष पड़ता है। इस इन्द्रधनुष में भी सातों रंगों के दर्शन किए जा सकते हैं। पश्चिमी ज्योतिषी इन किरणों को अपने यंत्रों की सहायता से देखते हैं और उसके आधार पर ग्रहों की स्थिति के बारे में बहुत ज्ञान प्राप्त करते हैं। सूर्य किरणों के सातों रंग यह हैं—(1) बैंगनी (2) नीला (3) आसमानी (4) हरा (5) पीला (6) नारंगी (7) लाल। यह तो सब लोग जानते हैं कि असल में लाल, पीला और नीला तीन ही रंग हैं। अन्य रंग इसके आपसी मिश्रण से बनते हैं। अलग-अलग ग्रहों से आने के कारण, किरणों के सातों रंग स्वतंत्र हैं, वे मिलावट के कारण इस रूप में दिखाई नहीं देते, तो भी उनका जो असर होता है वह मूल रंगों के अनुसार ही होता है।

 इसलिए उसका वही गुण होगा जो इन दोनों रंगों की ऐसी मात्रा मिला देने से होता है, जिसके अनुसार हरा रंग बना था। इसलिए हम इस पुस्तक में उन मूल रूप तीन ही रंगों का वर्णन करेंगे।
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