पातंजलि योग का तत्त्व- दर्शन

अवांछनीयताओं का प्रतिकार- प्रत्याहार

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आक्रमण का प्रतिकार- प्रत्याहार आवश्यक माना गया है अन्यथा अवांछनीय तत्त्व चढा़ई करके अपने स्वत्व अधिकार का ही अपहरण कर लेंगे। देवता शान्तिप्रिय और नीतिवान थे। वे परमार्थ, परोपकार में ही लगे रहते थे। व्यक्तित्व उत्कृष्ट एवं देवत्वमय था, तो भी दानवों ने उन्हें चैन से नहीं बैठने दिया। कोई दोष या कारण न होने पर भी वे अवसर पाते ही आक्रमण करते रहे। क्षमा और सहनशीलता के सहारे बात टालते रहने पर भी काम नहीं चला। तब उन्हें प्रत्याक्रमण की योजना बनानी पड़ती रही। बार- बार देवासुर संग्राम होते रहे और वे विभिन्न क्षेत्रों में अभी जारी हैं।

आतताई, आतंकवादी हर क्षेत्र में भरे पडे़ हैं। घात लगाने से चूकते नहीं। आवश्यक नहीं कि वे खून- खच्चर वाली लड़ाई ही लडे़ं। दूसरा और भी तरीका है जिनमें व्यवहार में आघात के चिन्ह दिखाई नहीं पड़ते पर भीतर ही रक्त चूस लिया जाता है। रोगों के विषाणु यही करते हैं। वे क्षय जैसे रोग के रूप में प्रवेश करते हैं और कुछ ही समय में समूचे शरीर पर अधिकार प्राप्त कर लेते हैं, तब मरण के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं रह जाता है। मजबूत शहतीर में घुन लग जाता है, तो वह भीतर ही भीतर उसे खोखला करता रहता है। एक दिन ऐसा आ जाता है कि जरा सा धक्का लगने पर वह खोखला शहतीर जमीन पर गिर जाता है।

इसी प्रकार कुविचारों का भी एक वर्ग है, जो मनःक्षेत्र में निवास करता है। देर तक मानस पर छाया रहने के कारण वह ललक लालसा बनता है। अभिलाषा- आकांक्षा का रूप धारण करता है और विचारों को कार्य के रूप में परिणत होने के लिए विवश करता है। वासनाएँ, कामनाएँ, तृष्णाएँ, लिप्साएँ बीज रूप में विचार क्षेत्र में अंकुर उगाती हैं। उन्हें पोषण मिलते रहने पर तेजी से बढ़ती हैं और अमरबेल की तरह समूचे जीवन को अपनी पकड़ में कस लेती हैं। कोई कृत्य अनायास ही नहीं बन पड़ता। उसकी भूमिका लम्बे समय से मनःक्षेत्र में अपना ताना- बाना बुनती रहती है। जड़ पकड़ लेने पर पौधा मजबूत हो जाता है, तब वह उखाड़ने में नहीं आता है। अंकुर उगते समय उसे सरतापूर्वक नोंचकर हटाया जा सकता है, पर परिपुष्ट होते रहकर गहराई तक जडे़ं प्रवेश कर लेने पर उसे उखाड़ना सरल नहीं रहता। कुविचारों के सम्बन्ध में तो वस्तुःत यही होता है। सद्विचार तो प्रयत्नपूर्वक उगाने- बढा़ने पड़ते हैं, पर दुष्प्रवृत्तियाँ कटीले बबूल की तरह कहीं भी जम जाती हैं और खाद पानी की परवाह किए बिना अपने आप बढ़ने लगती हैं। पीपल को परिपक्व होने में वर्षों का समय चाहिए, पर बबूल तो कुछ ही महीनों में चुभने वाले काँटो से लद जाता है। कुविचार भी ऐसे ही होते हैं।

जीवन को उज्जवल, उत्कृष्ट बनाना हो तो उसके लिए स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन आदि का आश्रय लेना पड़ता है। अच्छे वातावरण और सम्पर्क से जुडा़ होता है पर दुष्प्रवृत्तियाँ तो खर- पतवार की तरह हर खेत में उगी रहती हैं। बिना पानी के भी हरियाली हैं। जलकुम्भी की तरह उन्हें किसी जलाशय पर छा जाने में देर नहीं लगती। व्यक्तियों का समुदाय अवांछनीय प्रवृत्तियों से भरा पडा़ रहता है। कुकृत्य का सर्वत्र प्रवलन है। उनकी छूत रास्ता चलते को लगती है।
प्रतिकार न किया जाय तो अवांछनीयताएँ टिडी दल की तरह बढ़ती हैं। मक्खी- मच्छरों की तरह पनपती हैं और अपनी चपेट में उन्हें भी ले लेती हैं, जो चैन से रहने के इच्छुक हैं, जो कि किसी को नहीं सताते। इतने पर भी वे मात्र इसलिए बचे नहीं रह सकते कि वे सज्जनता निबाहते हैं, किसी को त्रास नहीं पहुँचाते। खटमल, पिस्सू, जुए, चूहे इस तेजी के साथ बढ़ते हैं कि यदि उनकी रोकथाम के बारे में न सोचा जाय तो उनका मन्द गति आक्रमण भी अपने अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर देगा। चोर उचक्कों से बेखबर रहा जाय तो कहीं भी जेब कट सकती है। कहीं भी पोटली उठ सकती है। घर के पिछवाडे़ कहीं भी सेंध लग सकती है। स्वयं चोर न होना अच्छी बात है, पर इतने भर से चोरों के हथकण्डे रुक नहीं सकते। सतर्कता से लेकर चौकीदारी तक का प्रबन्ध करने पर ही अपने सामान को बचाया जा सकता है।

कुविचार कुकरमुत्तों की तरह बिना बोये ही उगते हैं। जन्म- जन्मान्तरों के कुसंस्कार तनिक- सी कमी पाते ही उद्भिजों की तरह उपज पड़ते हैं। सूखी घास की जडे़ं पहली वर्षा होते ही धरती पर फैल जाती हैं। कूडा़- करकट हवा के साथ उड़कर कहीं से भी आँगन में घुस पड़ता है। इस आधार पर उत्पन्न होते रहने वाली गन्दगी को बुहारी से बुहारने, पानी से धोने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। अध्यात्म क्षेत्र में इसी प्रकार के प्रयत्नों को प्रत्याहार या परिहार कहते हैं।

कुविचारों से जूझने के लिए सद्विचारों की ऐसी पुलिस फौज की व्यवस्था करनी चाहिए जो आक्रामकों को देखते ही उनसे भिड़ पडे़। ऐसी बहादुरी से लडे़ं कि दुश्मन के पैर उखड़कर ही दम लें। लाठी का जवाब लाठी से, घूँसे का घूँसे से जवाब दिया जाता है। विष की औषधि विष ही बनाई गई है। कुविचारों को कुकर्म के रूप में परिणत होने से पहले ही उनके छत्ते में पलने वाली विषैले डंक वाली बर्रों की बढ़त बन्द करनी चाहिए। सडे़ गोबर में बिच्छू पनपें उससे पहले ही उस सड़ाँध को हटाकर दूर पहुँचा देना चाहिए।

मन में जमी- जन्म की कुसंस्कारिता और वातावरण में भरी- पूरी अवांछनीयता किसी भी क्षण छूत की बीमारी की तरह आक्रमण कर सकती हैं। इसलिए अच्छा हो समय से पहले ही रोकथाम का प्रबन्ध कर लिया जाय। लक्षण उभरने ही लगें, तब तो उपेक्षा बरतनी ही नहीं चाहिए। प्रतिरोध के लिए जो आवश्यक है उसे अविलम्ब करना चाहिए और दमन में पूरी कठोरता बरतनी चाहिए।

कुविचार तब पनपते हैं, जब उन्हें विरोध का सामना नहीं करना पड़ता। जहाँ सुरक्षा की दीवार कमजोर दीखती है, कच्चे मोर्चे पर दुश्मन हमला करता है। यदि सुरक्षा पंक्ति समय रहते मजबूत बना ली जाय। सद्विचारों का भण्डार इतना भर लिया जाय कि उस भरी तिजोरी में कुविचारों को कहीं से प्रवेश ही नहीं मिल सके। यदि किसी प्रकार किसी सीमा तक वे घुस ही पडे़ं तो उपेक्षा बरतने, जो हो रहा है, उसे होने देने की ढील तो देनी ही चाहिए। खूनी साँड़ सामने से दौडा़ आ रहा हो तो प्रतिकार में एक तो लाठी लेकर उसे खदेडा़ जाय या फिर भाग कर किसी ऐसी आड़ में छिपा जाय कि पैने सींगों से बचाव हो सके। कुकर्म का अवसर चुका देना भाग खडे़ होने जैसी बुद्धिमत्ता है, पर यदि समय हो तो कुविचारों को सद्विचारों के पक्षधर तर्कों, तथ्यों, प्रमाणों, उदाहरणों से इस प्रकार चुनौती देनी चाहिए कि उन्हें हार ही माननी पडे़। भविष्य के लिए निर्लिप्तता अर्जित होने का यही चिरस्थायी तरीका है। कुविचारों को परास्त करने उन्हें दुष्कर्मों के रूप में परिणत होने देने से पहले ही यदि कमर कस ली जाय तो समझना चाहिए कि भविष्य को अन्धकार के गर्त में गिराने वाले कुयोग से पीछा छूटा।

कोई अचानक कुकर्मी नहीं होता। उस पर पहले ही कुविचारों का आक्रमण होता है। इन उगते लक्षणों को देखकर ही सतर्क हो जाना चाहिए, समर्थन जैसा कुछ मिलने लगने पर तो उसे तिल से ताड़ बनते देर नहीं लगती जिसके मन में अचिन्त्य चिन्तन आश्रय पाता है, उसे समय स्थिति तक पहुँचते देर नहीं लगती, जिसमें दुर्व्यसनों का दुष्प्रवृत्तियों का घेरा घिरता चला जाय और फिर उस शिकंजे से छुटकारा पा सकना कठिन हो जाय।

गीता का महाभारत मात्र द्वापर में कुरुक्षेत्र के मैदान में ही नहीं लडा़ गया। उसे हर व्यक्ति को अपने चिन्तन और चरित्र की आत्मरक्षा के लिए हर किसी को निरन्तर लड़ना पड़ता है। अर्जुन को शिथिल पड़ते देखकर कृष्ण ने उसे युद्धरत होने के लिए प्रोत्साहित किया। उस प्रोत्साहन का तत्त्वदर्शन ही गीता का ज्ञान है। यह जीवन में विजयश्री वरण करने का एक पहला चरण है। इस प्रत्याहार- परिष्कार में संघर्षरत होने का साहस दिखाये बिना कोई उस स्थिति तक पहुँच नहीं सकता जिसमें अन्तराल को परमात्मा तक पहुँचाने का लक्ष्य प्राप्त होता है। जिसमें लौकिक प्रगति और प्रामाणिकता का श्रेय सम्मान एवं सन्तोष भी सम्मिलित है।


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