सूर्य चिकित्सा विज्ञान

रोगों का कारण

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सूर्य-चिकित्सा शास्त्र शरीर में रंगों की घट-ब्ढ़ के कारण रोगों को होना मानता है। इसके लिए यह जान लेना आवश्यक है कि रंग वास्तव में क्या है। पदार्थ-विज्ञान के छात्र जानते होंगे कि संसार के संपूर्ण पदार्थ परमाणुओं द्वारा बने हुए हैं। विश्व में असंख्य प्रकार के रासायनिक तत्त्व व्याप्त हैं। विभिन्न-विभिन्न प्रकार के तत्त्वों के, विभिन्न मात्रा में मिलने पर अलग-अलग पदार्थ बन जाते हैं। यह मिश्रित पदार्थ जड़ और चेतन दोनों प्रकार के होते हैं।

 तुम दूध को कई पात्रों में रखो और उनमें से एक में दही, दूसरे में कांजी, तीसरे में नमक, चौथे में शक्कर डालकर कुछ देर तक रखा रहने दो। फिर देखो कि उनमें क्या परिवर्तन होता है। सब पात्रों का दूध अलग-अलग स्थिति में होगा और उनके गुण तथा रूप आपस में बिल्कुल भिन्न होंगे। चूना और हल्दी को इकट्ठा कर दें तो उसका रंग लाल हो जाएगा, उसी प्रकार नारियल के तेल में रतन ज्योति बूटी डाल दें तो उसका रंग भी लाल हो जाएगा। इन चारों चीजों में से यद्यपि किसी का रंग लाल न था, पर मिश्रण होते ही रंग बदल गया। इसलिए समझना चाहिए कि रंग कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है, वह विभिन्न प्रकार के रासायनिक पदार्थों के आपस में विभिन्न मात्रा में मिश्रण के परिणाम हैं।

जिस प्रकार हर एक वस्तु के स्थूल, सूक्ष्म और अत्यंत सूक्ष्म परमाणु होते हैं, वैसे ही रंगों के भी होते हैं। बाजार से जो रंग मोल लाओगे उसमें स्थूल परमाणु होंगे। उसे पानी में घोलकर किसी कपड़े को रंग दोगे तो वह स्थूल परमाणु पानी के सहारे सूक्ष्म होकर कपड़े के रेशे में मिल जाएंगे, उस दशा में रंग के अणु सूक्ष्म ही हैं, पर अत्यंत सूक्ष्म नहीं, क्योंकि उन्हें साबुन या किन्हीं मसालों की सहायता से छुड़ाया जा सकता है। अत्यंत सूक्ष्म परमाणु वह है जो किसी पदार्थ में इतना मिल जाए कि बिना उस पदार्थ को नष्ट किए वह पृथक न हो सके। पत्तियों का रंग, बालों का रंग, शरीर का रंग ऐसे ही अत्यंत सूक्ष्म परमाणुओं से बना हुआ है। रंगीन कांच में जो रंग होता है, वह भी इसी श्रेणी के परमाणुओं द्वारा निर्मित है। रंग स्वयं एक वैज्ञानिक मिश्रण है। आगे चलकर हम बताएंगे कि कौन-कौन सा रंग किन-किन रासायनिक पदार्थों के सम्मिश्रण से बना है।

लड्डू देखने में तो स्वतंत्र चीज है, परंतु वास्तव में वह खांड़, मैदा, घी, खोए आदि का सम्मिश्रण मात्र है। इसी प्रकार रंग भी कोई स्वतंत्र चीज नहीं, वह भी विभिन्न रासायनिक पदार्थों के अत्यंत सूक्ष्म परमाणुओं की स्फुरणा है। हमारा शरीर भी रासायनिक तत्त्वों से बना हुआ है। उसके जिस अंग में जिस प्रकार के तत्व अधिक होते हैं, वही रंग भी हो जाता है। चमड़े का रंग गेहुंआ, बालों का काला, आंखों का सफेद, पुतली का कसीसी, जीभ का गुलाबी, नाखूनों का फिरोजी, नसों का नीला, फेफड़ों का पीला, आंतों का भूरा, भीतरी झिल्लियों का मटमैला, हड्डियों का सफेद इस प्रकार शरीर के विभिन्न अंगों के विभिन्न रंग होते हैं। यदि इनमें पृथक-पृथक प्रकार के द्रव्य न होते और द्रव्यों के मिश्रण से विभिन्न रंग न बनते तो भीतर बाहर सब जगह एक सा रंग होता। अब पाठक समझ गए होंगे कि शरीर में रंगों की विभिन्नता किस कारण से है। शरीर में स्थित पदार्थों की कमी-वेशी की सर्वसुलभ, सस्ती और निश्चयात्मक परीक्षा किसी भी अंग का रंग देखकर की जा सकती है।

 पीला चेहरा देखकर आप अनायास ही कह सकते हैं कि इसे कमजोरी है और रक्त निर्बल हो गया है। पीली आंखें पाण्डु रोग और नीली या हरी आंखें कमलवाय (कामला) रोग का प्रतिनिधित्व करती हैं। कफ, पेशाब, मल आदि का रंग शरीर में उपस्थित गड़बड़ी का बहुत कुछ बयान कर देता है। यदि रंग का घटने-बढ़ने का महत्त्व न होता तो पीला या लाल रंग लिए हुए पेशाब आने पर आप क्यों चिंतित हो उठते हैं? जबान सफेद पड़ने लगे और नाखून पीले हो जाएं, तो आपको बीमारी की आशंका प्रकट होती है। जीभ के काली पड़ जाने पर मृत्यु की आशंका प्रकट हो जाती है। निश्चय ही शरीर में रंग एक विशिष्ट तत्व है और इसका ठीक रहना आवश्यक है। यदि अंगों के स्वाभाविक रंग घटें, बढ़ें तो रोग का ही प्रतीक समझना चाहिए।

सूर्य चिकित्साशास्त्री इसी रंग की कमी-वेशी को लक्ष्य करके पीड़ित स्थान पर उसी के अनुसार रंग पहुंचा कर चिकित्सा करते हैं। कोई भी परिवर्तन उस समय तक नहीं हो सकता, जब तक कि गर्मी न पहुंचे। गर्मी और पानी से हर जीवित पदार्थ में तुरंत ही परिवर्तन हो जाता है। बरसात में पौधे बहुत तादाद में उगते हैं और बहुत जल्दी बढ़ते हैं। हजारों किस्म के कीड़े-मकोड़े वर्षा ऋतु में अपने आप पैदा हो जाते हैं।

मक्खियां, मच्छर, बीरबहूटी, केंचुए, मेंढक और न जाने कितनी तरह के जंतु इस ऋतु में पैदा होते हैं, वे गर्मी और जाड़े में पैदा नहीं होते। गर्मी का केन्द्र सूर्य है, इसे ही अग्नि तत्त्व का अधिष्ठाता माना गया है। जो आग हम चूल्हे में जलाते हैं, वह भी सूर्य की शक्ति से ही आ जाती है। आपने देखा होगा कि गर्मी के दिनों में जरा से प्रयत्न से आग जल उठती है और उसमें गर्मी अधिक होती है, किंतु जाड़े और बरसात में वह प्रयत्न पूर्वक प्रज्वलित होती है, सो भी मंद वेग से। मनुष्यों के शरीर गर्मी के कारण ही जीवित रह सकते हैं।

 गर्मी शांत होते ही शरीर मुर्दा हो जाता है। यह जीवित रखने वाली गर्मी हमें सूर्य से प्राप्त होती है। इसलिए सूर्य की किरणों को पानी में मिश्रित करके उसे इस योग्य बनाया जाता है कि वह शरीर में आवश्यक परिवर्तन करता हुआ उचित द्रव्यों को पहुंचा सके। सूर्य किरणों में एक और भी खूबी है। वह यह है कि उनमें स्वयं रंग होते हैं। आकाशस्थ चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि आदि ग्रहों की किरणें भी पृथ्वी पर आती हैं, यह सूर्य के सप्तमुखी घोड़े का वर्णन पुराणों में इसी दृष्टि से किया गया है। किरणें घोड़ा हैं और सात रंग उसके सात मुख हैं। इंद्रधनुष में सात रंग साफ दिखाई देते हैं।

आतिशी शीशे के तीन पहलू वाले टुकड़े में भी यह रंग दिखाई देते हैं। सूर्य-किरणों से समस्त रोगों का नष्ट होना प्रसिद्ध है और इसे प्रत्येक विज्ञानी स्वीकार भी करता है। सूर्य-चिकित्सा शास्त्री जिन रंगों की रुग्ण शरीर में कमी देखता है, उन्हें पहुंचाता है। इस रंग को वह सूर्य किरणों से प्राप्त करता है। रंगीन कांच में एक ही रंग की किरण पार हो सकती है और शेष रंगों की बाहर ही रह जाती हैं। इसलिए रंगीन कांच का आवश्यकतानुसार उपयोग करके उनके द्वारा वांछनीय रंगों को प्राप्त कर लिया जाता है। बीमार भाग पर रंगीन कांच द्वारा प्रकाश देना, इसी सिद्धांत पर निर्भर है।

बोतलों में पानी भरकर उनमें उन रंगों को आकर्षित इसलिए किया जाता है कि यह रंगों से प्रभावित जल द्वारा पेट में पहुंचकर रक्त में मिल जाए और अपने प्रभाव से अव्यवस्था को दूर कर दे और क्षतिपूर्ति करता हुआ पीड़ित भाग को स्वस्थ बनाए। जल की विशेषता प्रसिद्ध है कि सूर्य के साथ सम्मिश्रण से जीवित पदार्थों में वह तुरंत ही सजीव प्रतिक्रिया पैदा करता है। शक्कर, तेल, मक्खन, औषधि आदि को इन्हीं रंगों से प्रभावित कर लेना ठीक है। इससे उन वस्तुओं की शक्ति स्वभावतः कई गुनी बढ़ जाती है।
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