पातंजलि योग का तत्त्व- दर्शन

समाधि मात्र कौतूहल नहीं है

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अष्टांग राजयोग का अन्तिम चरण है- "समाधि"। यह बुद्धि की चंचलता एवं विडम्बना को श्रेष्ठ सम्यक् बनाने से प्राप्त हुई सफलता है। 'धी' बुद्धि को कहते हैं। सम अथवा सम्यक् कहते हैं, स्थिर एवं सन्मार्गगामी को। यह बन पडे़ तो समझना चाहिए कि देव जीवन में प्रवेश पाने की भूमिका बन गई।

मन कल्पनाएँ करता रहता है। उसकी तरंगें ललक- लिप्साओं पर आधारित होती हैं। उनमें से अधिक बेतुकी और असंगत होती हैं। बुद्धि की सत्ता निरीक्षण- परीक्षण का काम करती है। जो सम्भव है, जो व्यावहारिक है उसे रोक लेती है और शेष अनगढ़ उडा़नों को अपने रास्ते चले जाने देती है। कल्पनाएँ तो विक्षिप्त उनमत्त भी करते रहते हैं, पर बुद्धिमान उन्हें सुव्यवस्थित करते हैं। जो बेसिर पैर की हैं, कार्यान्वित होने वाली नहीं हैं, वे कुछ देर मन रूपी बालक को रंगीले खिलौनों से खिलाकर अपनी राह चली जाती हैं, इनमें से कुछ कुकल्पनाएँ होती हैं। उनके साथ भय, आशंका, आक्रोश, आवेश जैसे अवांछनीय तत्त्व जुडे़ होते हैं। वे डराती भी रहती हैं और कई बार कुमार्ग पर चलने की प्रेरणाएँ भी देती हैं। मनः क्षेत्र में यही धमाचौकडी़ चलती रहती है। मन में बेतुकी तरंगें उठती हैं उनमें से जो सारगर्भित दीखती हैं उन्हें बुद्धि पकड़ती है और सम्भावनाओं पर विचार करती रहती है। जिन्हें वह लाभदायक सम्भव मानती है, पर विचार करना आरम्भ कर देती हैं। अधिक काट- छाँट करने के बाद उसे जो व्यावहारिक प्रतीत होता है उसका ताना- बाना गढ़ती हैं। साधन सरंजाम जुटाने वाले ताने- बाने बुनती हैं। आये दिन यही क्रम चलता रहता है। अनेक गढ़ने पर उनमें से कुछ ही ऐसी हैं जो कार्य रूप में परिणत हो पाती हैं और सफलता के स्तर तक पहुँचती हैं। यह प्रक्रिया नैतिक ही हो यह आवश्यक नहीं। उनमें से कितनी ही ऐसी भी होती हैं जो अनैतिक अव्यवहारिक एवं दुष्परिणाम करने वाली होती हैं। बुद्धि की तीक्ष्णता एक बात है और जो श्रेयस्कर है, उसी में हाथ डालना दूसरी। तथाकथित बुद्धिमान छल- प्रपंच भी रचते हैं और ऐसे कृत्य भी करते रहते हैं जिनके कारण अपयश पाना और संकटों में उलझना पडे़। जेल में बन्द कैदी प्रायः इसी स्तर के होते हैं।

किन्हीं विरलों की बुद्धि मानसरोवर के राजहंसों जैसी होती है। उसे नीर- क्षीर विवेक में प्रवीणता प्राप्त होती है। उसकी चोंच दूध पीती और पानी छोड़ देती है। मोती बिनती और कीडे़ छोड़ देती है। इस संसार में सब कुछ घुला- मिला है। हर क्षेत्र में बुराइयों और भलाइयों का सम्मिश्रण पाया जाता है। यह अपनी समझ पर निर्भर है कि दोनों में से किसका चयन किया जाय। भौरे पुष्पों पर मँडराते हैं, जबकि गोबर में पलने वाले कीडे़ कहीं न कहीं गन्दगी तलाश लेते हैं और उसी में धँसकर मौज मनाते हैं।

राजहंस का अनुसरण करने वाली बुद्धि को मेधा या प्रज्ञा कहते हैं। जो मात्र ब्रह्म भाव में रमण करती है, उसे भूमा कहते हैं। इन्हें दृष्टिकोण की भिन्नता भी कहा जा सकता है, दूरदर्शी, विवेकशीलता की सूझबूझ भी। यही ब्रह्म परायण भी है और धर्म चेतना भी। योग विज्ञान की दृष्टि से इसे 'समाधि' की संज्ञा दी जाती है। बुद्धि की उत्कृष्टता का यही चिन्ह है कि वह उत्कृष्ट को ही चिन्तन क्षेत्र में स्थान दे। आदर्शयुक्त कार्यों को ही आचरण में उतरने दे। किसी के साथ ऐस भी व्यवहार न होने दे जो मानवी गरिमा की दृष्टि से हेय पड़ता हो।

व्यावहारिक समाधि यही है। सर्वसुलभ भी और सर्वोपयोगी भी। इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए बुद्धि की गतिविधियों पर निरन्तर निरीक्षण- परीक्षण करते रहने वाला तन्त्र बिठाना पड़ता है। खरा- खोटा परखने वाली कसौटी सोने को छूते ही उसका स्वर प्रकट कर देती है। बुद्धि तो संकीर्ण स्वार्थपरता से, आदतों से प्रभावित रहती है। उसका काम अपने यजमान मन की हाँ में हाँ मिलाना, उसकी इच्छाओं को पूरी करते रहना है। आम आदमी की बुद्धि ऐसी ही होती है, किन्तु विवेक का परीक्षण यह जाँच सकता है कि किस निर्धारण का औचित्य है किसका नहीं। इतना ही नहीं लिप्सा- लालसाओं को अस्वीकृत कर देने में भी समर्थ होता है। बुद्धि की सिफारिशों को रद्द भी कर सकता है।

मन की चंचलता के साथ जो अपनी चेष्टाओं को जोड़ते हैं, उन्हें बाल- बुद्धि या बचकाने कहते हैं। समझदारी तब आरम्भ होती है, जब बुद्धि अपना काम जिम्मेदारी से सँभालती है। कल्पनाओं में काँट- छाँट करते रहते हैं। उन्हीं को हाथ में लेती है जिन्हें उपयोगी एवं व्यावहारिक मानते हैं। बुद्धिमानों के क्रिया- कलाप ऐसे होते हैं, जिसके सत्परिणाम निकलें और अगणित लोग सराहें।

उससे ऊँची कक्षा प्रज्ञा की है, जिसे समाधि भी कहते हैं। जिस मानस पर प्रज्ञा का आधिपत्य होता है वह मात्र आदर्शों को ही अपनाती है। उत्कृष्टता की कसौटी पर हर विचारणा, निर्धारणा एवं योजना को कसते हैं। महामानवों जैसे पुण्य परमार्थ से भरे- पूरे निश्चय करती है और मार्ग चुनती है। उच्चस्तरीय चिन्तन और चरित्र उन्हें नर- नारायण का स्तर प्रदान करता है। ऐसे लोग देवात्मा, पुण्यात्मा एवं पुरुष- पुरुषोत्तम जैसी विभूतियों से अलंकृत किए जाते हैं। उनकी परा दृष्टि को समाधि नाम से भी सम्बोधित करते हैं। सामान्य परिस्थितियों में भी उनकी मनःस्थिति उच्चकोटि की बनी रहती है। मनुष्य कलेवर में वे देवों की तरह रहते और लोकोपयोगी कार्यों में निरत रहते हैं।

समाधि का एक क्रिया पक्ष भी है, जिसमें संकल्प बल को इस सीमा तक विकसित करना पड़ता है कि मन क्षेत्र पर पूरा नियन्त्रण प्राप्त किया जा सके। यहाँ तक कि उसकी हलचलों को भी बन्द किया जा सके। ऐसे लोग उस शून्यावस्था में चले जाते हैं, जिसमें रक्त संचार तो जारी रहता है, पर मस्तिष्क चेतना विहीन हो जाता है। यह प्रयोग इच्छित समय के लिए संकल्प लेकर किया जाता है। अवधि पूरी होने पर जागृति स्वमेव वापस लौट आती है। यह एक चमत्कारी कृत्य है जिसे हठयोग के साथ जुडा़ हुआ समझा जाता है। विचार प्रणाली को अवरुद्ध करना, हृदय की धड़कन को घटा देना, श्वास- प्रश्वास को सीमित कर देना और जागृत अवस्था में ही निद्रा की स्थिति में पहुँच जाना यह संकल्प बल के चमत्कार हैं। इच्छा शक्ति में न केवल विचारों को अपने साथ ले चलने की, उन्हें ऊँचा उठाने नीचे गिराने की सामर्थ्य है, वरन् उसमें प्रचण्डता आने पर यह स्थिति भी आ जाती है कि शरीर के किसी अंग की क्षमता को घटा या बढा़ सकें। हठयोग की समाधि इसी अभ्यास के बढे़- चढे़ रूप से प्रभावी है। इतने पर भी यह नहीं सोचना चाहिए कि समाधि वाला व्यक्ति मनोजय कर चुका, मेधा प्रज्ञा को जगा सकने में समर्थ हो चुका। ऐसी स्थिति जब तक प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक आत्मिक उत्कर्ष का प्रयोजन पूरा नहीं होता, आत्मवृत्त बढे़ बिना मनुष्य का देवत्व जगता नहीं। इस अभाव के रहते शाप वरदान दे सकने जैसी ऋद्धि- सिद्धियों का दर्शन भी नहीं होता। वह भाव- सम्वेदना का विषय है। जबकि शरीर को शिथिल तन्द्रित या निश्चेष्ट कर देना मात्र संकल्प शक्ति बढा़ लेने का चमत्कार। यह सरकस में दिखाये जाने वाले अजूबों के समतुल्य है, जिनमें अभ्यास करने वाले जानवर भी कितने ही ऐसे कौतुक दिखाने लगते हैं, जिन्हें देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।

हाट- बाजारों मे समाधि लगाने का प्रदर्शन करने वाले, गड्ढे में बैठने- उठने पर पुजापा बटोरने जैसी प्रदर्शन परक विडम्बनाएँ कोई सच्चे अर्थों में सिद्धि क्षेत्र तक पहुँचा हुआ व्यक्ति नहीं दिखा सकता। आत्म- साधनाएँ और उनकी सिद्धियाँ तो प्रायः गोपनीय रखी जाती हैं। उन्हें प्रदर्शन से बचाया जाता है। कौतुक- कौतूहल का रूप देकर भीड़ इकट्ठी नहीं की जाती। इस आधार पर भावुक लोगों की जेबें खाली नहीं कराई जातीं। इन कौतूहलों को देखकर सामान्यजन भ्रम में पड़ते हैं और उद्देश्यों को भूलकर इन तथाकथित सिद्ध पुरुषों के आगे- पीछे मनोकामनाएँ पूरी कराने के निमित्त फिरने लगते हैं। यह साधनारत योगीजनों के लिए और सर्वसाधारण के लिए हितकर ही है।

योग के तत्त्व- दर्शन की खोज करने वाले को, पातंजलि अष्टांग योग के जिज्ञासुओं को इतना ही समझना पर्याप्त है कि सिद्धावस्था तक पहुँचते ही विचारणाओं और भावनाओं पर पूरी तरह नियन्त्रण हो जाता है। न मन निरर्थक कल्पनाएँ करता है और न भावनाओं में का हीनता आती है। सुदृढ़ सुनिश्चित मान्यताओं का परिपक्व होना और आत्मजय प्राप्त कर लेना ही समाधि का व्यावहारिक रूप है, जिसकी ओर क्रमशः बढा़ जा सकता है।

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