प्राक्कथन
आज धरती का तापमान बढ़ता चला जा रहा है । पर्यावरण चक्र गड़बड़ा जाने ऋतु विपर्यय के कारण प्रकति -प्रकोप चारो ओर देखे जा रहे हैं। चाहे वे विकसित देश या विकासशील सभी ओर यह कहर बरसता देखा जा सकता है । मनुष्य ने अपनी नासमझी से स्वंय ही इन आपत्तियों
आमंत्रित किया है । उसकी जीवनशैली विकृत हो चुकी है । साधनों धनो को पाने की होड़ में मनुष्य ने अपनी तृष्णा को इतना बढ़ा लिया है कहीं अंत ही नजर नहीं आता । ससाधनों का दोहन आज चरम सीमा पर है । प्रतिदिन पूरे विश्व मे कुल मिलाकर ७०,००० एकड़ के वृक्षो का कवच नष्ट कर दिया जाता है । यह सब हमारी सुख-सुविधाएँ बढ़ाने के लिये एक प्रकार से प्रकृति से यह खिलवाड़ मानवमात्र के महामरण की तैयारी है ।
सभी को बैठकर एकजुट हो चिंतन करना होगा कि इस वर्तमान की स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है? क्यों प्रकृति असंतुलित हो रही है. मानवकृत विभीषिकाएँ क्यों बढ़ती जा रही हैं ' मनुष्य को आपनी गरिमा के अनुरूप अपना जीवन जीना सीखना ही होगा । पाश्चात्य सभ्यता का खोखलापन अब जग जाहिर होता जा रहा है । संस्कृति का इसने जमकर विनाश किया है । विज्ञान के