मनुष्य का जीवनकाल दो प्रकार से कटता है (१) जागते हुए (२) सोते हुए । आमतौर से लोग दिन में जागते हैं और रात को सोते हैं । सोना जरूरी भी है क्योंकि बिना उसके शारीरिक और मानसिक थकान नहीं मिटती । दिन भर काम करने से जो शक्तियाँ व्यय होती हैं उनकी क्षति की पूर्ति के लिए निद्रा की आवश्यकता होती है । रात भर सोकर जब मनुष्य प्रातःकाल उठता है तो उसमें स्फूर्ति और ताजगी होती है । काम करने की नई क्षमता उसमें आ जाती है । यदि दो चार दिन भी लगातार न सोया जाय तो इतनी थकान हो जायगी कि जीवन यात्रा का चलना तक दुर्लभ दिखाई देगा ।
जिस प्रकार सोना जरूरी है उसी प्रकार जागना भी जरूरी है । क्योंकि जितने भी काम होते हैं जागृत अवस्था में होते हैं । निर्वाह और विकास की समस्त कार्य प्रणाली जागृत अवस्था में ही चलती है । यदि निद्रा ही प्रधान रूप धारण कर ले और जागरण कम हो जाय तो भी जीवन में विकट संकट उत्पन्न हो जाता हैं । जिस प्रकार गहरी निद्रा में सोने से थकान पूरी तरह से मिट जाती है और नई प्रफुल्लता पैदा होती है, उसी प्रकार पूरी तरह जागृत रहने से जागृत जीवन की कार्यप्रणाली सुचारु रूप से चलती है ।
कितने ही मनुष्य ऐसे हैं जो जागृत अवस्था में भी सोते रहते हैं । उनके मस्तिष्क का एक अंश जागृत रहता है और शेष भाग सोता रहता है । इस अर्द्ध-मूर्च्छित अवस्था में रहने वाला मनुष्य एक प्रकार से लुञ्ज हो जाता है । उसकी दशा करीब-करीब अर्द्धविक्षिप्त की सी, भुलक्कड़ बालक की सी एवं अपाहिज की सी हो जाती है । यह जागृत तंद्रा का रोग ऐसी भयंकरता से फैला हुआ है कि आजकल अधिकांश मनुष्य इसके शिकार मिलते हैं ।
इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, पाठक अविश्वास न करें । सचमुच ही यह रोग बड़े भयंकर रूप से फैला हुआ है और अधिकांश जन समूह इससे ग्रसित हो रहा है । इस रोग का रोगी देखने में अच्छा-भला, तन्दुरुस्त, हट्टा-कट्टा और भलाचंगा मालूम पड़ता है, शारीरिक दृष्टि से इसकी तन्दुरुस्ती में कोई फर्क नहीं मालूम पड़ता फिर भी जागृत तन्द्रा के कारण उसके जीवन का सारा विकास रुका हुआ होता है । उसकी सारी प्रतिष्ठा एवं साख नष्ट हो जाती है और जिम्मेदारी के साथ होने वाले सभी महत्त्वपूर्ण कार्यों से वह वंचित रह जाता है ।
जागृत तन्द्रा के तीन दर्जे हैं । उन तीनों के पृथक नाम भी हैं-
(१) लापरवाही (२) आलस्य (३) प्रमाद । तीनों ही दर्जे क्रमश: अधिक भयंकर एवं घातक हैं । कहने और सुनने में यह तीनों बहुत ही मामूली बातें प्रतीत होती हैं क्योंकि अधिकांश लोग इनसे ग्रसित होते हैं पर अधिकांश लोग किसी विशेष बात से ग्रसित होते हैं । इसीलिए उनकी भयंकरता कम नहीं हो जाती । अधिकांश लोग झूठ बोलते हैं, नशा करते हैं, संयम से रहित होते हैं, कोष्ठबद्ध या प्रमेह आदि रोगों से ग्रसित होते हैं पर इससे मिथ्या भाषण, असंयम, नशेबाजी, कब्ज या प्रमेह की भयंकरता कम नहीं होती, यह घातक तत्व जहाँ रहते हैं वहाँ भयंकर परिणाम उत्पन्न किए बिना नहीं रहते ।
यह सुनिश्चित तथ्य है कि जिस कार्य को मनुष्य पूरी दिलचस्पी से जागृत मन से, ध्यानपूर्वक करेगा वह कार्य ठीक, निर्दोष और सुन्दर होगा । इस जागृति एवं दिलचस्पी की जितनी कमी होगी उतना ही फूहड़ रह जायगा और भूलें होंगी । घोड़ा जितना तेज चलता है उतनी ही तेजी से तँगि का पहिया घूमता है । पहिया स्वतंत्र रूप से नहीं चलता उसकी गति घोड़े की चाल के ऊपर निर्भर है । घोड़ा मन्द या तीव्र जैसी चाल से चलता है उसी गति से ताँगे का पहिया घूमने लगता है । मन की जिस कार्य में जितनी रुचि होगी बह उतना ही अच्छा बन पड़ेगा । यदि घोड़ा ऐब ले आवेगा तो ताँगे की चाल रुक जायगी यात्रा देर में पूरी होगी, बैठने वालों को कष्ट होगा और हर घड़ी खतरा बना रहेगा । यही हाल दिलचस्पी की कमी के साथ किए जाने वाले कामों का होता है, वे भी अनेक प्रकार के दोषों से भरे हुए होते हैं ।
क्रिया पद्धति के साथ पूरी दिलचस्पी को न जोड़ना जागृत तन्द्रा का प्रमुख चिन्ह है। इस अवस्था में किए हुए कार्यों का ठीक प्रकार पूरा होना असम्भव हे । जिस वक्त कोई व्यक्ति झपकियाँ ले रहा हो उस समय उसे एक रेखागणित का प्रश्न हल करने को दिया जाय तो वह उसे सही रूप से हल न कर सकेगा । इसी प्रकार जो आधे मन से, अर्द्धजागृत अवस्था में कार्य करता है वह अपने सामने रखे हुए कार्यों को भली प्रकार पूरा न कर सकेगा । इस प्रकार को अधूरे मन के साथ की हुई कार्य- प्रणाली को लापरवाही, असावधानी, आलस्य एवं प्रमाद कहा जाता है ।
हर काम को सफल बनाने के लिए दो बातों का ध्यान रखना पड़ता है । एक यह कि ''इस कार्य को उत्तमता के साथ पूरा किया जाय", दूसरा यह कि- "कहीं यह कार्य-खराब न हो जाय ।'' सफलता का लोभ और असफलता का भय-इन दोनों वृत्तियों का समन्वय ही जागरूकता है । जैसे-गरम (पोजेटिव) और ठण्डे (नेगेटिव) तारों के मिलने से बिजली की धारा का संचार होता है वैसे ही उपरोक्त लोभ और भय का ध्यान रखने से मानसिक जागरूकता उत्पन्न होती है । यह जागरूकता सतेज होकर शरीर और मस्तिष्क की काम करने वाली शक्तियों को संगठित और संयोजित करके सुव्यवस्थित रूप से कार्य में प्रवृत्त करती है, तब वह कार्य सफल हो जाता है ।
परन्तु जब मनुष्य असफलता, की लज्जा को भूल जाता है, सफलता के गौरव की उपेक्षा करता है तब उस जागरूकता-विद्युत शक्ति का संचार नहीं होता । नाड़ियाँ शिथिल पड़ जाती हैं । कार्यकारिणी शक्ति मन्द हो जाती है । सामने पड़ा हुआ काम पर्वत के समान भारी प्रतीत होता है । उसे करते हुए मन में स्फूर्ति नहीं उठती वरन् बेगार के भार की तरह झुँझलाते हुए उसे पूरा किया जाता है । जब उस कार्य में रस नहीं आता तो उसके बिगाड़-सुधार की बारीकियों की ओर मन नहीं जाता । फलस्वरूप कार्य-काल में वे बातें सूझ नहीं पड़ती कि कहाँ बिगाड़ करने वाली इस हो रही है और क्या सुधार करने वाली गतिविधि छूटी जा रही है ।