पातंजलि योग का तत्त्व- दर्शन

शुचिता और स्वच्छता

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छोटे बच्चे को माता असीम प्यार करती है; पर जब वह टट्टी में सना होता है; किन्तु गोदी में चढ़ने के लिए रोता मचलता है, तब भी माता उसकी इच्छा पूरी नहीं करती, दूर ही रखती है। रोने की परवाह नहीं करती। जब नहला- धुला लेती है, गन्दे कपडे़ बदल देती है, तब गोदी में उठाती है और पूरा प्यार करती है। भगवान की नीति भी ऐसी है। वे अपने किसी बच्चे को मलीन नहीं देखना चाहते। उसे स्वच्छ सुन्दर स्थिति में ही देखना चाहते हैं। कीचड़ में सने बच्चे को गोदी में उठाने से ही उनके अपने कपडे़ खराब होते हैं। उन पर भी लांछन लगता है। ढीठ उजड्ड बच्चों की हरकतों का दाग उनके अभिभावकों पर भी लगता है, साथ ही सुशील बालकों की शिष्टता के लिए उनके माता- पिता भी श्रेयाधिकारी बनते हैं। भगवान सबका माता- पिता है। उसके ज्येष्ठ पुत्र मनुष्य की भली- बुरी हरकतों से उसके सृजेता को भी यश- अपयश का भागीदार बनना पड़ता है अथवा यह कहा जा सकता है, इतने महान् सृजेता की कलाकृति होने पर भी यह अभागा इस गई गुजरी स्थिति में पडा़ हुआ है।
स्वच्छता, सभ्यता का प्रथम चरण है। मैला- कुचैला शरीर और गन्दे वस्त्र धारण करके कोई व्यक्ति जहाँ कहीं भी जाता है तिरस्कृत उपेक्षित रहता है। ऐसा उसकी असमर्थता के कारण नहीं, उसकी असभ्यता के कारण होता है। सभ्यता के प्रथम चरण में प्रवेश करने पर सर्वप्रथम मनुष्य को स्वच्छता का पाठ पढ़ना पड़ता है। निरक्षरता सहन हो सकती है; क्योंकि उसका कारण बहुत करके परिस्थितियों का अनुकूल न होना भी हो सकता है; किन्तु अस्वच्छता तो किसी के आलसी- प्रमादी होने का प्रत्यक्ष चिन्ह है। जागरूक स्फूर्तिवान् एवं अपनी गरिमा का तनिक भी ध्यान रखने वाले सर्वप्रथम यह प्रयास करते हैं कि मलीनता से नाता तोडे़ और स्वच्छता अपनाएँ। यह कार्य दृष्टिकोण परिष्कृत रखने और सफाई के लिए थोडा़ प्रयत्न करने भर से पानी साबुन जैसे थोडे़ से साधनों से भी पूरा हो जाता है।
मलीनता का जमते रहना प्रकृति क्रम है। शरीर से पसीना निकलता है, मुख से गन्दी वायु, आँखों से कीचड़, कान में मोम, दाँतों पर मैल, मलमूत्र छिद्रों से गन्दगी- इन सब को नित्य ही बार- बार स्वच्छ करना पड़ता है। कपड़ों पर खूँटी पर टँगे- टँगे धूल जमा हो जाती है। आंगन में, कमरे हवा के साथ उड़कर कचरा आ जाता है। बर्तन पीले पड़ जाते हैं घडे़ का पानी बेस्वाद हो जाता है। जंगलों में पत्ते, काँटे, टूट- टूट कर सब ओर बिखर जाते हैं। इन सबको हटाकर पगडंडी बनानी पड़ती है और उसकी भी बार- बार मरम्मत करनी पड़ती है। यदि यह सब न कराया जाय, तो गन्दगी के अवरोध खडे़ हो जायें। पशु जहाँ बँधते हैं, वहाँ गोबर के ढेर लग जायें। म्युनिसिपैलटियों के सफाई कर्मचारी इतनी बडी़ संख्या में लगते हैं, तब कहीं दैनिक कचरे का निपटारा हो पाता है। यदि सफाई का काम दो- चार दिन के लिए भी रुक जाय, तो मैल के ढेर लग जायें और बीमारी फैलने लग जाय। इसलिए सफाई उन दैनिक कृत्यों में शामिल की गई है, जिसमें कभी नागा नहीं हो सकती। अवरोध उत्पन्न होने पर उसकी विभिषिका प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने लगती है। गन्दगी की सहोदर बहिनें बीमारियाँ हैं। भीतर या बाहर जहाँ भी कचरा जमा होता है, तुरन्त बीमारी के लक्षण उभरने लगते हैं।
अन्य कामों की उपेक्षा कुछ समय के लिए सहन भी की जा सकती है; किन्तु गन्दगी का संगठन भी ध्यान से नहीं उतारा जा सकता है। प्रीतिभोज होने से पहले यह प्रबन्ध किया जाता है कि झूठे बर्तनों की सफाई का क्या प्रबन्ध किया जायेगा। खेत बोने से पहले जमीन को जोत कर कंकड़- पत्थरों से, झाड़- झंखाडों़ से रहित किया जाता है। रंगरेज कपडे़ रंगने से पूर्व उनकी धुलाई की व्यवस्था करता है। डॉक्टर इन्जेक्शन लगाने के पूर्व सुई को गरम पानी में खौलाता है। रसोई घर में वस्तुओं तथा बर्तनों की सफाई पर पूरा ध्यान रखना होता है।
अपने चारों ओर ऐसा वातावरण घिरा रहता है, जिसमें दृश्यमान और अदृश्य गन्दगी का बाहुल्य छाया रहता है। असावधानी जहाँ भी जरा भी पनपी कि वहीं गन्दगी का पदार्पण बढ़ने लगेगा। इसे रोका नहीं जा सकता है। किया इतना जा सकता है कि सम्भावना के प्रति सतर्कता बरती और रोकथाम की चेष्टा की जाय। यदि कहीं से गन्दगी का प्रवेश होने लगे, तो उसका निराकरण फिर कभी के लिए न छोड़ जाय, वरन् तुरन्त ही किया जाय सुन्दरता सुसज्जा के लिए अन्य साधन न हों, तो भी हर्ज नहीं, स्वच्छता अपने आप में सुरुचि का इजहार करती है और सुन्दर भी सहज ही लगती है।
यह दृश्यमान गन्दगी के निवारण की बात हुई। इसका दूसरा पथ है- मानसिक मलीनता, जो गुण, कर्म, स्वभाव में निकृष्टता का समावेश होने से बढ़ती है। संकीर्ण स्वार्थपरता दुष्प्रवृत्तियों की जननी है। लालची, मोहग्रस्त और अहंकारी अपने इन हविशों को पूरा करने में सीधे रास्ते चलकर पूरा कर सकने में समर्थ नहीं हो पाते। उनके लिए छल प्रपंच करने पड़ते हैं। नासमझों को फँसाने के लिए जाल बिछाने पड़ते हैं। आक्रमण, अपहरण जैसे कुकर्म करने के लिए कदम बढा़ने पड़ते हैं। वे कितनी मात्रा में सफल हुए, यह तो चतुरता और अवसर पर निर्भर है, पर प्रवृत्तियों का उद्भव जिस मस्तिष्क से हुआ है, उसमें तो अचिन्त्य चिन्तन का विषैला धुआँ भयंकर घुटन उत्पन्न करने लगता है। इससे वह व्यक्ति स्वयं तो उद्विग्न रहता ही है और अपने समीपवर्ती क्षेत्र में भी कलह कोहराम का वातावरण बनाने लगता है। बुराइयाँ छूत की बीमारी की तरह एक से दूसरे को लगती हैं और फिर वह विषबेल आगे- आगे ही बढ़ती जारी है।

पौधों को बढ़ने और फलने- फूलने की स्थिति तभी उपलब्ध होती है, जब उन्हें खाद पानी समुचित मात्रा में मिलता रहे। व्यक्तित्व के विकास के लिए भी स्वच्छता और शुचिता की आवश्यकता है। बाह्य क्षेत्र की स्वच्छता और अन्तरंग की समुचित शुचिता। शुचिता को पवित्रता भी कहते हैं। दोनों के समन्वय को शौच कहा गया है। आत्मिक प्रगति के आकांक्षियों को इन दोनों को ही समुचित मात्रा में संजोना पड़ता है।
पूजा- अर्चना के समय शरीर, वस्त्र, आसन, पूजा- उपकरण आदि सभी सम्बन्ध वस्तुओं को साफ- सुथरी स्थिति में प्रयोग करना पड़ता है। इसी प्रकार मन और अन्तःकरण से जिस ज्ञान, कर्म और उपासना के लिए मानस बनाना पड़ता है, उसके लिए मनोभूमि को निर्विकार बनाने की आवश्यकता पड़ती है। यदि कुविचार और दुर्भाव मन में भरे पडे़ हैं, तो उस सडी़ गन्दगी में न तो भक्ति भावना के पैर जम सकते हैं और न भगवान के अवतरण की किसी कृपा किरण का आलोक उदय हुआ परिलक्षित हो सकता है। जिस बर्तन में सडी़ कीचड़ भरी है, उसे खाली किए बिना, साफ किए बिना किसी शुद्ध वस्तु को भरा नहीं जा सकता। इसी प्रकार मलीनता भरे अन्तःकरण में देवत्व का प्रवेश पाना और स्थिर रहना सम्भव नहीं हो सकता। बाह्य क्षेत्र की गन्दगी से मन की अप्रसन्नता बढ़ती है और दर्शकों के मन में घृणा उपजती है। इसी प्रकार भीतरी गन्दगी किसी के छिपाये नहीं छिपती और लोगों के मनों की गहराई तक पहुँच कर अपनी वास्तविकता प्रकट करती है और दूर रहकर अपना बचाव करने का संकेत करती है। जिन्हें दूरदर्शिता प्राप्त है, उन्हें वस्तुस्थिति ताड़ने में देर नहीं लगती और वे कषाय- कल्मषों से भरे व्यक्तित्व की दुर्गन्ध पाकर अलग रहने तथा दूर हटने लगते हैं। ऐसा व्यक्ति अविश्वासी बनता है और किसी का स्नेह भाजन नहीं बनता; न उसके सच्चे मित्र होते हैं और न सच्चे सहयोगी। एकाकी रहने वाला सदा नीरसता अनुभव करता रहता है। अकेलापन एक गहरा अन्धकार है, जिसमें अपने आप के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं।
आत्मिक प्रगति के लिए आवश्यक चरण दो माने गए हैं- बहिरंग स्वच्छता और अन्तरंग शुचिता। इन्हें अपनाये बिना प्रगति की मंजिल रुकी ही रह जाती है।

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