राष्ट्रदेव के चरणों में

कर्त्तव्य धर्मों में तीन प्रमुख माने गए हैं- वैयक्तिक धर्म, समाज धर्म और राष्ट्र धर्म । वैयक्तिक धर्म व्यक्ति की सुख-सुविधा और विकास हेतु होता है । समाज धर्म में व्यक्ति और समाज की प्रगति की बात सोची जाती है, जबकि राष्ट्र धर्म में व्यक्ति समाज और राष्ट्र तीनों की उन्नति निहित होती है । अत: सिर्फ एक राष्ट्र धर्म के पालन से शेष दोनों धर्मो का निर्वाह स्वत: होता रहता है । इसलिए तीनों धर्मो में राष्ट्र धर्म को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है । अस्तु तन, मन, धन, श्रम, साधन, व्यवसाय, विचार, कला, विज्ञान और धर्म-अध्यात्म के प्रसार द्वारा राष्ट्र की सेवा करना, उसकी सुख-शांति और समृद्धि-प्रगति बढा़ने का निष्ठापूर्वक प्रयास करना, यह राष्ट्र धर्म है । इसे आज का सबसे बड़ा धर्म कहा गया है । प्रस्तुत समय में इसका परिपालन और भी आवश्यक है ।

मनुष्य जिस राष्ट्रभूमि की गोद में पलता, बढता, विकास करता है जिसकी संस्कृति से जीवन को सभ्य-सुसंस्कृत बनाता है जन्म से लेकर मृत्युपयंत जिसके अनेकानेक उपकारों, अनुदानों से अनुगृहीत होता व प्रगति करता है, उस राष्ट्र के प्रति हमारा भी कर्त्तव्य होता है कि हम उसके उन्नयन-विकास की बात सोचें और ऐसी रीति-नीति अपनाएँ जिसमें सबका हित-साधन समाहित हो ।

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