पातंजलि योग का तत्त्व- दर्शन

ब्रह्मचर्य शारीरिक ही नहीं मानसिक भी

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ब्रह्मचर्य का लौकिक लौकिक अर्थ है, अविवाहित। अविवाहित रहना अच्छा है। इससे जीवनी शक्ति का क्षरण रुकता है। शरीर का समुचित परिपोषण होने में दृढ़ता परिपक्व होती है। रोगों से जूझने और उन्हें परास्त करने की क्षमता का भण्डार भरा रहता है। सुन्दरता सुस्थिर रहती है। स्त्री- बच्चों की जिम्मेदारी न रहने, अपना समय, श्रम मनोयोग और साधन दूसरे अधिक उपयोगी कामों में लगा सकने का अवसर मिलता है, गृहस्थ की अनेकानेक समस्याओं का, झंझट बचता है। अधिक अध्ययन करने, पुण्य कमाने, तीर्थयात्रा जैसे परिभ्रमण पर निकलने की गुंजाइश रहती है। ब्रह्मचारी दीर्घजीवी भी होते हैं।

उपरोक्त सभी लाभों पर विचार करने पर वे शारीरिक एवं लौकिक ही प्रतीत होते हैं। उनकी संगति ब्रह्म परायण होने के साथ कैसे जुटे? जब ब्रह्मचर्य का शब्दार्थ होता है, ब्रह्म को आचरण में समाविष्ट करना। "ब्रह्म को चर जाना।" गाय घास चरती है और उसको दूध में बदल देती है। ऐसा कुछ ब्रह्मचर्य में भी होना चाहिए। उस विद्या को अपनाने पर व्यक्ति को ब्राह्मी स्थिति प्राप्त करनी चाहिए, ब्रह्म निर्वाह के, ब्रह्म दर्शन के समीप पहुँचना चाहिए, पर वैसा होते देखा नहीं जाता। ब्रह्मचारी का शारीरिक क्षरण भर रुकता है, उसके पास बलिष्ठता की पूँजी भर जमा होती है। कई बार तो वह लाभ भी पूरी तरह मिलता नहीं देखा जाता।

विधवाएँ और विधुर प्रत्यक्षतः ब्रह्मचारी ही रहते हैं। कुरूप और दरिद्री को भी विवाह का संयोग नहीं मिलता। तथाकथित साधु- सन्त भी सामाजिक मर्यादा के कारण विवाह नहीं कर सकते। इतने पर भी देखा गया है कि इस प्रकार अविवाहित रहने वालों में कोई विशेषता दृष्टिगोचर नहीं होती है। न वे शारीरिक दृष्टि से बलिष्ठ होते हैं, न मानसिक दृष्टि से प्रखर। आत्मिक प्रगति के कोई लक्षण भी प्रतीत नहीं होते। इन कारणों को देखते हुए सन्देह होता है कि अविवाहित- ब्रह्मचारी रहने का कोई प्रतिफल होता भी है या नहीं। सामान्यतया शारीरिक लाभ तो होना ही चाहिए। शक्तियों का क्षरण रुकने में उसकी पूँजी तो जमा दिखनी ही चाहिए, पर होता उससे भिन्न है। वैज्ञानिक सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष निकलता है कि अविवाहितों की तुलना विवाहित अधिक निरोग रहते और अधिक दीर्घजीवी होते हैं। इस उलटे परिणाम को देखते हुए असमंजस होता है कि शास्त्रकारों ने ब्रह्मचर्य का महत्त्व गाया बताया है, वह अलंकारिक ही तो नहीं है। उस प्रतिपादन में यथार्थता समाहित है भी या नहीं।

तथ्यतः ब्रह्मचर्य की प्रधान भूमिका मानसिक है। अध्यात्म उच्चस्तरीय मनोविज्ञान ही है। जब योग के, तप के, साधन के साथ उसे जोडा़ जा रहा हो, तो उस सम्बन्ध में इस निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए कि इसके साथ ही ब्रह्म के साथ सम्बन्ध जोड़ने वाला कोई तत्व दर्शन भी जुडा़ होना चाहिए। वस्तुतः ऐसा है भी।

पानी का स्वभाव नीचे की दिशा में ढलकने का है। पर यदि उसे ऊपर की ओर ऊँचा चढा़ना हो तो उसके लिए विशेष स्तर के प्रयत्न होने चाहिए। शरीर के परिपुष्ट होने पर यौवन की दहलीज पर पैर रखते ही कामुक आवेश जागृत होते हैं। एक उन्माद जैसा चढ़ता है। जिसकी आकुलता स्खलित होने का कोई उपाय ढूँढ़ती है। सीधा मार्ग नहीं मिलता तो औंधा- तिरछा तरीका अपनाती है। इस कारण वीर्य रक्षा का लाभ भी नहीं मिल पाता। फिर ब्रह्म परायण होने का लाभ मिलेगा ही कैसे?

होना यह चाहिए कि ब्रह्मचारी की मनोभूमि उच्चस्तरीय आदर्शों में इस प्रकार संलग्न रहनी चाहिए कि उसे कामुक आचरण तो दूर उस प्रकार के विचारों के लिए भी अवसर न मिले। प्रवाह को रोक देने के लिए मजबूत बाँध बाँधने चाहिए। यह मानसिक बाँध साधनात्मक मनोयोग भी हो सकता है और परमार्थ परायण सेवा साधना के प्रति प्रबल उत्साह और प्रवाह इसी प्रकार मोडा़ जा सकता है। आदर्शवादी तत्परता ऐसी होनी चाहिए कि हर समय उच्चस्तरीय चिन्तन में ही मन रमा रहे। परमार्थ स्तर की योजनाएँ ही बनती रहें। इतना ही नहीं वरन् क्रिया- कलाप भी ऐसे होने चाहिए जिनमें शरीर का श्रम समय और मन का एकाग्रभाव पूरी तरह नियोजित रहे। इस प्रकार ब्रह्मचारी ऊर्ध्वरेता बनता है। उसकी कामुक ललक अधोगामी योजनाएँ बनाने की अपेक्षा आदर्शों में रमण करने लगती है। महानता से सम्बन्धित क्रिया- कलापों को अपना प्रिय विषय बनाता है। इस प्रकार अधोगामी प्रवृत्तियाँ रुकती हैं और वे उच्चस्तरीय विचारणाओं, भावनाओं और योजनाओं में नियोजित रहती हैं। फलतः दिशा बदल जाने पर मानसिक ब्रह्मचर्य भी सध जाता है और शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार का पोषण उज्जवल योजना के आधार पर मिलने लगता है। ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में जो लाभ बताया गया है वह इस अनुबन्ध के आधार पर उपलब्ध होने लगता है।

ब्रह्मचर्य पालन एक बडा़ अवरोध है- विषम लिंग के प्रति हेय स्तर का अश्लील आकर्षण। नर- नारी के रमणी, कामिनी, भोग्या रूप का चिन्तन करता है अथवा नारी नर के यौवन उभार पर ध्यान केन्द्रित करती है, तो मानसिक उत्तेजना इस स्तर की बढ़ जाती है कि रति कार्य के लिए व्याकुलता सताने लगती है। यह चिन्तन ही प्रकारान्तर से व्यभिचार बन जाता है शारीरिक क्षरण की तरह मानसिक लोलुपता भी इस व्रत को खोखला बनाती है। शारीरिक पात को किसी प्रकार रोका भी जा सके, तो मानसिक अश्लीलता समूचे मनःक्षेत्र को मथ डालती है और उस आग में ओज की बहुमूल्य सम्पदा जलने लगती है। इसे ब्रह्मचर्य का नाश ही समझा जा सकता है। ऐसे व्यक्तियों को न शारीरिक लाभ मिलता है, न मानसिक। ब्रह्म परायणता तो निभे ही कैसे?

ब्रह्मचर्य पालन के लिए इन्द्रिय निग्रह से भी अधिक आवश्यक मनोनिग्रह है। मन को अश्लील चिन्तन से रोकने का एक ही उपाय है। विपरीत लिंग पक्ष के प्रति पवित्रता का समावेश किया जाय। नर- नारी को आयु के अनुसार पुत्री, भगिनि एवं माता के समान समझे। कल्पना क्षेत्र में भी प्रत्येक नारी को इसी पवित्र बन्धन में बाँधे और उसे अपनी सगी रिश्ते में पवित्र लगने वाली दृष्टि से मान्यता दें। यही बात नारी के सम्बन्ध में भी है उसे भी पुरुष मात्र को पुत्र, भाई या पिता की तरह मान्यता देनी चाहिए और पवित्रतम सम्बन्ध में सुदृढ़ रखने की व्रतशीलता अपनानी चाहिए।

एक ही परिवार में सभी आयु के लोग रहते हैं। उसमें से कई तो युवक- युवती भी होते हैं। इतने पर भी उनमें से परस्पर कोई दुर्भाव नहीं उभरते और न अनैतिक आचरण बन पड़ते हैं। यह मानसिक स्थिति का अन्तर है। परायापन आते ही पवित्रता की दीवार ढह जाती है और युवक- युवती आयु का चिन्तन उभरते ही अनाचार के भाव उठने लगते हैं।

शारीरिक पापों की, तरह मानसिक पाप भी होते हैं। किसी पर प्रत्यक्ष आक्रमण भले ही न बन पडे़, पर उसे क्षति पहुँचाने की मानसिक योजना बनती रहे, क्रोध उभरता रहे तो इतने से भी वह मानसिक पाप अपना प्रभाव उत्पन्न करेगा। शारीरिक एवं मानसिक विक्षेप उत्पन्न करेगा। आधि- व्याधियों को जन्म देगा। इसी प्रकार कामुक चिन्तन के बारे में भी समझा जाना चाहिए। वह भी व्यभिचार की तरह अपना कुप्रभाव छोड़ता है। शारीरिक रस को नष्ट होने से भले ही बचा लिया जाय पर मानसिक विनाश तो निश्चित रूप से होगा। मानसिक रूप से व्यभिचारी और शरीर क्षेत्र के ब्रह्मचारी उन समस्त लाभों से वंचित रहते हैं जो ब्रह्मचर्य की महिमा के सम्बन्ध में बताए गए हैं।

पूँजी को रोककर न रखें-
प्रकृति का एक सुनिश्चित प्रवाह क्रम है। एक क्षण के लिए भी वह किसी को एक स्थिति में रहने नहीं देती। अणु- परमाणु घटकों से लेकर ग्रह- नक्षत्रों तक सभी को निरन्तर गतिशील रहना पड़ता है। हवा सभी को हिलाती- डुलाती रहती है। रक्त- संचार और श्वास- प्रश्वास का क्रम अंग- प्रत्यंगों को गतिशील रहने के लिए बाधित करते हैं। नदी- नाले का प्रवाह बहता रहता है। अन्न उपजता, आहार बनता और बाद में खाद बनकर नये सिरे से उपजने की तैयारी करता है। शरीर जन्मते, बढ़ते, ढलते और मृत्युमुख में चले जाते हैं। सूर्य- चन्द्र उदित होते, प्रकाश देते और अस्ताचल की गोद में चले जाते हैं। यह भ्रमणक्रम ही चेतना का, शरीर का सुनिश्चित क्रम है। यदि उनमें कहीं गतिरोध खडा़ हो, तो समझना चाहिए कि वह तन्त्र बिखरने जा रहा है।

धन की भी यही गति रहनी चाहिए। प्रगति इसी का नाम है। उत्पादन कोई कितना ही क्यों न करे, पर उसे किसी स्थान विशेष पर संग्रहीत नहीं होना चाहिए। व्यक्ति के पास भी उसकी जमाखोरी नहीं होनी चाहिए। कर चोरी मुनाफाखोरी को अपराध माना गया है। उन्हीं में एक गणना जमाखोरी की भी होती है।

शास्त्रकारों ने पंच महापातकों में एक परिग्रह की भी गणना की है; हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार के समतुल्य ही परिग्रह को माना गया है। परिग्रह का अर्थ जमाखोरी है। उसे उपार्जन की रोकथाम नहीं समझनी चाहिए। कमाने में, उगाने में हर्ज नहीं। वस्तुएँ यदि अधिक मात्रा में उपलब्ध होंगी तो ही वे जरूरतमन्दों के काम आ सकेंगी। यदि अभाव की स्थिति बनी रहेगी, तो उसके कारण कठिनाई सभी को भुगतनी पडे़गी। व्यवसाय थम जायेगा। क्रय- विक्रय का सिलसिला न चलेगा। छीना- झपटी शुरू हो जायेगी। सम्पन्न की सुविधा उठाते और अपने को दरिद्रता में दिन काटते देखकर असमानता जन्य ईर्ष्या का उदय होगा और उस आवेश में बडों़ को गिराने का अभियान चल पडे़गा। ईर्ष्या के साथ द्वेष भी जुडा़ हुआ है। द्वेष मात्र तभी नहीं होता, जब किसी को हानि पहुँचाई जाय। उसका एक मनोवैज्ञानिक कारण यह भी है कि पड़ोसी का वैभव दीख पडे़ और अपनी स्थिति उससे हीन दीख पडे़, तो इसका कारण अपनी असमर्थता, अयोग्यता सोचने के स्थान पर लोग यह अनुमान लगाने लगते हैं कि हमसे कहीं अधिक कमा लेने वाला चोर- बेईमान रहा होगा। जिसके प्रति घृणा उपजी उसके लिए द्वेष भी उपजेगा ही। द्वेष के बीज जहाँ भी उगते हैं, वहाँ कलह उत्पन्न होता है। विग्रह का कोई न कोई कारण स्वरूप बन ही जाता है। विग्रह में दोनों पक्षों को हानि होती है। समय, श्रम, धन की बर्बादी होती है और अन्ततः आक्रमण, प्रतिशोध का ऐसा सिलसिला चल पड़ता है, जिसका अन्त ही नहीं होता। कई बार तो यह पीढी़- दर पीढी़ तक भी चलता देखा गया। इसमें सब प्रकार तबाही ही तबाही है।

मनुष्य समुदाय एक परिवार की तरह है। उसका निर्वाह और विवाह परस्पर मिल- जुलकर ही होता है। आदान- प्रदान के कारण ही एक- दूसरे की आवश्यकताएँ पूरी कर पाते हैं। किसान गेहूँ कमाता है और तेली तेल। दोनों अपनी- अपनी कमाई को दाब कर रखें, किसी दूसरे को न दें, तो उसका परिणाम यह होगा कि दोनों इतनी मात्रा का उपयोग तो कर नहीं सकेंगे, संगृहीत वस्तुएँ जगह घेरेंगी और सडे़ंगी। साथ ही जो व्यवसाय क्रम चल सकता (विनियम के आधार पर उनका काम चल सकता) था, उन सभी को अभाव ग्रस्त स्थिति में रहना पडे़गा। एक का संग्रह दूसरे अनेकों के लिए असुविधा का दरिद्रता का निमित्त कारण बनता है।
उचित यह है कि उपार्जित पूँजी को अन्यायों के काम आने के लिए आगे बढ़ने दिया जाय। उसे एक स्थान पर रोका न जाय।

परिग्रह वह है जो जेवर, जायदाद, वाहन आदि के ठाट- बाट रोपने में पूँजी को मृतप्रायः बना देता है। फैशन के नाम पर अन्धाधुन्ध कपडो़ं के सेट बनाना, कोठी बंगले खडे़ करना, प्रदर्शन के लिए बडे़ ठाटबाट थोपना, अंग सज्जा की अनावश्यक वस्तुएँ कला के नाम पर एकत्रित करना आदि कामों में जो पूँजी लग जाती है, वह दिन- दिन घिसती घटती ही जाती है, वापस तो लौटती ही नहीं। यह स्थिति सामाजिक प्रगति की दृष्टि से नितान्त हानिकर है। जेवरों में रुपया फँसाकर उसकी ब्याज से तो वंचित रहना ही पड़ता है। साथ ही उसकी चोर- उच्चकों से सुरक्षा की विशेष व्यवस्था भी करनी पड़ती है। दर्शकों का मन ललचाता है और वे वैसी ही सज्जा बनाने के लिए अपराधी कृत्यों पर उतरते हैं। जेवर की टूट- फूट होती रहती है, वह घिसता रहता है। मरम्मत में ढेरों पैसा जाता है। मिलावट की चोरी भी हर बार बढ़ती जाती है। ऐसी सजा जिसमें लाभ एक भी न हो हानिकारक अवसर अनेक बनें। उसे अपनाने से क्या लाभ? उसी प्रकार आवश्यकता से अधिक बडा़ मकान बना लेना, जिन वाहनों को किराए पर लेकर काम चल सकता था, उन्हें खरीद लेना ऐसा सफेद हाथी बाँधना है, जो दरवाजे की शोभा तो बढा़ता है, पर उपार्जन की दृष्टि से व्यर्थ और खर्च के हिसाब से भारी महँगा पड़ता है।

जमीन में धन गाड़कर रखना भी ऐसा ही है, जिसे किसी को न बता पाने या गाड़कर भूल जाने पर वह एक प्रकार से समाप्त ही हो जाता है। उत्तराधिकारियों के लिए प्रचुर पूँजी छोड़ मरना भी ऐसा ही है, जिससे उनकी हानि ही होती है, बिना परिश्रम के को धन उपलब्ध होता है उसका सदुपयोग नहीं बन पाता। दुर्व्यसनों में उसकी समाप्ति होती है। अपनी मेहनत का कमाया हुआ पैसा ही उपयोगी कामों में खर्च हो सकता है, क्योंकि उसके सम्बन्ध में जानकारी रहती है कि इसे कितनी मेहनत से कमाया गया है? जिसे कमाने में अपनी मेहनत नहीं लगी उसके बेहिसाब खर्च करने में भी झिंझक नहीं होती। इस प्रकार हराम की कमाई देने वाले की संकीर्णता का तो विज्ञापन करती ही है, साथ ही ग्रहणकर्ता के भी हित में नहीं बैठती। जेबकट, जुआरी, सट्टेबाज कई बार ढेरों पैसा कमा लेते हैं, पर उसे उन्हें बर्बाद करने में भी देर नहीं लगती। ऐसे लोगों के साथ में पैसा टिकता ही नहीं। वे कूडे़ की तरह मिली दौलत को फुलझडी़ की तरह जलाने में हिचकते नहीं। इस प्रकार इसे धन का दुरुपयोग ही कहना चाहिए।

संकट ग्रस्तों, अभाव ग्रस्तों की सहायता में अपनी कमाई का एक अंश लगाते रहना आवश्यक है। इससे लोग संकट से उबरते हैं और अभाव ग्रस्तता से त्राण पाते हैं। सत्प्रवृत्ति संवर्धन कर सकने वाले अनेक कार्य ऐसे हैं, जिनका संस्थापन, संचालन बन पड़ने से अनेकों का अनेक प्रकार हित- साधन होता है। जहाँ संकटपन स्थिति हो वहाँ दान भी दिया जा सकता है, पर अधिक प्रयास इस बात का होना चाहिए कि अधिकों को अधिक काम मिले और इसके लिए जहाँ पूँजी कम पड़ती हो उसकी आवश्यकता पूरी हो। यह उधार देने और उस कमाई से अपनी पूँजी किस्तों में वापस लेने की व्यवस्था बना देना भी एक प्रकार से पूँजी निवेश है, जिसके पीछे यदि बडी़ ब्याज कमाने का प्रलोभन हो, तो उसे भी दान या सहायता ही कहा जा सकता है। बचत का पूरा- पूरा ध्यान रखा जाय और उस आधार पर जो संचय बन पडे़, उसे रोक रखने के साथ ऐसे लोगों को ऐसे कामों के लिए उपलब्ध कराया जाय, जिससे वे अपनी आजीविका का चक्र घुमाने के साथ- साथ दी हुई पूँजी को भी धीरे- धीरे वापस लौटाने की सदाशयता का भी परिचय देते रहें।

दान हो या उधार- सहयोग देकर दूसरों को अपने पैरों खडा़ होने की स्थिति तक पहुँचाना निश्चय ही पुण्य- परमार्थ है, पर उसको संचयशील, मितव्ययी एवं उदार चेता ही कर सकते हैं। यह बन तभी पड़ सकता है, जब पूँजी का महत्त्व और उसके सदुपयोग का प्रतिफल सही तरह समझा जाय। इसी को सच्चा अपरिग्रह समझा जाना चाहिए।

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