सावधानी और सुरक्षा

आसुरी शक्तियों से संघर्ष करने में छल का प्रयोग

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आसुरी शक्तियाँ जब अत्यधिक प्रबल हो जाती हैं और उनको वश में करने के लिए सीधे-साधे तरीके असफल होते हैं तो काँटे निकालने की, ''शठे शाठ्यं समाचरेत्" की नीति अपनानी पड़ती हैं । सिंह, व्याघ्र आदि का पकड़ना या मारना-सीधे-साधे तरीके से नहीं हो सकता, उनके सामने जाकर कुश्ती लड़ना या पकड़ लाना आदमी की शक्ति से बाहर है । जल में फँसाकर, छिपकर, बन्दूक आदि हथियार का आश्रय लेकर ही उन्हें पकड़ा या मारा जा सकता है । मोटी दृष्टि से देखने पर यह क्रियायें छल, धोखेबाजी, कायरतापूर्ण आक्रमण कही जा सकती हैं, पर विवेकवान् पुरुष जानते हैं कि इसमें कुछ भी अनीति नहीं है । हिंसक जन्तुओं की भयंकर करतूतें, उनकी रोकने की अनिवार्य आवश्यकता एवं मनुष्य की अल्प शक्ति पर विचार करते हुए यह उचित प्रतीत होता है कि इन हिंसक जन्तुओं को जिस प्रकार से भी छल-बल से भी परास्त किया जा सकता हो तो वैसा भी निस्संकोच करना चाहिए ।

प्राचीन इतिहास पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो प्रतीत होता है कि इस नीति का अवलम्बन अनेक महापुरुषों को करना पड़ा है । धर्म की स्थूल मर्यादाओं का उल्लंघन करना पड़ा है । इस उल्लंघन में उन्होंने लोकहित का, धर्मवृद्धि का, अधर्म विनाश का ध्यान अपनी पूर्ण सद्भावना के साथ रखा था इसलिए उनको उस पाप का भागी नहीं बनना पड़ा जो साधरणतया धर्म मर्यादाओं के उल्लंघन करने पर होता है ।

भस्मासुर ने जब यह वरदान प्राप्त कर लिया कि मैं जिस किसी के सिर पर हाथ रख दूँ, वही भस्म हो जाय तो उसने महादेव जी को ही भस्म करने की ठानी ताकि सुन्दरी पार्वती को वह प्राप्त कर ले । भस्मासुर शंकर जी के सिर पर हाथ रखकर उन्हें भस्म करने के लिए उनके पीछे दौड़ा। शंकरजी अपने प्राण बचाकर भागे । विष्णु भगवान ने देखा कि यह भारी उलझन उत्पन्न हुई-असुर बलवान है, उसे परास्त करने के लिए छल का प्रयोग करना चाहिए । दे पार्वती का रूप बनाकर पहुँचे और कहा-असुरराज । मैं आपको बड़ा प्रेम करती हूँ, पर एक बात मुझे शंकरजी की बहुत पसन्द है वह है उनका नृत्य । आप भी यदि वैसा ही नृत्य कर सकें तो मैं इसी क्षण से आपके साथ चलने का तैयार हूँ । भस्मासुर बड़ा प्रसन्न हुआ, वह पार्वती के साथ नृत्य करने लगा । नृत्य करते समय उसने अपना हाथ सिर पर रखा और स्वयं जलकर भस्म हो गया । विष्णु ने अपने छल-बल से उस प्रचण्ड असुर को सहज ही नष्ट कर दिया ।

समुद्र मंथन के बाद चौदह रत्न निकले । अन्य रत्न तो बँट गये पर अमृत के बँटवारे पर भारी झगड़ा था । देवता और असुर दोनों ही इस बात पर तुले हुए थे कि अमृत हमें मिलना चाहिए । विष्णु ने देखा कि ऐसे अवसरों पर छल का अचूक हथियार ही काम देता है । उन्होंने मोहिनी रूप मनाया, असुरों को लुभाया, अमृत बाँटने के लिए असुरों की ओर से प्रतिनिधि बने । देवताओं को सारा अमृत पिला दिया, असुर बगलें झाँकते रह गये । उन्होंने देखा कि हमारे साथ भारी विश्वासघात हुआ, पर मोहिनी रूप विष्णु का उद्देश्य तो महान था । असुरों के साथ छल और विश्वासघात करने का दोष उनको छू भी नहीं सकता था ।

राजा बलि को धोखे में डालने के लिए वामन का छोटा-सा रूप बनाकर साढ़े तीन कदम भूमि माँगना और भूमि नापते समय इतना विशाल शरीर बना लेना कि तीन कदम में ही सब कुछ नाप लिया गया और आधे कदम के लिए बलि को अपना शरीर देना पड़ा । इसे स्थूल दृष्टि वाले क्या कहेंगे ?

वृन्दा का सतीत्व नष्ट करने के लिए भगवान को जालंधर का रूप बनाकर जाना और उसका सतीत्व नष्ट करना, मोटे तौर से धर्म नहीं कहा जा सकता । फिर भी यह इसलिए उचित था क्योंकि जलंधर की मृत्यु ऐसा किए बिना नहीं हो सकती थी और जलंधर ऐसा दुष्ट था कि उसके जीवित रहने से असंख्य जनता पर विपत्ति के पहाड़ टूट रहे थे । राम ने वृक्ष की आड़ में छिपकर बालि को मारने में युद्ध के धर्म नियमों का स्पष्ट उल्लंघन किया । इसे क्या कहा जायगा ?

महाभारत में धर्मराज युधिष्ठिर ने अश्वत्थामा की मृत्यु का छलपूर्ण समर्थन किया । अर्जुन ने शिखण्डी की ओट में खड़े होकर भीष्म को मारा । कर्ण के रथ का पहिया गढ़ जाने पर भी उसका वध किया गया । धड़ से नीचे का भाग घायल करना वर्जित होने पर भी भीम द्वारा दुर्योधन की जंघा पर गदा प्रहार हुआ । क्या यह सब धर्मयुद्ध के लक्षण हैं ? पर यहाँ धर्म युद्ध के नियमों का अवसर ही कहाँ था ?

आपत्ति धर्म के अनुसार घोर दुर्भिक्ष पड़ने पर प्राण संकट में होने पर, अपने शरीर को लोकहित के लिए जीवित रखने की आवश्यकता अनुभव करते हुए-विश्वामित्र ऋषि, चाण्डाल के घर रात्रि में घुसकर कुत्ते का मांस चुराते हैं । चाण्डाल उन्हें पकड़ लेता है और चोरी करने के लिए ऋषि की भर्त्सना करता है । विश्वामित्र उसे सविस्तार समझाते हैं कि ''मूर्ख ! तू धर्म को जितना स्थूल समझता है वह उतना स्थूल नहीं है । किसी महान् उद्देश्य के लिए अधर्म करना भी धर्म ही है । ''इसी प्रकार एक बार अकाल पड़ने पर अपने लोकहितैषी जीवन की रक्षा के लिए उषस्ति ऋषि को किसी अंत्यज के झूठे उड़द खाकर अपने प्राण बचाने पडे़ थे ।

प्रहलाद का पिता की आज्ञा का उल्लंघन करना, विभीषण का भाई को त्यागना, भरत का माता की भर्त्सना, करना बलि का गुरु शुक्राचार्य की आज्ञा न मानना, गोपियों का परपुरुष श्रीकृष्ण से प्रेम करना, मीरा का अपने पति को त्याग देना लौकिक दृष्टि से धर्म की स्थूल मर्यादा के अनुसार यद्यपि अनुचित कहे जा सकते हैं, पर धर्म की सूक्ष्म दृष्टि से इसमें सब कुछ उचित ही हुआ है ।

हिन्दू धर्म के रक्षक छत्रपति शिवाजी द्वारा जिस प्रकार अफजलखाँ का वध किया गया, जिस प्रकार वे फलों की टोकरी में छिपकर बादशाह के बन्धन में से निकल भागे उसे भी कोई मूढ़मति लोग छल कह सकते हैं । भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में क्रान्तिकारियों ने ब्रिटिश सरकार को उलटने के लिए जिस नीति को अपनाया था उसमें चोरी, डकैती, जासूसी, वेष बदलना, हत्या, कत्ल, झूठ बोलना, छल, विश्वासघात आदि ऐसे सभी कार्यों का उपयोग हुआ है जिन्हें मोटे तौर से अधर्म कहा जा सकता है । परन्तु विवेकवान व्यक्ति जानते हैं कि उनकी आत्मा कितनी पवित्र थी । अधर्म कहे जाने वाले कार्यों को निरन्तर करते रहने पर भी वे कितने बड़े धर्मात्मा थे । असंख्य दीन-दुखी प्रजा की करुणाजनक स्थिति से द्रवित होकर अन्यायी शासकों को उलटने का उन्होंने निश्चय किया था । कानून की पोथियों ने भले ही उन्हें दोषी ठहराया और उन्हें कठोरतम दण्ड दिये, पर परमात्मा की दृष्टि में, धर्म के तत्वज्ञान की कसौटी पर वे कदापि पापी घोषित न किये जायेंगे ।

इस प्रकार की भावनाएँ कानून के विपरीत होते हुए भी सात्विक दृष्टि से हेय नहीं हैं । राजनीति के नेता, युद्ध के सैनिक, सरकार के गुप्त गृह विभाग के कर्मचारी इस तथ्य को अपनी विचारधारा का प्रधान अंग मानकर कार्य करते हैं । यदि वे सत्य और निष्कपटता की स्थूल परिभाषा के अनुसार अपना कार्य करने लगे तो उनका कार्य एक दिन भी चलना असम्भव हैं ।

इन सब बातों पर विचार करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि हमारे अन्तःकरण में सत्य, प्रेम, न्याय, त्याग, उदारता, संयम, परमार्थ आदि की उच्च भावनाओं का होना आवश्यक है, उनकी जितनी अधिक मात्रा हो उतना ही उत्तम है । पर संसार के उन व्यक्तियों के साथ जो अभी अज्ञान या पाप के ज्वर से बेतरह पीड़ित हो रहे हैं काफी सावधानी बरतने की आवश्यकता हे । उनकी आत्मा का क्ल्याण हो दे अनीति से छूटे, इस भावना के साथ यदि उन्हें भय या लोभ से प्रभावित करके सन्मार्ग पर लाया जा सके तो उसमें डरने की कोई बात नहीं है । चोर, डाकू, जेबकट, भ्रष्टाचारी, दुरात्मा लोगों के भेद यदि छल करके मालूम कर लिए जायें और उन्हें पकड़वा दिया जाय तो इसमें बुराई की बात नहीं है । ऐसे अवसरों पर हमें अपनी धर्मभीरुता को लोकहित की तुलना में पीछे ही रखना चाहिए । शास्त्र के ऐसे कितने ही वचन हैं जिनमें कहा गया है कि- सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त हुआ असत्य-दुर्भाव के लिए प्रयोग हुए सत्य की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है । क्रिया को अपेक्षा भावना का ही महत्त्व अधिक है । यदि उच्च उद्देश्य से निन्दित कार्य भी किया जाय तो उससे भी लोकहित होता है और वह भी धर्म कार्य के समान ही पुण्यफल प्रदान करता है ।

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