इस प्रकार विचार किया जाए तो शिष्टाचार और सहयोग की भावना मनुष्यत्व का एक बहुत बड़ा अंग है । जो मनुष्य उसके तत्व को समझ लेता है वह सदैव दूसरों का सम्मान करने, उन्हें हर तरह का सहयोग देने, उनकी सेवा, उपकार करने को प्रस्तुत रहता है । क्योंकि यदि हम दूसरों के प्रति इस प्रकार का सद्व्यवहार करने की भावना नहीं रखते तो हमको भी अन्य व्यक्तियों से आवश्यकता पड़ने पर सहयोग और उपकार की आशा नहीं रखनी चाहिए । इसलिए शिष्टाचार का पालन करने वालों को सेवा और परोपकार का महत्त्व भी सदैव ध्यान में रखना चाहिए । शिष्टाचार के इस स्वरूप को समझने वाला व्यक्ति अपरिचितों के साथ भी वैसा ही उत्तम और मधुर व्यवहार करता है जैसा कि परिचितों के साथ । क्योंकि ऐसा व्यक्ति सभी को अपना आत्मीय समझता है और आवश्यकता पड़ने पर निस्संकोच भाव से अपनी सेवाएँ प्रस्तुत करने को तैयार रहता है । यदि गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए तो सेवा-धर्म शिष्टाचार का सर्वोत्कृष्ट और उन्नत रूप है । जब शिष्टाचार और सहयोग का भाव हमारी अंतरात्मा में समा जाता है, तब हम बिना किसी अन्य विचार के दूसरों को सुख पहुँचाना, उनकी प्रसन्नता की वृद्धि करना अपना कर्त्तव्य समझ लेते हैं । उस समय हम शिष्टाचार को एक भाररस्वरूप अथवा दिखावा अनुभव नहीं करते वरन वह हमारे अंतर से स्वयं ही सर्वत्र प्रसारित होने लगता है ।