पातंजलि योग का तत्त्व- दर्शन

सत्य की समग्र साधना-

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सत्य को धर्म शास्त्रों में प्रथम स्थान मिला है। उसकी महिमा में बहुत कुछ कहा गया है। बताया गया है कि इस एक व्रत के पालन करते रहने पर अन्य सब व्रत भी सध जाते हैं, इसलिए धर्म का मूल सत्य को माना गया है। असत्य और अधर्म पर्यायवाची कहे गए हैं।
सत्य- पालन का मोटा अर्थ सच बोलना समझा जाता है, पर वस्तुतः सत्य का तात्पर्य तथ्य से है। जो तथ्य है, वही सत्य है। यह कृत्य मात्र वाणी से सम्पन्न नहीं हो जाता वरन् वचन के द्वारा उसका एक छोटा उपचार ही बन पड़ता है। सत्य शोध का विषय है। उसका उद्देश्य है, अपनी मान्यताओं और प्रवृत्तियों को सत्य की यथार्थता के अनुरूप बनाया जाय। यह एक दार्शनिक प्रक्रिया है। इसमें प्रचलनों एवं परम्पराओं से ऊँचे उठकर यथार्थता की गहराई तक पहुँचना पड़ता है। यह कार्य कठिन है, क्योंकि हम वातावरण के अनुरूप भ्रान्तियों में असाधारण रूप से जकडे़ होते हैं। जैसा देखा सुना है, उसी के अनुरूप मन बना लेते हैं। वैसा ही आचरण करने लगते हैं। इस अन्वेषण की आवश्यकता नहीं समझते की जो अपनाया जा रहा है, वह वास्तविक है भी या नहीं। उसका परिणाम वैसा ही हो सकता है। या नहीं, जैसा कि चाहा गया था।

पूर्ण सत्य को जानने और अपनाने के लिए आत्म- शोधन की नये सिरे से साधना करनी पडे़गी। कारण कि हमारे जीवन- गुण, स्वभाव- चिन्तन, चरित्र- व्यवहार के सभी पक्ष भ्रान्तियों और अवास्तविकताओं के आधार पर अवलम्बित हो गए हैं। उनमें तथ्यों का कम और अन्ध- परम्पराओं का भाग अधिक है। कारण यह है कि अनादि काल से मनुष्य को सीमित बुद्धि बल से काम चलाना पडा़। उसमें मन तो काम करता था, पर वास्तविक अवास्तविक का वर्गीकरण विश्लेषण कर सकने वाली बुद्धि का विकास एक छोटे परिणाम में ही विकसित हो पाया था। इसलिए संसार में जो कुछ दीख पडा़ उसके सम्बन्ध में उसी रूप में कल्पना कर ली। मान्यता बना ली। हलचलों के साथ जुडी़ हुई सभी घटनाओं को किन्हीं देव- दानवों से प्रेरित माना जाने लगा। अग्नि वरुण, बादल, सूर्य, चन्द्र, तारे, आँधी- तूफान जब वेगवान गति से कार्य करते दिखाई पडे़ तो उन्हें शक्तिशाली व्यक्तित्व की मान्यता दी गई। जन्म और मरण की असाधारण घटनाओं को भी दैवी वरदान या अभिशाप की तरह आँका गया। उन दिनों मनुष्यों के मन पर देव- दानवों का ही साम्राज्य छाया हुआ था। उन्हें उनका कोप शान्ति करके दुर्घटनाएँ रोकने- उन्हें प्रसन्न करके सुविधाएँ बढा़ने की कला का अविष्कार हुआ। पूजा- अनुष्ठानों के अनेकानेक विधि- विधान इसी आधार पर चल पडे़। अब विज्ञान और बुद्धिवाद के विकास ने नई मान्यताएँ दी हैं। यह सब प्रकृतिगत हलचलें, ज्वालामुखी फूटना, भूकम्प आना किसी देवता की आक्रोश सूचक क्रियाएँ नहीं हैं, वरन् प्रकृति क्रम का एक साधारण- सा उपक्रम है। ऐसी दशा में दैववाद और उनके पूजा- विधान का आधार हिल गया और कुछ परम्परावादियों को छोड़कर अधिकांश लोग उन विषय में उपेक्षा बरतने लगे। यह सत्य के ऊपर पडे़ हुए एक पर्दे का उठ जाना हुआ।

ऐसी- ऐसी अनेकानेक भ्रान्त धारणाएँ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भर गईं हैं। उनका प्रवेश इतनी गहराई तक हो चुका है, उनको अपनाये रहने की अवधि इतनी लम्बी हो गई है कि जो कुछ माना, अपनाया गया है, वह सभी सत्य प्रतीत होता है। इस परिपालन को हम यथार्थ भी मानते हैं और धर्म भी कहते हैं। परम्पराएँ पत्थर की लकीर बन गई हैं। उनमें जो- जो उपयोगिता की दृष्टि से अवांछनीय प्रतीत होती हैं, उनको छोड़ना भी इसलिए नहीं बन पड़ता कि चिर अभ्यास से वे स्वभाव का अंग बन गई हैं। व्यवहार में सरल मालूम पड़ती हैं, जबकि नये सिरे से सोचने में पूर्वाग्रह अवरोध उत्पन्न करने और छोड़ने का प्रश्न सामने आने पर तो न केवल अपना वरन् समीपवर्ती लोगों का विरोध भी सामने आ खडा़ होता है। ऐसी दशा में सत्य का आभास मिलने पर भी मान्यताओं में, आचरणों में असत्य ही अधिकतर छाया रहा है। इस अँधेरे आच्छादन से साहसपूर्वक निकल सकना सम्भव हो सके तो हम न केवल चिन्तनात्मक वरन् व्यवहार में सामाजिक मान्यताओं में क्रांतिकारी परिवर्तन करने के लिए विवश होंगे।

जीवन का महत्त्व, स्वरूप उद्देश्य और उपयोग भी हम कहाँ समझ पाते हैं? शरीर को ही सब कुछ मानते हैं और उसी की लिप्सा, लालसाओं के लिए मरते- खपते रहते हैं। यह भ्रान्ति इतनी बडी़ है, कि आप्तजनों द्वारा इसे माया ठहराये जाने और बन्धन में बाँधने वाली बताकर छोड़ने के लिए सजग किए जाने पर भी वह मान्यता अपने स्थान पर यथावत् बनी रहती है। जीवन उसी जाल- जंजाल में उलझते रहे में मोज मानता और व्यतीत हो जाता है। समय निकलने पर, आँखें खुलने पर, नशा उतरने पर प्रतीत होता है कि कितने बडे़ भ्रम में रहा गया। असत्य के कोल्हू में पिलते रहा गया और वह अवसर निकल गया जिसका सदुपयोग कर सकने पर आत्म- कल्याण और लोक- कल्याण के दोनों ही प्रयोजन सध सकते थे।

स्वभाव में लोभ- मोह की, अहंता के प्रदर्शन की ऐसी लत घुस पडी़ है कि उनकी अनावश्यक पूर्ति के लिए मरते- खपते सारा समय बीत जाता है। आलस्य प्रमाद की, अपव्यय की, आवेश की ऐसी बुरी आदतें आचरण का अंग बन गई हैं, जिनके कारण पग- पग पर ठोकरें लगती रहती हैं। इनते पर भी यह सूझ नहीं पड़ता की अपने आपे को जिस ढाँचे में ढाल लिया गया है, यात्रा का जो लक्ष्य बना लिया गया है, उसमें वास्तविकता उपयोगिता नहीं के बराबर है। व्यक्तित्व का समूचा ढाँचा अवास्तविकताओं से घिर गया है।

भ्रान्तियों का जंजाल छोटा नहीं है। उससे व्यक्ति और समाज को बुरी तरह आच्छन्न देखा जा सकता है। नर और नारी के बीच बरता जाने वाला भेद- भाव, जाँति- पाँति के आधार पर चल रही ऊँच- नीच, माँसाहार, नशेबाजी, खर्चीली शादियाँ, भिक्षा व्यवसाय जैसी कुरीतियों पर दृष्टि डालते हैं, तो विवेक की कसौटी पर इनका खोटापन सहज ही सिद्ध हो जाता है। उनके कारण होने वाली हानियाँ भी सहज समझ में आ जाती हैं। फिर भी वह सब उसी रूप में चलता रहता है। मौखिक विरोध होता है, पर आचरण में अन्तर नहीं आता। यह असत्य का वह चिर संचित अभ्यास है जो हमारे रोम- रोम में बस गया है। आहार- विहार में समाविष्ट अवांछनीयताएँ इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, कि हम वास्तविकता और उपयोगिता की ओर से कितने उदासीन असत्य से अपने आप घिरे हुए हैं और उसी में रहने के आदी बन गए हैं, जैसे पतंगे की आग में कूद मरने की आदत मरण तुल्य त्रास देती रहती है।

सत्य बोलना अच्छी बात है। तथ्य को जिस रूप में समझा गया है, उसी रूप में प्रकट कर देने से मन हल्का रहता है। अन्तर्द्वन्द्व नहीं उठता। प्रामाणिकता भी बढ़ती है। सम्मान होता है और सहयोग मिलता है। इसलिए सत्य भाषण की महत्ता स्वीकार करते हुए भी मात्र उतने तक सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिए वरन् यह भी देखना चाहिए कि अपने स्वभाव में, समाज के प्रचलन में कितना असत्य संव्याप्त है। उसे भी छोड़ने छुड़ाने का प्रयत्न चलना चाहिए। सत्य की समग्र साधना इसी प्रकार सम्भव है। उसे मात्र वचन तक सीमित नहीं रहने देना चाहिए।

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