बहुत से रोग ऐसे होते हैं जो धीरे-धीरे उत्पन्न होते हैं, जब वे पैदा होते हैं तब तो पता भी नहीं चलता, जब बढ़ जाते हैं तब लक्षण प्रकट होते हैं और रोग का पता चलता है। ऐसे रोग शरीर के स्वस्थ परमाणुओं को बहुत निर्बल बना देते हैं, इसलिए वे देर तक ठहरने वाले और देर में अच्छे होने वाले होते हैं।
दिल के रोग ऐसे ही चिरस्थाई होते हैं। दिल का ज्यादा धड़कना, अचानक हिलने लगना, थोड़ा-सा भी भय होने पर दिल में घबराहट होना, दिल में दर्द होना आदि लक्षण दिल के रोगी हो जाने पर होते हैं। प्रातः सायं नीला पानी तथा 15 मिनट तक हृदय पर नीला प्रकाश डालना, इन रोगों को दूर करने के लिए उचित है।
तिल्ली बढ़ जाने पर नारंगी रंग का पानी पिलाना चाहिए और नारंगी ही प्रकाश देना चाहिए।
यकृत बढ़ जाने पर पीला प्रकाश देना और पीला पानी पिलाना हितकर है।
जलोदर (पेट में पानी बढ़ जाने) की दशा में नारंगी रंग का प्रयोग लाभकारी है।
बवासीर खूनी और बादी दो प्रकार की होती है। बादी बवासीर में दिन में तीन बार नारंगी रंग का पानी पिलाना और मस्सों पर नीले रंग के पानी में भीगा हुआ कपड़ा रखना चाहिए या नीला प्रकाश देना चाहिए। आतिशी शीशे द्वारा सूर्य-किरणों से मस्सों को जला देना भी ठीक है।
खूनी बवासीर में पीले रंग का पानी दिन में चार बार पिलाना और गुदा तथा पेट पर नीले रंग का प्रकाश देना हितकर है।
पाण्डु या पीलिया रोग में शरीर मटीला और पीला हो जाता है, नाखून और आंखों के डेले भी पीले पड़ जाते हैं। दिनभर पड़े रहने को जी चाहता है, पेट भारी रहता है और उदासी छा जाती है। ऐसे रोगों में हरा प्रकाश समस्त शरीर पर 15 मिनट डालना चाहिए और हरा पानी 50 मि.ली. दिन में चार बार देना चाहिए।
रक्त–पित्त रोग के कारण मुख द्वारा या मल-मूत्र में खून जाता हो तो प्रायः आसमानी रंग का पानी और फिर दिन में तीन बार पीले रंग का पानी देना चाहिए। फेफड़ों में घाव हो जाने के कारण यदि खून आ रहा हो तो छाती पर नारंगी प्रकाश डालना लाभप्रद है। नाक से नकसीर फूटने पर नीले रंग का पानी नाक द्वारा खींचना चाहिए और पीने के लिए भी नीले जल का प्रयोग करना चाहिए।