जिस भोगवादी युग में आज हम जी रहे हैं, मनुष्य का रोगी होना स्वाभाविक है । कभी व्यक्ति नैसर्गिक जीवन जीता था, प्रकृति के साहचर्य में परिश्रम से युक्त जीवनचर्या अपनाता था, रोगमुक्त जीवन एक सामान्य बात मानी जाती थी । रोजमर्रा का जिन्दगी में तब ऐसे तत्वों का समावेश था, जिनसे व्यक्ति के जीवन का उल्लास सहज ही अभिव्यक्त होता था । हमारी संस्कृति में प्रत्येक दिन एक पर्व-त्यौहार के रूप में माना जाता रहा है । इसी कारण आनंद हर क्षण झरता रहता था । यही कारण था कि मानव तनाव ग्रस्त भी नहीं होता था । आज की जीवन पद्धति दूषित, असांस्कृतिक, कृत्रिम एवं यांत्रिकता से युक्त है । जीने की शैली आधुनिकता के साधनों के बाहुल्य के कारण कुछ ऐसी हो गयी है कि उसमें शरीर को श्रम अधिक नहीं करना पड़ता-मन कुछ जरूरत से ज्यादा ही तनाव से युक्त रहता है एवं यह एक वास्तविकता है कि बहुत से व्यक्ति जीवन जीने की कला से परिचित नहीं हैं । यही कारण है कि वे अनगढ़ की तरह जीवन जीते देखे जाते हैं एवं अकारण रोगों के शिकार हो संश्लेषित पद्धति पर आधारित आधुनिक चिकित्सा प्रणाली के शिकार हो कर धन तो गँवाते ही हैं, साथ