पातंजलि योग का तत्त्व- दर्शन

स्वाध्याय में प्रमाद न करें

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शास्त्र की तीन प्रमुख अनुज्ञाएँ हैं- (१) सत्यं वद, (२) धर्मम् चर, (३) स्वाध्यायानमा प्रमदः। अर्थात् सत्य बोलें, धर्म को धारण करें और स्वाध्याय में प्रमाद न करें। इस निर्धारण के अनुसार सत्य और धर्म के ही समकक्ष स्वाध्याय को भी प्रमुखता दी गई है।

एक दूसरी गणना पवित्रता क्रम की है। मन, वचन और कर्म तीनों को अधिकाधिक पवित्र रखा जाना चाहिए। इस निर्धारण में मन की पवित्रता को प्रमुख माना गया है। इसके बाद वचन और कर्म है। मन की पवित्रता के लिए स्वाध्याय, वचन की पवित्रता सत्य से और कर्म का वर्चस्व धर्म निखरता है।

सत्य और धर्म की महत्ता के सम्बन्ध में सभी जानते हैं। भले ही उनका परिपालन न करते हो। किन्तु स्वाध्याय के सम्बन्ध में कम लोग ही यह निर्णय करते हैं कि उसकी महत्ता भी सत्य और धर्म के परिपालन से किसी प्रकार कम नहीं है। उसकी उपेक्षा करने पर इतनी ही बडी़ हानि होती है, जितनी कि सत्य और धर्म के सम्बन्ध में उदासीन रहने पर।

जिन दिनों इस धरती पर देव मानवों का बाहुल्य था, उन दिनों सत्य और धर्म का तो ध्यान रखा ही जाता था, पर स्वाध्याय को भी कम महत्त्व का नहीं माना जाता था। उनके लिए प्रत्येक विचारशील अपनी तत्परता बनाये रहता था।

स्वाध्याय का शब्दार्थ है अपने आप का अध्ययन यह कार्य शिक्षितों के लिए शास्त्रों के नियमित अध्ययन द्वारा सम्पन्न होता था। शास्त्र उन ग्रन्थों को कहते हैं जो आत्म- सत्ता और उसकी महत्ता का बोध कराये। कर्तव्य पथ की जानकारी एवं प्रेरणा प्रदान करें। शास्त्रों के नाम पर आजकल उन कथा- पुराणों को भी सम्मिलित कर लिया गया है जिनमें किसी काल की घटनाओं का विवरण है अथवा मिथकों का समुच्चय भरा पडा़ है। यों प्रकारान्तर से किसी प्रकार उनकी व्याख्या विवेचना करते हुए ही आत्म- विकास के सन्दर्थ में कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं, पर वह टेढ़ा मार्ग है। हर किसी के समझने- समझाने का नहीं। कोई विलक्षण बुद्धि वाले ही उस विशाल समुद्र को मथकर रत्नों को निकाल सकते हैं और जिज्ञासुओं को ग्रहण करने योग्य सामग्री प्रदान कर सकते हैं।

शास्त्र के अर्थ में श्रुति- स्मृति, उपनिषद्, आरण्यक जैसे तत्वज्ञान की विवेचना करने वाले ग्रन्थ ही मूल प्रयोजन की पूर्ति कर सकते हैं। उन्हीं के आधार पर स्वाध्याय से उस विस्मृति को स्मृति के रूप में परिणत किया जा सकता है जो आमतौर से उपेक्षित बनी रहती है। शरीर प्रत्यक्ष है। वही हमारे विभिन्न प्रयोजनों की पूर्ति करता है। इन्द्रिय सम्वेदनाओं के आधार पर रसास्वादन भी वही करता है। मानापमान, हानि- लाभ भी उसी के अनुभव में आते हैं। रूप- सौन्दर्य और श्रृंगार सज्जा भी उसी की होती रहती है। नाम रूप भी उसी का देखने- सुनने को मिलता रहता है। इसलिए सामान्य स्तर की चेतना यही स्वीकार कर लेती है कि वह शरीर मात्र है। उसी की प्रसन्नता के लिए मर्यादाओं को तोडा़ भी जाता है और वर्जनाओं की अवहेलना भी होती रहती है। ऐसे अवसरों पर यह स्मरण ही नहीं रहता कि शरीर के पीछे कोई चेतन आत्मा भी है और उसकी भी कुछ आवश्यकताएँ हैं। उसे भी सन्तोष एवं उल्लास चाहिए। इस विस्मृति का परिणाम यह होता है कि आत्म- सत्ता शरीर तक ही सीमित परिलक्षित होने लगी है। उसी के निमित्त स्वार्थ साधन के छोटे- बडे़ प्रयत्न चलते रहते हैं। समूची जीवनी शक्ति प्रायः उसी के लिए उत्सर्ग हो जाती है। यह एकांगी दृष्टिकोण आत्म- कल्याण के लिए, चेतनात्मक उत्कर्ष के लिए भी कुछ करने के लिए है उसका स्मरण ही नहीं आने देता। यह एक बहुत बडा़ व्यवधान है जिसके कारण मनुष्य भटकाव में उलझा रहता है और अनर्थ करता, दुःख भोगता और भविष्य को अन्धकारमय बनाता रहता है। इस विड़म्बना से बचने का एक मात्र उपाय यही है कि स्वाध्याय के सहारे आत्मचेतना की सत्ता- महत्ता और उसके लिए प्रगति क्रम की समग्र जानकारी प्रतिदिन स्मृति पटल पर अंकित की जाती रहे। शरीर तो अपनी हलचलों और प्रत्यक्ष गतिविधियों के सहारे अपनी आवश्यकताएँ पूरी कराता रहता है पर आत्मा के लिए कोई ऐसा क्रियात्मक व्यवहार सामने नहीं रहता जिसके आधार पर आत्म- विस्मृति को सजीव स्मृति में बदला जा सके। यह कार्य स्वाध्याय द्वारा ही सम्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय है नहीं। मनुष्य की स्मृति क्षणिक है, वह घटनाक्रम बदलते ही विस्मृति में बदल जाती है। ऐसा आत्म- क्षेत्र में न होने पाये, इसलिए स्वाध्याय से हर दिन उसे सींचना और हरा रखना पड़ता है।

आमतौर से शास्त्रों का पठन- पाठन ही स्वाध्याय में गिना जाता है, पर अब वह स्थिति नहीं रही जिसमें जीवन का सीमित और छोटा स्वरूप था और उसकी समस्याओं का समाधान श्रद्धालुजन शास्त्र वचनों के आधार पर पूरा कर लिया करते थे। अब चिन्तन का क्षेत्र पहले की अपेक्षा कहीं बडा़ हो गया है। विश्व के अनेकानेक दर्शनों को आपस में गुंथने और आदान- प्रदान करने का अवसर मिला है। तर्क, तथ्य, प्रमाण और उदाहरण हर सन्दर्थ में माँगे जा रहे हैं। बढ़ते हुए भौतिकवाद की प्रतिक्रिया भी प्रत्यक्षवाद को सामने लायी है। ऐसी दशा में शास्त्र- वचन श्रद्धालुओं के ही काम के रह गये हैं। बुद्धिवादी उतने भर से सन्तुष्ट नहीं होते उनके लिए विशद् और सशक्त समाधान चाहिए। यह कार्य अपने युग के आत्म- चेतना पर गहरा प्रकाश डालने वाले मनीषियों ने किसी सीमा तक पूरा किया है। इसका आश्रय लिए बिना जिज्ञासा को तृप्ति मिलती नहीं। इसलिए आज के शास्त्र शब्द की विस्तृत व्याख्या करते हुए उसमें वह सारा बौद्धिक प्रतिपादन सम्मिलित करना पडे़गा, जो चेतना के लिए समाधान और मार्ग दर्शन प्रस्तुत करे। आत्म- क्षेत्र को तथ्यों के आधार पर विनिर्मित तत्व- ज्ञान का सहारा मिल सके। अब ऐसे ही साहित्य को स्वाध्याय प्रयोजनों के लिए चयन करना समीचीन होगा।

व्यायाम की उपयोगिता आहार के समतुल्य ही मानी गई है। बैठे रहने वालों का भोजन ठीक तरह नहीं पचता। ऐसी दशा में उनकी दुर्बलता बढ़ती ही जाती है और मन्द रुग्णता का रूप धारण करती है फिर उन्हें कितना ही बहुमूल्य भोजन न दिया जाय। यह कठिनाई विशेष रूप से उन लोगों के सामने आती है जिन्हें एक जगह बैठकर काम करना पड़ता है। मुनीम, क्लर्क, अफसर, लेखक आदि के कार्य प्रायः ऐसे ही होते हैं, जिनमें भाग दौड़ के लिए नहीं के बराबर ही गुंजाइश रहती है। योगीजनों के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है। उन्हें जप, तप, ध्यान- धारणा स्वाध्याय, चिन्तन, मनन जैसे कार्यों में लगा ही रहना पड़ता है। भोजन करने में नींद के घण्टे भी घट जाते हैं। ऐसी दशा में यह आवश्यक हो जाता कि उनके लिए किसी सरल श्रम का, हल्के व्यायाम का निर्धारण रहे। अन्यथा सर्वदा बैठे रहने पर तो निष्क्रिय चाकू को जंग खा जाने जैसी स्थिति में से शरीर को गुजरना पडे़गा। अचल पडा़ रहने वाला तालाबों का पानी सड़ जाता है। जबकि झरने की पतली धार भी बहती रहने के कारण ताजगी लिए रहती है। दिनचर्या में शारीरिक श्रम का भाग- दौड़ का समावेश आवश्यक है, ताकि सभी अवयवों को गतिशील रहने का अवसर मिलता रहे।

आसनों की विधा विशेषतया बुद्धिजीवियों को- योगीजनों की न्यून श्रमशीलता को ध्यान में रखकर बताई गई है। शक्ति का मानसिक स्तर पर अधिक व्यय होना और शरीर का अचार के घडे़ की तरह जहाँ का तहाँ रखा रहना ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करता है जिसमें रहकर शरीर गड़बड़ाने लगे, साथ ही उस क्षति का प्रभाव मन पर भी पडे़। शारीरिक अस्वस्थता जैसे- जैसे बढ़ने लगती है, वैसे- वैसे मानसिक श्रम भी कम होने लगता है, उसका स्तर गिर जाता है। अतएव संतुलित स्थिति को बनाये रहने के लिए मानसिक श्रम की तरह शारीरिक श्रम को भी दिनचर्या में समुचित स्थान देना चाहिए।

व्यायामों के अनेक प्रकार हैं। अखाडा़ सम्भालने वाले पहलवानों के लिए दूसरे व्यायाम हैं। खेल- कूदो की प्रतियोगिता में सम्मिलित होने वाले उस आवश्यकता की पूर्ति खेल के मैदानों में पूरी करते हैं। जिन्हें अवकाश है, वे वृद्ध जन सुबह शाम कई मील टहलने का क्रम बनाये रह सकते हैं। किसानों, श्रमिकों पोस्टमैनों का परिश्रम तो उनकी आजीविका वाले कार्यों के साथ ही चलता रहता है। लुहार, बढा़ई जैसे कडी़ मेहनत करने वाले अपने दैनिक कार्यों को ही व्यायाम समझ सकते हैं। उनके लिए इस संदर्भ में अतिरिक्त कार्यक्रम अपनाने की आवश्यकता नहीं है। प्रश्न उन्हीं का है जिन्हें अधिक समय बैठे- बैठे गुजारना पड़ता है। दफ्तर में भी उनका आसन कुर्सियों पर जमा रहता है। घर लौटने पर टी॰ वी॰ देखने, रेडियो सुनने, अखबार- पुस्तक पढ़ने जैसे शरीर को श्रम न देने वाले कार्यों में लग जाते हैं। इनके लिए हल्के व्यायामों की विधा अपनाना एक प्रकार से अनिवार्य स्तर की है। इसकी उपेक्षा की जाय तो शरीर न केवल आलसी बन जायेगा वरन् उनकी मानसिक क्षमताओं में भी निरन्तर कमी होती चली जायेगी।

महिलाओं में से अधिकांश का कार्य- क्षेत्र घर की चहारदीवारी के भीतर ही होता है। उन्हें बुहारी लगाने, बर्तन माँजने, रसोई बनाने, बच्चे सम्भालने वाले काम करने पड़ते हैं। उनमें समय कितना ही क्यों न लग जाय? व्यस्तता कितनी ही क्यों न बनी रहे? पर किसी को वैसा श्रम करने को नहीं मिलता जो दिन में कम से कम एक दो बार परिश्रमजन्य पसीना निकाल कर अवयवों में नई फुर्ती का संचार कर सके। इस वर्ग के लिए भी आसनों वाला व्यायाम सुविधा जनक पड़ता है। औसत व्यक्ति आधा घण्टा रोज आसन व्यायाम कर लिया करे तो गाडी़ ढुलकती रह सकती है।

आसन व्यायामों के अनेकानेक प्रकार हैं। उनकी संख्या ८४ तक गिनाई गई है, पर यह प्राचीनकाल के निर्धारण हैं। उन्हें जादू, चमत्कार या पत्थर की लकीर जैसी नहीं मान लेनी चाहिए। किसी आसन विधा से परिचित व्यक्ति की सहायता से अपने शरीर की स्थिति के अनुरूप आसन चुन लेने चाहिए। प्रयोग करने पर वे ठीक पडे़ं तो अपनाते रहना चाहिए। यदि अनावश्यक दबाव पड़ता प्रतीत हो तो उन्हें बदल लेना चाहिए।

आसनों का सामान्य सिद्धान्त यह है कि हाथ, पैर, कमर, गर्दन, कंधे, पीठ आदि सभी जोड़ों वाले अंगों को बराबर फैलाया जाय और फिर उन्हें सिकोड़कर आरम्भिक स्थिति में लाया जाय। फैलाना भी धीरे- धीरे किया जाय और सिकोड़ना भी धीरे- धीरे। अंगों को आगे पीछे, दायें, बायें, ऊपर, नीचे छहों स्थिति में गतिशील होने का अवसर दिया जाय। कोई अवयव ऐसा न बचे जिसकी माँसपेशियों और जोड़ों को परिश्रम न करना पडे़। इस मौलिक सिद्धान्त के आधार पर अपने अनुकूल आसन स्वयं भी बनाये जा सकते हैं। दुर्बल और रोगी बिस्तर पर पडे़- पडे़ भी यह अंग संचालन की क्रिया करते और इसका समुचित लाभ उठाते रह सकते हैं।

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