सावधानी और सुरक्षा

पाप से सावधान रहो

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मनुष्य का पतन शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के दोषों से होता है । हमको जिस प्रकार शारीरिक ओर व्यवहार संबंधी विषयों में सावधान रहने की आवश्यकता है, उसी प्रकार मानसिक दोषों से भी सतर्क रहने की आवश्यकता हे । मानसिक दोष सूक्ष्म इन्द्रियों के विषय होने के कारण अधिक कठिनता से दूर किए जा सकते हैं । मानसिक दोष ही वास्तविक पाप हैं और उनसे प्रत्येक क्षण सावधान रहना-बचे रहना परमावश्यक है ।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, असन्तोष, निर्दयता, असंयम, अभिमान, शोक, स्पृहा, ईर्ष्या ओर निन्दा मनुष्य में रहने वाले ये बाहरी दोष, तनिक-सा अनुकूल अवसर पाते ही उत्तरोत्तर बढ़ने लगते हैं ।

मुनि सनस्तुजात के अनुसार ''जैसे व्याघ्र मृगों को मारने का अवसर देखता हुआ उसकी टोह में लगा रहता है, उसी प्रकार इनमें से एक-एक दोष मनुष्यों का छिद्र देखकर उस पर आक्रमण करता है ।'' अपनी बहुत बढ़ाई करने वाला, लोलुप, अहंकारी, क्रोधी, चञ्चल और आश्रितों की रक्षा न करने वाले- ये छ: प्रकार के मनुष्य पापी हैं । महान संकट में पड़ने पर भी ये निडर होकर इन पाप कर्मों का आचरण करते हैं । सम्भोग में ही मन रखने वाला, विषमता रखने वाला, अत्यन्त भारी दान देकर पश्चात्ताप करने वाला, कृपण, काम की प्रशंसा करने वाला तथा स्त्रियों के द्वेषी- ये सात और पहले के छ: ये तेरह प्रकार के मनुष्य नृशंस वर्ग के कहे गये हैं । सावधान रहें !

मनुष्य प्राय: तीन अंगों से पाप में प्रवृत्त होता है । १- शरीर, २- वाणी और ३- मन द्वारा । इनके भी विभिन्न रूप हो सकते हैं । विभिन्न अवस्थाएँ अरि स्तर हो सकते हैं । ये प्रत्येक मनुष्य का अधःपतन करने में समर्थ हैं । तीनों द्वार बन्द रखें-शरीर मन और वाणी का उपयोग करते हुए बड़े सचेत रहें कहीं ऐसा न हो कि आत्म संयम की शिथिलता आ जाये और पाप पथ पर चले जाँय ।

शरीर के पापों में वे समस्त दुष्कृत्य सम्मिलित हैं जिन्हें रखने से ईश्वर के भव्य मन्दिर रूपी भवसागर से पार कराने वाले पवित्र मानव शरीर को भयंकर हानि पहुँचती है । कञ्चन तुल्य काया में विकार उपस्थित हो जाते हैं, जिससे जीवितावस्था में ही मनुष्य नर्क की यंत्रणाएँ प्राप्त करता है ।

हिंसा प्रथम कायिक पाप है । आप सशक्त हैं तो हिंसा द्वारा अशक्त पर अनुचित दबाव डालकर पाप करते हैं । मद, ईर्ष्या, द्वेष, आदि की उत्तेजना में आकर निर्बलों को दबाना, मारपीट या हत्या करना जीवन को गहन अवसाद से भर लेना है । हिंसक की अन्तरात्मा मर जाती है । उसे उचित-अनुचित का विवेक नहीं रहता उसकी मुख-मुद्रा से क्रोध, घृणा, द्वेष की अग्नि निकला करती है ।

चोरी करना कायिक पाप है । चोरी का अर्थ भी बड़ा व्यापक है । किसी के माल को हड़पना, डकैती, रिश्वत आदि तो स्थूल रूप में चोरी हैं ही, पूरा पैसा पाकर अपना कार्य पूरी दिलचस्पी से न करना भी चोरी का ही एक रूप है । किसी को धन सहायता या वस्तु देने का आश्वासन देकर, बाद में सहायता प्रदान न करना भी चोरी का एक रूप है । फलतः ये कार्य अनिष्टकारी एवं त्याज्य हैं ।

व्यभिचार मानवता का सबसे घिनौना निकृष्टतम कायिक पाप है । जो व्यक्ति व्यभिचार जैसे निम्न पाप-पंक में डूबते हैं, वे मानवता के लिए कलंक स्वरूप हैं । आये दिन समाज में इस पाप की शर्माने वाली गन्दी कहानियाँ और दुर्घटनायें सुनने में आती रहती हैं । यह ऐसा पाप हैं, जिसमें प्रवृत्त होने से हमारी आत्मा को महान दुःख होता है । मनुष्य आत्मग्लानि का रोगी बन जाता है, जिससे आत्महत्या तक की दुष्प्रवृत्ति उत्पन्न होती है । पारिवारिक सौख्य, बाल-बच्चों, पत्नी का पवित्र प्रेम, समृद्धि नष्ट हो जाती है । सर्वत्र एक काला अन्धकार मन वाणी और शरीर पर छा जाता है ।

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