पातंजलि योग का तत्त्व- दर्शन

तीन सरल प्राणायाम

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
हृदय द्वारा रक्त संचार होता है। रक्त दीखता है, इसलिए उसकी उपयोगिता आवश्यकता सर्वसाधारण की दृष्टि में रहती है और हृदय प्रयासों को बहुमूल्य माना जाता है और उसे महत्त्व भी अधिक मिलता है। इसके अतिरिक्त एक दूसरा तन्त्र है जिसकी गरिमा लगभग इसी स्तर की है। वह है- श्वसन प्रक्रिया। श्वास- प्रश्वास नाक से ली जाती है। फेफडे़ में पहुँचती है, इसके बाद उसका प्रवाह शरीर की सभी कोशिकाओं तक पहुँचता है। इस पहुँच के कारण ही तापमान संतुलित रहता है। जीवनी- शक्ति के रूप में ऑक्सीजन मिलती है। साथ ही हर क्षण शरीर के हर क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली गंदगी का भी एक बडा़ भाग यही बुहारी बुहारकर लौटते समय अपनी टोकरी में समेट ले जाती है। यह क्रिया अदृश्य रूप में होती है। उसका प्रत्यक्ष दर्शन न होने से अनुभव भी नहीं होता। इसलिए महत्त्व भी नहीं समझा जाता। इतने पर भी उसका महत्त्व उतना ही है, जितना हृदय द्वारा किए जाने वाले रक्त संचार का।

अन्न, जल और वायु को जीवन का प्रमुख आधार माना जाता है। बिना भोजन किए मनुष्य प्रायः महीनों जीवित रह सकता है। बिना पानी के भी एक सप्ताह जिया जा सकता है किन्तु बिना साँस लिए तो पाँच मिनट जीवित रहना भी कठिन है। फाँसी लगने पर प्रथम आघात श्वास प्रणाली का बन्द हो जाना ही होता है। गरदन की हड्डी टूटने पर भी कुछ समय जीवित रहा जा सकता है; पर दम घुटने पर तो प्राणान्त ही समझा जाना चाहिए क्योंकि समस्त अवयवों को प्राणवायु की उपलब्धि रुक जाती है। जो गन्दगी पैदा होती है, उसे बाहर निकलने की व्यवस्था न रहने से विषाक्तता फैलती है और जीवन का अन्त हो जाता है। इससे प्रकट है कि शरीर में जो भी तत्त्व काम करते हैं, उनका रक्त के अतिरिक्त दूसरा आधार श्वसन प्रक्रिया ही है। शरीर के समस्त छोटे- बडे़ अवयवों का परिपोषण प्रायः उसी एक पर निर्भर है।

साँस लेने का सही तरीका बिरलों को ही मालूम होता है। आमतौर से लोग उथली साँस लेने के आदी होते हैं। बिना परिश्रम के समय बिताने पर झुक कर बैठने पर तो यह प्रवाह और अधिक मंद हो जाता है। उथली साँस में हवा की मात्रा प्रायः आधी ही शरीर में पहुँचती है। वह फेफडे़ के मध्य भाग को ही प्रभावित करती है। शेष भाग निष्क्रिय पडा़ रहने के कारण दुर्बल बन जाता है। उसमें खाँसी, क्षय प्लूरिसी, दमा आदि के रोग कीटाणु अपने लिए आसानी से जगह बना लेते हैं और घर बनाकर मजबूती के साथ अपनी वंश वृद्धि करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त दूसरी हानि यह होती है कि शरीर के अंग- प्रत्यंगों को पोषण ऑक्सीजन की मात्रा कम पहुँचती है। उस कमी के कारण उनकी समर्थता घटती जाती है। सफाई भी पूरी तरह नहीं हो पाती, इसलिए सभी जीवाणु अशक्त होते जाते हैं। क्रिया- शक्ति घटती जाती है और गंदगी, बढ़ने से रुग्णता मंद- गति से बढ़ते- बढ़ते अदृश्य से दृश्य बन जाती है। बीमारियाँ भीतर से जन्म लेकर बढ़ते- बढ़ते बाहरी क्षेत्र में फूट पड़ती दीखने लगती हैं। कारण साधारण होते हुए भी उसकी क्षति- विकृति असाधारण रूप से दृष्टिगोचर होने लगती है। अधूरी साँस लेना ऐसा ही है जैसा आधे पेट भोजन करना या पानी की प्यास को मारकर गला तर करने जितना पानी पीकर काम चलाना। उनके कारण जो क्षति हो सकती है, उसका अनुमान लगाया जा सकना किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए।

इस भूल का आरम्भ छोटी- सी गलती से होता है और उसका निराकरण थोडी़- सी सावधानी से पूरा हो सकता है। सीने को आगे की ओर झुका कर बैठना, काम चलाऊ आधी अधूरी साँस लेकर काम चलाते रहना इस प्रकार की अधूरी साँस असावधान रहने के कारण चलती रहती है। इसे असावधानी का ही अभिशाप कहना चाहिए, जिसके कारण आधी स्वास्थ्य- सम्पदा एवं एक तिहाई आयु इसी नासमझी के कारण नष्ट हो जाती है। आहारों से पोषण मिलता है- इस तथ्य को सभी जानते हैं। इसी प्रकार यह भी जान जाना चाहिए कि साँस भी जीवन प्रदान करती है पर वह करती तभी है, जब वह पूरी और गहरी ली जाय। फेफडों को पूरी तरह भर दे। शरीर की सभी कोशिकाओं का पोषण करे। रक्त को स्वच्छ एवं सशक्त बनाये रहने की क्षमता साँस के द्वारा मिलने वाली प्राण वायु, द्वारा ही पूरी होती है।

योग- शास्त्र की तरह विज्ञानी भी प्राणायाम की महत्ता स्वीकार करता है, उसकी आवश्यकता, उपयोगिता का प्रतिपादन करता है। प्राणायाम के अनेक तरीके हैं। उनके अपने- अपने विषय और लाभ हैं। योग सिद्धि से लेकर ध्यान- धारणा एवं प्रसुप्त शक्ति केन्द्रों के जागरण में उनका अपना- अपना प्रभाव है। प्राण विधा एक स्वतन्त्र विद्या है, जिसके आधार पर सर्वतोन्मुखी सशक्तता का सम्पादन किया जाता है। उनके चमत्कारी लाभ भी पाये जा सकते हैं। कहा जाता है कि प्राण के वश में होने पर मन वश में हो जाता है और जिसका मन निगृहीत होता है, उसे योग पारंगत एवं सिद्ध पुरुष कहा जाता है।

इन पंक्तियों में विशेष प्राणायाओं की चर्चा न करके केवल उन सर्वसुलभ विधियों पर प्रकाश डाला जा रहा है, जिसे हर स्थिति का व्यक्ति हर परिस्थिति में कार्यान्वित करता रह सकता है।

सरलता और निरन्तर होते रहने वाला प्राणायाम यह है कि गहरी साँस लेने की आदत डाली जाय। पूरी साँस खींची जाय, ताकि हवा से पूरे फेफडे़ भर जायें। साँस को रोकना आवश्यक नहीं है। पुरानी प्राणायाम पद्धति में साँस को रोके रहने की कुम्भक पद्धति को भी आवश्यक बताया गया है; पर आधुनिक शरीर विज्ञान उसका समर्थन नहीं करता है। ऐसी दशा में यही उचित है कि कुम्भक पर विशेष जोर न दिया जाय। साँस को भरपूर मात्रा में खींचने की प्रक्रिया को भली प्रकार सम्पन्न किया जाय। इसके बाद साँस छोड़ने का क्रम भी धीमी गति से सम्पन्न किया जाय, किन्तु फेफडो़ं में भरी हुई साँस को पूरी तरह बाहर निकाल दिया जाय। यह एक प्राणायाम हुआ। इसे स्वाभाविक एवं उपयोगी श्वास- प्रश्वास पद्धति भी कह सकते हैं। इससे पर्याप्त मात्रा में प्रायः दूनी ऑक्सीजन मिलने लगेगी और प्रायः दूना ही पोषण प्राप्त होगा। चेहरे पर लालिमा बढ़ती और शरीर में स्फूर्ति पैदा करती दिखाई पडे़गी।

गहरी साँस लेने का अभ्यास भी एक साधना है। इसमें पुरानी आदत सबसे अधिक बाधा उत्पन्न करती है। उथली साँस लेने का ढर्रा स्वभाव का अंग हो जाता है। गहरी साँस जितने समय तक प्रयत्नपूर्वक ली जाती रहे, उतनी देर तो सब कुछ ठीक रहता है; पर जैसे ही ध्यान दूसरी ओर गया कि फिर पुरानी आदत पुराने ढर्रे पर आ जाती है और किया हुआ प्रयत्न स्वभाव का अंग बनाने के लिए वैसा प्रयत्न निरन्तर जारी रखना पड़ता है। पुरानी आदत उभरते ही नये अभ्यास पर आरूढ़ होना पड़ता है। यह लड़ाई लम्बे समय तक लड़नी पड़ती है तब कहीं पूरी सफलता मिलने की बात बनती है।

दूसरा अभ्यास इससे भी अधिक शक्तिशाली यह है कि संसार भर में संव्याप्त प्राण चेतना को एक सचेतन विद्युत शक्ति मानते हुए संकल्प शक्ति के सहारे उसे साँस द्वारा खींच कर समूची सत्ता में धारण करना चाहिए। साँस लेते समय भावना की जाय कि विश्वव्यापी प्राण- शक्ति, साँस के साथ ही खिंचती चली आ रही है। उसे काया के कण- कण द्वारा अवशोषित किया जा रहा है। शरीर और मन ओजस्- तेजस् से भर रहा है। इसकी अनुभूति फुर्ती और मस्ती के रूप में हो रही है। साहस उभर रहा है और पुरुषार्थ गतिशील हो रहा है। यह प्राणाकर्षण प्राणायाम है। जब भी समय खाली हो, तभी मेरुदण्ड सीधा रखकर इसे करने लगना चाहिए। दस- दस मिनट के चार- से छः खण्ड हर दिन प्रयुक्त किए जा सकें। तो इससे शक्ति संवर्धन की अनुभूति हाथों- हाथ होने लगेगी। कुछ दिन के अभ्यास से प्रयत्नकर्ता अपने में सचमुच असाधारण पुरुषार्थ प्रकट होते देखता है।

 सरल प्राणायामों में तीसरा है- सोऽहम् साधना। साँस लेते समय "सो" बाहर निकालते समय 'हम' की ध्वनि प्रकट होने की कल्पना करनी चाहिए। 'सो' अर्थात् वह परमेश्वर साँस के साथ अन्तराल में प्रवेश करता है और अन्तःचेतना के कण- कण में अपनी विशिष्टता भर देता है। साँस छोड़ते समय जो "हम" की ध्वनि होती है, उस समय सोचना चाहिए कि अपना अहंकार तिरष्कृत- बहिष्कृत होकर चिन्तन और भाव क्षेत्र को छोड़कर बहिर्गत हो रहा है। अहंकार मिट जाने पर आत्मसत्ता का स्वरूप "तत्त्वमसि" "अयमात्मा ब्रह्म" जैसा बन जाता है और आत्मा में परमात्मा ओत- प्रोत दृष्टिगोचर होने लगता है। उपरोक्त तीन प्राणायाम सर्वसुलभ हैं। उनके लाभ भी हाथों हाथ दीख पड़ते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118