भय उत्पन्न करने के लिए दण्ड का आश्रय लिया जाता है, लोभ के लिए कोई ऐसा आकर्षण उसके सामने उपस्थित करना पड़ता है जो उसके लिए आज की अपेक्षा भी अधिक सुखदायी प्रतीत हो । इसी प्रकार उसके सामने कोई ऐसा डर उपस्थित कर दिया जाय जिससे वह घबरा जाय और अपने ऊपर इतनी भयंकर विपत्ति आती हुई अनुभव करे जिसकी तुलना में अपनी वर्तमान कुटेवों को छोड़ना उसे लाभदायक मालूम पड़े तो वह उसे छोड़ सकता है । नशेबाजी, व्यभिचार आदि बुराइयों के दुष्परिणामों को बढा़-चढ़ा बताकर कई बार उस ओर चलने वालों को इतना डरा दिया जाता है कि वे उसे स्वयमेव छोड़ देते हैं । इस प्रकार के अत्युक्तिपूर्ण वर्णनों में यद्यपि असत्य का अंश रहता है पर वह इसलिए बुरा नहीं समझा जाता क्योंकि उसका प्रयोग सदुद्देश्य के लिए किया गया है । इसी प्रकार किन्हीं सत्कार्यों का लाभ अत्युक्तिपूर्ण रीति से बढ़ा-चढ़ा कर बताया जाय तो उसमें कुछ दोष नहीं होता कारण कि बाल-बुद्धि लोगों को सन्मार्ग को ओर अग्रसर करने के लिए उस अत्युक्ति का आश्रय लिया गया है । गंगा-स्नान, तीर्थयात्रा, ब्रह्मचर्य, दान आदि के अत्युक्तिपूर्ण माहात्म्य हमारे धर्म-ग्रन्थों में भरे पड़े हैं । उन्हें असत्य ठहराने का साहस कोई विचारवान व्यक्ति नहीं कर सकता । क्योंकि आम जनता जिसमें बाल-बुद्धि की प्रधानता होती है, बिना विशेष भय और बिना विशेष लोभ के उच्चता के कष्टसाध्य मार्ग पर चलने के लिए कदापि सहमत नहीं हो सकती । स्वर्ग का आकर्षक आनन्ददायक वर्णन और नरक का भयंकर, रोमांचकारी, दुखदायी चित्रण इसी दृष्टि से किया गया है कि इस प्रबल लोभ या भय से प्रभावित होकर लोग अनीति का मार्ग छोड़कर नीति का मार्ग अपनावें । स्वर्ग-नरक की इतनी अलंकारिक कल्पनाएँ रचने वालों को क्या हम झूठा ठहरावें ? नहीं, यदि हम ऐसा करेंगे तो यह परले सिरे की मूर्खता होगी ।
संसार में अज्ञानग्रस्त, स्वार्थी, नीच मनोवृत्तियों वाले, बाल-बुद्धि लोगों की कमी नहीं है। इनकी सेवा उनकी इच्छाएँ पूर्ण करने में सहायक बनकर नहीं-वरन् बाधक बनकर ही की जा सकती हैं । जो बालक हर घड़ी गोदी में चढ़ना चाहता है, स्कूल जाने से जी चुराता है, पैसा चुराता है या और कोई कुटेव सीख रहा है उसके साथ उदारता बरतने, उसके कार्यों में सहायक होने का अर्थ तो उसके साथ शत्रुता करने का होगा इस प्रकार तो बह बालक बिलकुल बिगड़ जायगा और उसका भविष्य अन्धकारमय हो जाएगा। कोई रोगी है-कुपथ्य करना चाहता है, या सन्निपात ग्रस्त होकर अंड-बंड कार्य करने को कहता है, उसकी इच्छा पूर्ति करने का अर्थ होगा उसे अकाल मृत्यु के मुँह में धकेल देना । इस प्रकार के बालकों या रोगियों की सच्ची सेवा इसी में है कि वे जिस मार्ग पर आजकल चल रहे हैं जो चाहते हैं उसमें बाधा उपस्थित की जाय, उनका मनोरथ पूरा न होने दिया जाय । इस कार्य में सीधे-साधे तरीके से ज्ञान और विवेकमय उपदेश देने से कई बार सफलता नहीं मिलती और उनके हित का ध्यान रखते हुए विवेकवान् ओर निस्वार्थ पुरुषों को भी असत्य था छल का आश्रय ग्रहण करना पड़ता है । ऐसे असत्य या छल को निन्दित नहीं ठहराया जा सकता । रोगी या बालकों को फुसला कर उन्हें ठीक मर्त्य पर रखने के लिए यदि मूँठ बोला जाय, डर या लोभ दिखाया जाय, किसी अत्युक्ति का प्रयोग किया जाय तो उसे निन्दनीय नहीं कहा जायगा ।