शिष्टाचार का अर्थ बहुत से व्यक्ति केवल ऊपरी आवभगत से ही लिया करते हैं, पर ऐसी प्रवृत्ति बहुत कम उपयोगी होती है । शिष्टाचार की कृत्रिमता दूसरे व्यक्तियों से छिप नहीं सकती और इससे उनके हृदय में वह मैत्री अथवा आत्मीयता का भाव जागृत नहीं होता जो वास्तव में सहयोग की शक्ति को उत्पन्न करता है और हमारे जीवन को लाभान्वित बनाता है । इसलिए हमारे व्यवहार में साधारण शिष्टाचार के नियमों का पालन करने के साथ ही सद्भावना का होना अत्यावश्यक है । इसके बिना दिखावटी शिष्टाचार अनेक समय दूसरे व्यक्ति के मन में ऐसा भाव उत्पन्न करता है कि हम किसी स्वार्थ या अन्य गुप्त अभिसंधि के कारण यह दिखावा कर रहे हैं ।
हम परस्पर संदेह और संशय करके तो भय को ही उत्पन्न करेंगे और एक-दूसरे का ह्रास और अंतत: नाश ही करेंगे । हमें आपस में विचार करना सीखना होगा । विश्वास की भित्ति पवित्रता है और पवित्र हृदयों में विश्वास उत्पन्न होता है । पवित्र हृदय और निर्मल बुद्धि में सद्भावना का उदय होता है । सद्भावना परम आवश्यक है । सद्भावना से ही आपस का दृष्टिकोण सम्यक बनता है । सद्भावना के अभाव में तो एक-दूसरे में संदेह और भय की ही उत्पत्ति है । हम आपस में क्यों एक-दूसरे से भय करें ।
छिपी हुई दूषित अथवा विशुद्ध मनोवृत्ति व्यवहार में प्रकट हो जाती है । मनोवृत्ति को छिपा कर ऊपर से शिष्टता का व्यवहार भी बहुत देखने में आ रहा है, पर वास्तविकता छिपाए नहीं छिप सकती । हमें सबको मित्र दृष्टि से देखना चाहिए मन में किसी प्रकार की मलिनता को स्थान नहीं देना चाहिए पर साथ ही सचेत और सावधान भी रहना चाहिए कि कहीं हमारी सरलता से ही लाभ न उठाया जाए । सतर्क और सावधान रहना चाहिए पर मनोमालिन्य अच्छा नहीं ।
सद्भावना से एक-दूसरे को ठीक-ठीक जानना और आपस में एकता उत्पन्न करना, सहानुभूति से आपस में एक-दूसरे के हृदय में प्रवेश करना और हृदयों का समन्वय करना तथा सहयोग से सामर्थ्य प्राप्त करना यह क्रम है महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति का । सहयोग एक यज्ञ है । यज्ञ कभी विफल नहीं हुआ । सभी शक्तियों में सहयोग होने से एक अत्यंत महान शक्ति का उदय होता है जिससे सभी में नया उत्साह, साहस और वस्तुत: कार्यक्षमता युक्त नवजीवन उदय होता है ।