जीवन को जागृत बनाने के लिए दो बातों की प्रधान रूप से
आवश्यकता है । एक तो समय का कार्य विभाजन, दूसरे अपने कार्यों में
रुचि । प्रातःकाल चारपाई पर से उठते ही दिन भर का कार्यक्रम बना
लेना चाहिए कि आज कौन कार्य किस समय करना है । उन कार्यों की
विशेष आवश्यकता के अनुसार समय में हेर-फेर करना पड़े तो कोई
बात नहीं, परन्तु अपनी निजी ढील के कारण जरा भी विलम्ब नहीं होना
देना चाहिए । जिन्हें प्रातःकाल का नियत किया हुआ कार्यक्रम यदि रखने
में अड़चन पड़ती हो तो उन्हें डायरी में नोट कर लेना चाहिए और
रात को सोते समय देखें कि उस कार्यक्रम पर अमल हुआ या नहीं ?
यदि नहीं हुआ तो उसका कारण अन्य परिस्थितियाँ थीं या अपनी ढील ?
जहाँ अपनी ढील दिखाई पड़े वहाँ अपने को डाँटना चाहिए और आगे
के लिए सावधानी रखने की दृढ़ता स्थापित करनी चाहिए ।
हर कार्य को अपने ''गौरव की कसौटी' समझकर करना चाहिए ।
'इस कार्य की श्रेष्ठता या निकृष्टता पर मेरा व्यक्तित्व परखा जाने वाला
हैं' यह अनुभव करना चाहिए । जैसे कोई चित्रकला का विद्यार्थी चित्र
बनाते समय यह ध्यान रखता है कि इस अभ्यास से तात्कालिक लाभ न
सही पर अभ्यास हो जाने पर जब मैं सफलता के शिखर पर पहुँचूँगा
तो वह लाभ बहुत बड़ा होगा । इस दृष्टिकोण से वह कड़ी मेहनत और
एकाग्रता से काम करता है यह जानता है कि शिक्षा काल की
छोटी-मोटी रद्दी कागज पर, मामूली स्याही से बनने वाली तस्वीरों का
स्वयं कुछ विशेष महत्त्व नहीं है तो भी इन रद्दी कागज पर बडे़
परिश्रमपूर्वक बनाये जाने वाले चित्रों के अन्तर्गत चित्रकला में महान
सफलता का रहस्य निहित है । साधारण छोटे-मोटे दैनिक जीवन के
कार्यों को जो मनुष्य अच्छे से अच्छा, सुन्दर से सुन्दर, बढ़िया से बढ़िया
बनाने का प्रयत्न करना है, वह अपनी क्र्या शक्ति को सतेज करता है,
अपने अभ्यास को बढ़ाता है । उन छोटे कामों में विशेष मनोयोगपूर्वक
अधिक सुन्दरता उत्पन्न करना तत्काल कुछ विशेष महत्त्व भले ही न रखता
हो पर उससे अभ्यास, सुरुचि को बनाने और बढ़िया काम करने की जो
आदत पड़ती है वह अत्यंत ही मूल्यवान है ।
'यह बढ़िया काम किसने किया है ?' जब इस प्रश्न को प्रसन्न
और सन्तुष्ट चेहरे से कोई पूछता हो तो समझ लीजिए कि उस काम के
कर्त्ता के लिए सजीव उपहार भेंट किया जा रहा है । मनुष्य का गौरव
इस बात में है कि उसके कामों की अच्छेपन, सुघड़ता और निर्दोषता के
लिए प्रशंसा की जाय । जो व्यक्ति अपने काम को प्रशंसा योग्य बनाता
है, वह काम उलट कर अपने करने वाले को प्रशंसा योग्य बनाता है ।
बहुत काम करना अच्छी बात है, पर उससे अच्छी बात यह है कि काम
को उत्तमता से किया जाय । बहुत काम करना पर खराब करना यह
कोई अच्छाई नहीं है चाहे अपेक्षाकृत कुछ कम काम हो पर बढ़ उत्तमता
से किया हुआ होना चाहिए ।
चीजों को सँभाल कर यथास्थान रखना यह एक बड़ा अच्छा गुण
है । इससे वस्तुएँ खोने, फूटने-टूटने या मैली-कुचैली होने से बच जाती
हैं और वे अधिक समय तक अपनी मजबूती तथा सुन्दरता को कायम रखे
रहती हैं । सौन्दर्य का प्रथम नियम चीजों का यथास्थान रखना है, नियत
स्थान से भिन्न स्थान पर पड़ी हुई वस्तु ही कूड़ा-कचरा कही जाती
है । प्रयोजन पूरा होने के उपरान्त वस्तुओं को जहाँ-तहाँ न पड़ी रहने
देना चाहिए वरन् उन्हें यथास्थान रखने के बाद तब वहाँ से हटाना
चाहिए । किसी काम की समाप्ति तब समझनी चाहिए जब उस कार्य में
प्रयुक्त हुई वस्तु यथास्थान पहुँचा दी जाय ।
( १) इस कार्य में कोई भूल तो नहीं हो रही है ? ( २) कार्य
की और अच्छा किस प्रकार बनाया जा सकता है ? इन दोनों प्रश्नों
को सदैव मन में जागृत रखने से ऐसे उपाय सूझ पड़ते हैं जिनके द्वारा
अधिक लाभदायक, सन्तोषजनक और उन्नतिशील स्थिति प्राप्त हो सके ।
मैं जागृत तंद्रा में तो नहीं जा रहा हूँ ? कोई लापरवाही तो नहीं बरत
रहा हूँ ? आलस्य में बहूमूल्य समय तो नहीं गँवा रहा हूँ ? प्रमाद के
लक्षण तो मुझमें नहीं आ रहे हैं ? इस प्रकार के प्रश्नों से अपनी शोधक
दृष्टि को भरा रखना चाहिए और एक निष्पक्ष एवं खरे आलोचक की
तरह अपने आप की परीक्षा तथा समीक्षा करते रहना चाहिए । जैसे मुँह
पर कोई मक्खी या मच्छर आ बैठे तो उसे तुरन्त ही उड़ा देने के लिए
हाथ उठता है, वैसे हो लापरवाही को मक्खी और आलस्य को मच्छर
समझकर उन्हें पास न आने देना चाहिए और जैसे ही वे दिखाई दें वैसे
ही तुरन्त उन्हें भगा देना चाहिए ।
अपना स्वभाव ढीला-पोला मत बनने दीजिए, अपने मन को उदास,
निराश और गिरा हुआ मत रहने दीजिए । अपने आपको सदा चैतन्य,
जागरूक और कर्तव्य परायण रखिए । जागृति में जीवन और तन्द्रा में
मृत्यु है । आप जीवितों का जीवन जीना चाहते हैं तो जागृत रहिए ।
अपने सब काम को सावधानी और सतर्कता के साथ कीजिए ।