सेवा धर्म और उसका स्वरूप

सेवा की आवश्यकता और स्वरूप जन-साधारण की गतिविधियों और क्रिया-कलाप केवल अपने तक ही सीमित रहते हैं । सामान्य व्यक्ति अपना सुख और हित देखना ही पर्याप्त समझता है । वह सोचता है कि अपने लिए पर्याप्त साधन-सुविधायें जुट जायें, अपने लिए सुखदायक परिस्थितियों हों, इतना काफी है । शेष सब चाहे जिस स्थिति में पड़े रहे । स्वार्थपरता इसी का नाम है । 'स्व' के संकुचित दायरे में पड़े व्यक्तियों की रीति-नीति इसी स्तर की होती है । जब उसकी परिधि विस्तृत होती चलती है, व्यक्ति अपनेपन का विकास करता है, तो उसमें दूसरों के लिए भी कुछ करने की उमंग उठने लगती है और व्यक्ति मार्ग पर अग्रसर होने लगता है । आत्मिक चेतना का विकास जैसे-जैसे होने लगता है, सेवा की टीस उसी स्तर की उठने लगती है और व्यक्ति स्वयं की ही नहीं सबकी सुख-सुविधाओं और हित-अहित की चिंता करने लगता है, उनका ध्यान रखने लगता है । परमार्थ साधना में लगे व्यक्तियों को उससे भी उत्कृष्ट आनंद और आत्म-संतोष अनुभव होता है, जो स्वार्थ-पूर्ति में ही लगे व्यक्तियों को प्राप्त होता है । पुण्य-परमार्थ, लोक-मंगल, जन-कल्याण समाजहित आदि सेवासाधना के ही पर्यायवाची नाम हैं और इसी में जीवन की सार्थकता है । जिन व्यक्तियों ने भी इस

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