शिष्टाचार और सहयोग

शिष्टाचार की प्रवृत्ति बाल्यावस्था से ही डालिए

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शिष्टाचार की प्रवृत्ति के इतना महत्त्वपूर्ण होते हुए भी खेद के साथ कहना पडता है कि अधिकांश घरों और परिवारों में उसकी ओर उचित ध्यान नहीं दिया जाता । बहुत से लोग तो यह सोचते हैं कि घर के भीतर, आपस में शिष्टाचार दिखलाने की क्या आवश्यकता है । वह तो विशेषत: बाहरी व्यक्तियों, अतिथियों के प्रति ही दर्शाना आवश्यक है, पर यह एक बड़ी भ्रमपूर्ण धारणा है । अगर आपको शिष्टाचार का अभ्यास नहीं है और हम परस्पर में असभ्यता का व्यवहार और बोलचाल रखते हैं तो हम बाहरी लोगों के साथ भी संतोषजनक व्यवहार नहीं कर सकते । इसलिए माता-पिता अथवा संरक्षकों का परम कर्त्तव्य है कि बालकों को आरंभिक जीवन से ही शिष्टाचार का महत्व हृदयंगम करावें और वैसी ही शिक्षा दें ।

उत्तम शिक्षण का एक उद्देश्य यह भी है कि व्यक्ति को जीवन में अच्छी आदतों से लज्जित व समलंकृत किया जावे । व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाना उत्तम शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए । किंतु दुर्देव से हमारी पाठशालाओं का शिक्षण-क्रम कुछ ऐसा है तथा हमारे घरों का वातावरण भी इतना प्रतिकूल है कि छात्र जितना अधिक पढ़ते जाते हैं उतने ही अधिक वे अविनयी व उद्धत होते जाते हैं । ज्यों-ज्यों आजकल का तथाकथित ज्ञान विद्यार्थियों के मस्तिष्क में घुसता जाता है त्यों-त्यों विनय या शील बाहर निकलता जाता है । आजकल की विद्या का नुशा ठीक शराब जैसा ही है । शराब के संबंध में इटालियन लोगों में यह कहावत प्रचलित है कि शराब अंदर जाती है तो सद्बुद्धि बाहर निकल जाती है । आज की शिक्षा मदिरा के प्रभाव से सद्बुद्धि व उत्तम शील भाग खडे हुए हैं । ऐसे समय में इस ज्ञान के प्रचार की कि विद्या की शोभा विनय से है आवश्यकता दिनोंदिन बढती जा रही है ।

विद्यार्थियों को विनयशील बनाने के लिए भगीरथ जैसे प्रयत्न की आवश्यकता नहीं है । बल्कि यदि हम चौकन्ने रहे असावधानी व प्रमाद को स्थान न दें, तो हमें अनेक छोटे-छोटे ऐसे अवसर प्राप्त होंगे जिनका सदुपयोग कर हम बालकों को अपनी इच्छानुसार विनय और शील संपन्न बना सकते हैं । बच्चे अविनयी इसलिए होते हैं कि न तो हम स्वयं संयत व्यवहार करते हैं और न स्वयं बच्चों को सुसंयत रखने की क्षमता रखते हैं । बच्चा हमारे सामने अपने बड़े भाई-बहिन का या स्वयं हमारा ही नाम लेता है तो हम हँस देते हैं । हम सोचते हैं कि बच्चा शब्दों का उच्चारण करना सीख रहा है तो उसे सफल होते देख प्रसन्न हो उठते हैं । हमारा बच्चा जब अन्य बच्चे को गाली देता है या अपने से बड़े किसी व्यक्ति को छडी़ से मारता है तो उसके साहस को देखकर हमें, प्रसन्नता होती है । बच्चा जब हमारी आज्ञा को टाल देता है तो हम भी आज्ञा-पालन पर जोर नहीं देते और फिर जब बड़ा होकर वह पूर्णत: उच्छृंखल, निरंकुश और उद्धत हो जाता है तब हम अपने भाग्य को कोसते हैं । जो वातावरण हम उनके सामने उपस्थित करते हैं उस वातावरण में पलने वाला बालक उद्धत और अविनयी न हो तो क्या हो ? दोष हमारा है और हम सदैव दैव को दोष देते हैं ।

इस दयनीय परिस्थिति से त्राण पाने के लिए हमें अपने बच्चों के लिए सुंदर और स्वस्थ परिस्थिति का निर्माण करना होगा । सुंदर वातावरण व मानसिक परिस्थितियों का निर्माण शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए । कारण यह है कि किसी विशेष परिस्थिति में बालकों को रखने का अर्थ है उन्हें दूसरी परिस्थितियों से साफ दूर रखना । यदि हम बालकों के लिए अच्छी परिस्थिति का निर्माण कर देंगे तो वे बिना प्रयास बुराईयों से बच जावेगें । क्योंकि एक अच्छे वातावरण में रहने वाला बालक दूसरे वातावरण के कार्य कर ही नहीं सकता । उदाहरणार्थ नित्य माता-पिता को प्रणाम करने वालों के लड़के न अपने माता-पिता को गाली दे सकते हैं न मार सकते हैं और न उनका नाम ले सकते हैं । अतएव हमें अपने बच्चों को सुंदर वातावरण में रखकर बुरे वातावरण से इतनी दूर रखना चाहिए कि बुरे वातावरण में पले व्यक्तियों जैसे आचरण करना उनके लिए कठिन हो जाय । सुंदर वातावरण में रहने से बालक अपने आप बुरे वातावरण व उसके प्रभाव से दूर रहेंगे । अतएव जो लोग चाहते हों कि उनके बच्चे विनयशील निकलें उन्हें अभी से वैसा वातावरण तैयार करने का प्रयत्न करना चाहिए । बालक के जन्म से पहले ही यह प्रयत्न होना चाहिए ।

यदि दुर्भाग्यवश प्रारंभ से ही हमने वातावरण को सुधारने का प्रयत्न नहीं किया है तो भी हमें हताश नहीं होना चाहिए । जब से हम सुधार करना प्रारंभ करेंगे तब से ही हमें प्रयत्नों का फल मिलना शुरू हो जाएगा । सत्प्रयत्न कभी निरर्थक नहीं होते । कल्याणकारी कर्मो को करने वाला कभी दुर्गति को नहीं प्राप्त होता, अतएव जब से हम चेत जावें तभी से सत्प्रयत्न आरंभ कर दें । कल्पना करिए कि आप अपने माँ-बाप या अन्य गुरुजनों के नित्य प्रातःकाल चरण-स्पर्श करेंगे तो आपके बच्चे आपकी इस रीति से प्रभावित हुए बिना न रहेंगे । उनके कोमल चित्त पर अदृश्य रूप में पवित्र संस्कार जमा होते जावेंगे और बड़े होने पर वे भी आपके इस आचरण का अनुकरण करेंगे ।

माता-पिता को प्रणाम करने का पवित्र प्रभाव आप पर भी पड़ेगा । यदि आपके गुरुजनों की धारणा आपके प्रति अभी तक अच्छी नहीं रही है तो आपके प्रणाम करने का तात्कालिक असर यह होगा कि उनकी भावनाएँ आपके प्रति शुद्ध हो चलेंगी और आपको उनका आशीर्वाद मिलना प्रारंभ हो जाएगा । यदि आपके प्रति उन्होंने कुछ गलत धारणाएँ बना ली हैं तो वे गलत धारणाएँ धीरे-धीरे काफूर हो जावेंगी और सच्चे मन से वे आपके लिए शुभकामनाएँ करेंगे जो निष्फल नहीं होंगी ।
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