नारी उत्थान सबसे बड़ी आवश्यकता

नारी उत्थान सबसे बड़ी आवश्यकता

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मनुष्य के स्वभाव में एक विचित्र बात यह है कि उसे अपनी हर आदत प्यारी लगने लगती है। अपने अभ्यास में आये हुए दोष दुर्गुण, जो दूसरों को सहन भी नहीं होते, स्वयं को प्रिय लगते हैं। अगर कोई उन्हें छोड़ने, बदलने के लिए कहता है तो बुरा लगता है। अपने स्वभाव में सुधार की बात कहने वाले को लोग हितैषी नहीं, आलोचक और शत्रु के रूप में देखने लगते हैं।
नारी समस्या के बारे में भी कुछ ऐसी ही विचित्र घटना घट रही है। जो ढर्रा चल रहा है उसे बदलने की कोशिश क्यों की जाय? जो कुछ हो रहा है उसमें पुरुष को अपना लाभ दिखाई देता है और नारी उसकी अभ्यस्त हो गई है। ऐसी हालत में बेकार छेड़छाड़ क्यों की जाय? इस प्रकार के प्रश्न कई परम्परावादी उठाया करते हैं।
स्थिति ज्यों की त्यों बनी रहने देने से, उथल पुथल की झंझट से बचा जा सकता है, लेकिन उस अनीति के बने रहने से जो नुकसान हो रहा हैं उससे तो नहीं ही बचा जा सकता। आगे उज्ज्वल भविष्य जिस आधार पर बन सकता है वह आधार तो उचित परिवर्तन लाये बिना नहीं ही बन सकते।
यह ओछी दृष्टि है—कि जब तक कोई प्रत्यक्ष हानि, उठापटक शुरू न हो तब तक किसी बात पर ध्यान ही न दिया जाय, उसे समस्या ही न माना जाय। बांध बनाने के लिए मेहनत करने से—धन लगाने से इन्कार कर दिया जाय, क्योंकि हाल में सामने कोई परेशानी तो दिखाई ही नहीं पड़ती, और बाढ़ आने पर भागदौड़ की जाये तो यह कोई समझदारी नहीं। भूकम्प और तूफान से प्रभावित क्षेत्र को तो समस्या माना जाय लेकिन, फालतू पड़ी अनुपजाऊ बंजर भूमि अथवा रेगिस्तानी इलाके को उपजाऊ बनाने को कोई काम ही न समझा जाय क्योंकि वहां कोई अशान्ति तो है नहीं। यों मोटी दृष्टि से देखा जाय तो रक्त में मिले रोगाणु और लकड़ी में लगे घुन भी कोई प्रत्यक्ष अशान्ति नहीं फैलाते। नशा पीने और पिलाने वाले, रिश्वत लेने और देने वाले, एकदम शान्ति से—चुपचाप अपना काम कर लेते हैं। सटोरिए, जुआरी और व्यभिचारी अपने-अपने ग्राहकों के साथ ऐसी पटरी बिठाकर रखते हैं कि न किसी के पास शिकायत पहुंचाती है न पंच फैसलों की जरूरत पड़ती है और न सरकारी सहायता लेनी पड़ती है। कोई झगड़ा-टंटा खड़ा नहीं हो रहा है इसलिए इन गलत कार्यों को न रोका जाय, यह कोई तर्क नहीं है।
मिट्टी में पैदावार की ताकत न होना भी उतना ही कष्टकारक है जितना निरन्तर ओले बरसने पर या टिड्डी दल के आक्रमण से सारी भरी फसल का नष्ट हो जाना। महामारी फैलने के कारण कोई क्षेत्र खाली हो जाना अथवा पानी आदि जीवन साधन समाप्त हो जाने के कारण वहां से लोगों का चले जाना परिणाम की दृष्टि से समान है। मोटी अकल अग्निकाण्ड जैसे उपद्रवों को ही विपत्ति मानती है, सूक्ष्म दृष्टि यह बतलाती है कि उत्पादन कम होना भी एक समस्या है। समझदारी की दृष्टि से नदी नदी पर पुल बन जाने से यातायात में सुविधा हो जाना भी एक बड़ा काम है। नदी के किनारे कोई झंझट खड़ा नहीं होता है इससे यह नहीं मान लेना चाहिए कि रास्ता न होने के कारण कोई हानि नहीं हो रही है। विचारशील लोगों ने ऊबड़ खाबड़ अनुपजाऊ जमीनों को हरी भरी बनाया है। गहरे समुद्र पर तैरने वाले जलयानों और आकाश में उड़ने वाले वायुयानों की रचना की है। दूरदर्शी लोगों की ही यह सूझबूझ थी कि जिनने समुद्र और आकाश में यातायात मार्ग बनाने में सफलता प्राप्त की। ऐसे ही विचारशीलों का कर्तव्य है कि वे नारी का स्तर गिरने के कारण हो रही भौतिक एवं आत्मिक हानि पर विचार करें, उसकी भयंकरता को समझे और उसे दूर करने की प्रभावशाली योजना बनायें।
यों नारी के ऊपर लगे हुए बन्धनों के कारण होने वाली कठिनाइयों का समाधान भी कम महत्व का काम नहीं है परन्तु उससे भी अधिक महत्व की बात यह है कि अविकसित पिछड़ी हुई स्थिति में पड़ी हुई नारी को योग्य बनाया जाय। उसकी प्रतिभा से वह लाभ उठाया जाय जिसके बिना सारी मनुष्य जाति की उन्नति का मार्ग ही रुका हुआ है। सम्पन्नता और खुशहाली पैदा करने के कई आधार कहे जाते हैं। कल-कारखाने, कृषि-फार्म, व्यापार संस्थान, यातायात के साधन आदि महत्वपूर्ण आधार माने जाते हैं। लेकिन यदि विकसित और योग्य नागरिकों को भी इसका आधार समझा जाय, तो यह मानना ही पड़ेगा कि अकेले नर के बूते ही सब कुछ नहीं हो सकता, उसमें नारी का भी सहयोग चाहिए। और समुन्नत हुए बिना नारी ऐसा सहयोग दे नहीं सकती।
कोई उपद्रव नहीं हो रहा है, इसलिए नारी जागरण के कार्य को कोई समस्या न मानने वाले भी अगर थोड़ी गहराई से सोचे तो उन्हें यह अवश्य लगेगा कि आधी जनसंख्या को निर्जीव से सजीव बना देने की, अनुपयोगी से उपयोगी बना देने की समस्या आज की सबसे बड़ी समस्या है। वह अपना समाधान आज ही—अभी ही किये जाने का आग्रह कर रही है। नारी के साथ बरता जाने वाला भेदभाव अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारे देश के असम्मान का कारण बना हुआ है। गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में गोरे काले रंग वालों के साथ बरते जाने वाले भेदभाव के विरुद्ध जब आन्दोलन खड़ा किया था, तो उन्हें यह कहकर चिढ़ाया गया था कि ‘‘आप भारतवासी भी तो अछूतों और स्त्रियों के साथ समान व्यवहार नहीं करते हैं? हमसे वैसा न्याय पाने की मांग करने से पहले आप अपने यहां तो सामाजिक न्याय लागू कीजिए। हम जब जहां भी, मनुष्य द्वारा मनुष्य के साथ बरती जाने वाली अनीति के विरुद्ध आवाज उठाते हैं तो विपक्षी लोग तत्काल इसी अनीति की याद दिलाकर हमें निरुत्तर कर देते हैं। सरकारी कानूनों में—संविधान में इस भेद-भाव भरे अन्याय को अपराध ठहराया गया है। किन्तु इससे क्या? जब तक हमारा व्यवहार न बदले तब तक उस कानूनी सुधार भर से समस्या का समाधान नहीं हो सकता।
समाज में एक वर्ग को पिछड़ा बनाये रखना फायदे का नहीं घाटे का सौदा है। पिछड़ा वर्ग समर्थ वर्ग के लिए हमेशा गले का पत्थर बना रहेगा। एक पिछड़ेपन से कराह रहा होगा और दूसरे की कमर दोहरा भार होने से टूट रही होगी। पिछड़ी न घर परिवार के लिए उत्पादक होती है और न किसी दूसरे महत्वपूर्ण कार्य में हाथ बंटा पाती है। जल्दी-जल्दी बच्चे पैदा होने से एक ओर उसका स्वास्थ्य चौपट होता है, तो दूसरी ओर परिवार की अर्थ व्यवस्था लड़खड़ा जाती है। छोटे घरों के पिंजड़े में, पर्दे के अन्दर कैद रहने वाली स्त्री का स्वास्थ्य, खुली हवा और रोशनी के अभाव में बिगड़ जाना बिलकुल स्वाभाविक है। शरीर जर्जर, मानसिक रूप में पिछड़ी हुई सताई हुई और अपमानित आज की नारी अपने लिए और अपने समाज के लिए भार बनकर ही रहेंगी। जिनने उसका पिछड़ापन दूर करने की कोशिश नहीं की वे ही इसका नुकसान उठायेंगे।
पर्दा प्रथा विवेक पूर्ण नहीं है, मगर उस समय तो अविवेक की हद ही हो जाती है जब वह अपने ही माता, पिता के समान अभिभावकों से किया जाता है। ससुर—पति का पिता, वधू के लिए अपने निज के पिता से भी अधिक पूज्य है। उम्र और भावना की दृष्टि से ससुर और पुत्र वधू के बीच सगे बाप बेटी से भी अधिक पवित्र संबंध होने चाहिए। पति के बड़े भाई—जेठ आदि के सम्बन्ध भी इसी प्रकार के होते हैं। सास से पर्दा तो और भी विचित्र है। नारी को नारी से पर्दा किसलिए करना चाहिए? मां बेटी के बीच—पिता पुत्री के बीच पर्दा कैसा? इससे तो उनके बीच विचारों का आदान प्रदान ही रुक जाता है। कोई किसी से मन की बात कह भी नहीं पाती। पर्दा प्रथा के कारण संकोच की ऊंची दीवार खड़ी रहने से तो अपने ही परिवार के व्यक्ति एक दूसरे के साथ-एक ही घर में रहते हुए भी, पड़ौसी अनजान जैसी स्थिति में ही बने रहते हैं।
दुराव छिपाव की जरूरत तब पड़ती है जब कोई ऐसी स्थिति सामने हो, जिसे उचित नहीं समझा जाता। चोर डाकुओं से जो विश्वास के योग्य नहीं हैं—ऐसे लोगों से असलियत छिपाकर रखी जाती है। जीवन की लज्जाजनक घटनाओं पर पर्दा डाल देते हैं ताकि उन्हें जानने पर लोगों की घृणा न उभरे। मल मूत्र, कूड़ा कचरा ढक कर रखते हैं, ताकि उनकी दुर्गन्ध उड़कर लोगों का मन खराब न करें। अनैतिक काम, अपराध, अश्लील आचरण भी पर्दे के पीछे किये जाते हैं। मरे मुर्दे पर कफ़न डाल दिया जाता है, ताकि उसकी बिगड़ी हुई सूरत देखकर डर न लगे फांसी लगाते समय कैदी का मुंह ढक दिया जाता है। डाकू भी नकाब पहनकर हमला करते हैं ताकि वे पहचाने न जा सकें। नारी को न जाने इनमें से किसके स्तर के बराबर समझा गया है, और उसे पर्दे में मुंह छिपाकर रहने की आज्ञा दी है।
नारी पर ऐसे प्रतिबन्ध क्यों लगे हैं कोई व्यक्ति यदि इसका उचित कारण विवेक से सोचना चाहें तो दो ही अन्दाज लगाये जा सकते हैं। एक तो यह कि अपने समाज का पुरुष वर्ग इतना चरित्र भ्रष्ट है कि उसके आगे मुंह खोलकर रहना खतरे से खाली नहीं है। दूसरा यह कि नारी थोड़ी भी विश्वसनीय नहीं है, वह पर्दे की जंजीरों में जकड़े बिना चरित्र निष्ठ नहीं रह सकती। यह दोनों ही आशंकाएं हमारे आचरण पर कलंक की कालिख पोतती है।
एक सभ्य परिवार में माता, पिता, भाई, बहन, छोटे बड़े वयस्क प्रौढ़, किशोर, सभी आयु के नर नारी होते हैं। वे पूर्ण सुरक्षा और निश्चिन्तता पूर्वक रहते हैं। शालीनता के रहते किसी प्रकार के पर्दे की जरूरत नहीं पड़ती।
पर्दे का बन्धन दुराचार रोक सकता है, यह सोचना बेकार है। मनुष्य का शरीर ही कपड़े से ढका जा सकता है उसकी नियत नहीं ढकी जा सकती। मनुष्य की चतुरता का कोई ठिकाना नहीं है। कैदी जेल से सुरंग खोदकर भाग निकलते हैं। पाकेटमार भरी भीड़ में अपना करतब दिखाते हैं। लोहे के पिंजड़े में हाथ पैर बांधकर और मुंह तथा आंखों पर पट्टी बांधकर किसी को बंद कर दिया जाय तो बात दूसरी है, नहीं तो अपराध करने वाला व्यक्ति अपने साथी हर स्थिति में ढूंढ़ लेते हैं, या पैदा कर लेते हैं। मन काबू में न हो तो बाहरी रोकथाम एक बहुत छोटी सीमा तक काम कर पाती है। सचाई यह है कि जिन देशों और जातियों में पर्दे का रिवाज अधिक है उनमें दुराचार भी उतना ही बढ़ा चढ़ा है।
पर्दा अनाचार की रोक थाम के लिए किया जाता है, यदि यह बात मान भी लिया जाय तो फिर उसकी व्यवस्था नारी से भी अधिक कड़ाई नर के साथ होनी चाहिए क्योंकि घर से बाहर स्वच्छन्द फिरने के कारण उसी के द्वारा गड़बड़ी होने का खतरा अधिक है। उच्छृंखलता में सदा पुरुष ही आगे रहता है।
स्पष्ट है कि पर्दे के पक्ष में उचित तर्क या कारण नहीं है। उससे हानियां अनेक हैं। नारी के शारीरिक स्वास्थ्य मस्तिष्क के विकास और व्यवहार में अनुभव बढ़ाने के लिए पर्दा जैसी निरर्थक बीमारी को जितना जल्दी हो सके तो दूर कर दिया जाना चाहिए।
एक और बहुत ही दुखदायी मान्यता यह है कि पुरुष नारी के साथ चाहे जैसा व्यवहार कर सकता है। आज भी छोटी छोटी सी बातों पर हमारे घरों में स्त्रियों के साथ मार पीट की जाती है। मनुष्य द्वारा मनुष्य के प्रति ऐसा व्यवहार पशुता का सूचक है। सभ्य देशों की तो अदालतों से भी कोड़े मारने का दंड उठा दिया गया है। स्कूली बच्चों को मारना अध्यापकों के लिए अपराध है। पशुओं को सताना भी अब दण्डनीय अपराध गिना गया है। पशु का अपराध नहीं, लेकिन जीते जी उसे सताना, उनके लिए क्रूरता का व्यवहार करना कानून के खिलाफ है। किसी जमाने में बड़े बूढ़े लोग बड़ी उम्र के लड़कों को भी मारपीट किया करते थे। अब सामान्य रूप से लोगों की स्वाभिमान की भावना बढ़ी है और जवान लड़के अभिभावकों को मारपीट या गाली-गलौच का खुला विरोध करने लगे हैं। स्वाभिमान के साथ रहना मनुष्य का स्वभाव है, उसे सुरक्षित ही रखा जाना चाहिए। नारी होना ऐसा अपराध नहीं है जिसके कारण उसके स्वाभिमान को ताक पर रख दिया जाय, और उसके साथ मनमाना, भौंड़ा व्यवहार किया जाय।
आज भारत में नारी की वर्तमान स्थिति देखकर किसी भावनाशील के दिल पर गहरी चोट लगती है। प्रश्न उठता है कि नारी को इस तरह सताने से नर को क्या लाभ मिला? उसे असहाय बनाकर किसने क्या पाया? घर परिवार के लोगों को इससे क्या सुविधा बढ़ी? पति को उससे क्या सहयोग मिला? बच्चे क्या सुरक्षा पा सके? देश की अर्थ व्यवस्था और सामाजिक प्रगति में पिछड़ी नारी ने क्या योगदान दिया? स्वयं नारी, जीवन का क्या आनन्द पा सकी? इन प्रश्नों पर विचार करने से लगता है कि नारी को सताकर, नीचे गिराकर बन्धनों में बांधकर या उपेक्षित रखा जाना, किसी प्रकार उचित नहीं है। समय पूछता है कि अनुचित को कब तक सहन किया जायगा और कब तक उसे इसी तरह चलने दिया जाएगा।
आइए हम और आप मिलकर लोकशक्ति का आह्वान करें। नारी के बारे में जो सोचा जा रहा उसके साथ जो व्यवहार किया जा रहा है, उसे बदलने के लिए लोगों के दिमाग बदल दें। यदि जन साधारण का विवेक नारी के पतन और उत्कर्ष के लाभ को समझ सके तो कदम-कदम पर उठ खड़ी होने वाली समस्याएं मिट जायें। और उज्ज्वल भविष्य राजमार्ग पर चलते नये युग को धरती पर ला दिखाने का लक्ष्य निश्चित रूप से पूरा किया जा सकेगा।
भगवती दुर्गा और पतित पावनी गंगा नारी की शक्ति और पवित्रता का प्रतीक मानी जाती है। महालक्ष्मी का ही छोटा रूप गृहलक्ष्मी है। सुयोग्य नारी की स्थिति में भी अपने सद्गुणों से परिवार में इतनी सुख शान्ति बनाये रख सकती है जो बड़े बड़े धन सम्पन्न लोगों को भी नसीब नहीं हो पाती।
नारी हर कदम पर पुरुष के लिए आवश्यक और उपयोगी हैं। माता के स्नेह सहयोग के बिना मनुष्य का अस्तित्व ही इस जगत में संभव न होगा। जगती से जननी बड़ी है। पत्नी के रूप में वह पति की अपूर्णता दूर करती है। बहिन के रूप में सज्जनता और मर्यादा के प्रतिबन्ध लगाती है बेटी बनकर भावभरी कोमलता से मनुष्य की सहृदयता और सद्भावना को बनाये रहती है। नर का और नर के लिए भी सद्भाव सहयोग हो सकता है पर नारी तो न जीवन बल्कि जीवन को समृद्ध, सरल और सफल बनाने वाले सारे आधार ही उड़ेल देती है।
व्यक्ति और समाज के बीच की कड़ी परिवार संस्था है। परिवारों के छोटे-छोटे समूह मिलजुलकर ही समाज कहलाते हैं। छोटे-छोटे अंगों को मिलकर शरीर बना है उसी प्रकार समाज देश और विश्व सभी का ढांचा परिवारों के समूह से मिल कर ही खड़ा करते हैं। शरीर के छोटे-छोटे कोषों में दोष आ जाने पर पूरे शरीर का ढांचा लड़खड़ाने लगता है। ठीक इसी प्रकार परिवारों की व्यवस्था और उनके आधार लड़खड़ाने लगे तो कोई भी देश या समाज अपनी शान बनाये नहीं रह सकता।
परिवार संस्था वह धुरी है जो व्यक्ति और समाज दोनों को ही ऊंचा उठाती है। सभ्य परिवार के सुसंस्कृत वातावरण में पले हुए व्यक्ति के जीवन में कदम-कदम पर हर कार्य में महानता की छाप मिलती है। वे स्वयं तो महान जीवन जीते ही हैं, अपनी संगति में आने वाले असंख्यों को ऊंचा उठाने में सहायक सिद्ध होते हैं। सैनिकों का जो स्तर होगा। सेना की शक्ति उसी हिसाब से होती है। परिवारों की स्थिति ही समाज को मिलती है। भ्रष्ट परम्पराओं से घिरे हुए, ऊटपटांग रीति नीति अपनाकर, दुःख कष्ट में फंसे हुए परिवारों का समूह देश को हर दृष्टि से दुर्बल बनाता चला जाता है। यदि किसी समाज से राष्ट्र को मजबूत और उन्नतिशील बनाना हो तो परिवारों की इन इकाइयों को पहले संभालना होगा।
जिस खानदान में से नर रत्न निकलते हैं वह समुन्नत परिवार के अतिरिक्त और कुछ नहीं। कोयले की खदानें कोयला और सोने की खदानें सोना उगलती हैं। परिवार का स्तर गया गुजरा होगा तो उसमें पलने और बढ़ने वाले व्यक्ति भ्रष्ट और दुष्ट बन सकेंगे। सुसंस्कृत परिवार ही नर रत्नों को, महामानव को गढ़ सकते हैं।
करोड़ों रुपये की लागत से बनने वाले कल कारखाने और चलने वाले उद्योग देश के लिए हितकारी होते हैं, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन श्रेष्ठ नागरिक—प्रामाणिक व्यक्ति, इन सबसे अधिक कल्याणकारी सिद्ध होते है। यदि किसी देश के नागरिक चरित्रवान, कर्तव्य परायण, सद्गुणी, स्वस्थ और सज्जन हों, तो तमाम अभाव होने पर भी वह मजबूत बना रहेगा और सम्मान पाता रहेगा। लेकिन अगर नागरिक शरीर और मन से, कमजोर हों, उनके चाल-चलन भ्रष्ट हों तो उन्हें कितनी भी सम्पत्ति दे दी जाय, कितना ही पढ़ा लिखा दिया जाय, कितना ही योग्य बनाया जाय वे अपने गिरे हुए स्तर के कारण, समाज और राष्ट्र को कमजोर, बदनाम और खोखला ही करते रहेंगे। अच्छा चरित्र मनुष्यता की रीढ़ है। उसी के सहारे समाज में भी जीवन आता है। ऐसे चरित्र, स्वभाव और संस्कारों का विकास जिस वातावरण में होता है, वह केवल परिवारों में ही मिलना संभव है।
स्कूलों में तरह-तरह की जानकारियां और कुशलताएं सिखाई पढ़ाई जाती हैं। विद्यालय हमें सुयोग्य बना सकते हैं—सज्जन नहीं। शालीनता, सज्जनता, सहृदयता जैसे मनुष्यता की शोभा बढ़ाने वाले सद्गुण सुसंस्कृत परिवारों के सुन्दर वातावरण में ही सीखे सिखाये जा सकते हैं। कोई व्यक्ति केवल धनी, विद्वान आदि होने भर से वजनदार नहीं बनता। उसका महत्व तो इस बात से आंका जाता है कि वह कितना प्रामाणिक है, उसका चरित्र कितना उज्ज्वल है, प्रतिभा कितनी प्रखर है। इस चरित्र निष्ठा के बीज बालक में पांच वर्ष की आयु तक बोये जा चुके होते हैं। पीछे तो उनका सींचना भर शेष रह जाता है। यह बीज जैसे होते हैं, समय पर उसकी फसल निकृष्ट या उत्कृष्ट व्यक्तित्वों के रूप में सामने आती हैं। शिशु विज्ञान के जानने वाले सदा से यही कहते आये हैं कि बच्चों के व्यक्तित्व का विकास प्रधानतया घर की पाठशाला से ही होता है। इससे बढ़कर महत्वपूर्ण और कोई शिक्षण संस्था हो ही नहीं सकती।
यदि हमें अपने देश और समाज को सुदृढ़ समुन्नत बनाना हो—और हमें अपने देशवासियों को चरित्रवान् और प्रतिभावान देखना हो, तो व्यक्ति और समाज को सबसे अधिक प्रभावित करने वाली परिवार संस्था को, सद्गुणों और श्रेष्ठ संस्कारों से सजाना संवारना होगा, और उसके वातावरण में से स्वार्थ भरी खींचतान दूर कर उनके प्रति प्रेम पैदा करना होगा। अगर यह सच्चाई, यह तथ्य हमारी समझ में आ जाय तो फिर यह स्वीकार करना कठिन न होगा। यह कार्य जैसा होना चाहिए वैसा तो केवल नारी ही कर सकती है। परिवार का वातावरण नारी रूपी पुष्प से ही महकता रहता। कई फूल सुगन्ध युक्त होते हैं और कई घोर दुर्गन्ध फैलाते हैं। अपना बगीचा जिस तरह के फूल पौधे का होगा उसकी महक उसी प्रकार की मिलेगी। गये गुजरे स्तर की नारी न तो परिवार का स्तर ऊंचा उठा सकती हैं और न उससे जन्मने, पलने एवं आश्रय पाने वाले व्यक्ति ही ऊंचे स्तर के हो सकते हैं। नारी की स्थिति के अनुरूप परिवार का वातावरण बनता है—उसी के अनुसार पलने वालों की स्तर ढलता है—और इसी निर्माण का प्रभाव समूचे देश एवं समाज पर अपनी छाप डालता है। दूसरे शब्दों में नारी ही परोक्ष रूप से पूरे समाज पर छाई रहती है। उसे जिस भी स्थिति में रखा जायगा पूरा समाज निश्चित रूप से उसी स्थिति में दिखाई देगा।
मनुष्य केवल मांस, रक्त और हड्डी से ही नहीं बन जाता, उसे मानवीय गुण और संवेदना भी चाहिए। नारी के अन्दर कोमलता, स्नेह, सज्जनता, सहृदयता जैसी दैवी प्रवृत्तियां हैं, जिनसे मनुष्य में मनुष्यता पैदा हो सकती है। वह उन्हें बच्चों को भी देती हैं और उन्हीं भावना के धागों में परिवार के सभी सदस्यों को भी बांधकर रख सकती है। इस नाते में नारी में वह क्षमता है कि वह व्यक्ति और परिवार के बीच की कड़ी बन सके, परिवार संस्था को संगठित बनाये रखने वाली सूत्र संचालिका का श्रेय पा सके।
लेकिन आज की स्थिति देखकर मुंह से ‘हाय’ निकल पड़ती है। नारी अपने इन जिम्मेदारियों को निभा सकने की क्षमता बराबर खोती चली जा रही हैं। अपने महान कार्य को पूरा करने योग्य कुशलता, दूरदृष्टि, धैर्य, सन्तुलन और कार्य में जुटे रहने की क्षमता नारी में समाप्त होती जा रही है। यों बच्चे अभी भी वही पैदा करती है, गृहिणी भी वही कहलाती है, लेकिन वह हीरे पैदा करने वाली खदान अब नहीं रह गई है। अब वे परिवार कहां रह गये हैं जो नर रत्न, महामानव, देवपुरुष उत्पन्न करके दिखा सकें?
आज नारी बुरी तरह टूट गयी है और उसके फलस्वरूप परिवार संस्था भी टूट रही है फिर यह कैसे संभव हो सकता है कि उसके आश्रय में रहने वाले स्वर्गीय सुख शांति का रस चख सकें? जब सांचा ही बिगड़ गया है तो उसमें ढल कर निकलने वाले देवमानवों का दर्शन कैसे हो?
हमारे हर परिवार को सज्जनता, सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों का अभ्यास कराने वाली एक प्रयोगशाला के रूप में तैयार होना चाहिए। घर का वातावरण ऐसा बनना चाहिए जिसमें रहकर हर व्यक्ति क्रमशः अधिक अच्छे संस्कारों वाला बनता चला जाय। सम्पन्नता के बिना काम चल सकता है, पर सज्जनता के बिना तो केवल दुर्गति ही हाथ रह जाती है। बहुत कीमती कपड़े और जेवर भले ही न हों, कीमती भोजन भले न मिले, लेकिन परिवार में ईमानदारी उदारता जैसे आवश्यक सद्गुणों की सम्पत्ति अधिक से अधिक मात्रा में बढ़ाते रहने का अवसर तो मिलना ही चाहिए। इतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि परिवार को सच्चे अर्थों में सुसंगठित बना लिया गया।
मनुष्य के लिए मनुष्यता ही सबसे बड़ी सम्पत्ति है। धन दौलत तो खेतों और कारखानों से कमायी जा सकती है, लेकिन मनुष्य की सच्ची दौलत, सच्चा धन—सद्गुणों की विभूतियां कमाने का सबसे अच्छा स्थान, श्रेष्ठ वातावरण वाला परिवार ही हो सकता है। मनुष्य का विकास इन्हीं गुणों के आधार पर होता है। मनुष्य का दृष्टिकोण विशाल होना चाहिए। जो अपने हीन स्वार्थों में ही फंसा रहता है वह छोटा—निकृष्ट व्यक्ति कहलाता है। जिसने अपनत्व के क्षेत्र को जितना बढ़ा लिया है, दूसरों के दुःखों को बांट लेने तथा अपने सुखों को बांट देने की प्रबल इच्छा जिसके अन्दर उमड़ती रहती है, वह महान, आत्मवान, दिव्य सम्पदाओं का धनी व्यक्ति कहलाता है। अपने अन्दर यह विशेषतायें पैदा करने की, बढ़ाने की साधना परिवार में रहकर बड़ी आसानी से की जा सकती है। परिवार जितना बड़ा हो, साधना उतनी ही अच्छे स्तर की हो सकती है। उसमें हर व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधा और अधिकार की उपेक्षा करके परिवार के सभी सदस्यों को एक दूसरे का सहयोग करना पड़ता है। उदार सहयोग का व्यवहारिक अभ्यास कुटुम्ब की पाठशाला में पढ़ना पड़ता है। सादगी, श्रमशीलता, व्यवस्था, सहानुभूति, मधुरता, स्वच्छता, सेवा, शिष्टता जैसे अनेकों सद्गुण सुव्यवस्थित परिवार के सदस्यों के स्वभाव में सहज ही सम्मिलित किये जा सकते हैं। छोटों को जो कुछ सिखाना है—जैसा बनाना है, वह बड़ों को उपदेश द्वारा नहीं स्वयं उस तरह का आचरण करके सिखाना पड़ता है। जहां इन सब बातों का ध्यान रखा जाता होगा वहां परिवार का हर सदस्य आत्म नियंत्रण, कर्तव्य पालन और व्यक्तित्व को परिष्कृत करने की दिशा में ही बढ़ता दिखेगा। यही वे सद्गुण हैं जिनके आधार पर मनुष्य अपने इच्छित लक्ष्य की ओर आगे बढ़े हैं और सफलता के उच्च शिखर पर पहुंचे हैं। यह सफलता किसी के व्यापार में अधिक धन कमा लेने और किसी ऊंचे पद पर पहुंच जाने से बढ़कर है कि कुटुम्ब के सदस्य प्रामाणिक एवं सम्माननीय समझे जावें।
संयुक्त परिवार से उसके हर सदस्य का हर दृष्टि से लाभ ही लाभ है। शरीर एक परिवार है। सब अंग सभी हिस्से मिलजुलकर रहते हैं तो सारा शरीर स्वस्थ और उपयोगी रहता है। अलग कटकर रहने में जो अंग अपना लाभ सोचेगा वह नुकसान ही उठावेगा, यह तथ्य स्पष्ट है। पर यह भी सत्य है कि समझदारी तो तभी है जब उसके पीछे आस्तिकता, उदारता और कर्तव्य पालन में सन्तोष करने जैसे उत्कृष्ट भावनात्मक तत्व काम कर रहे हों। यह गुण उसी में हो सकते हैं जिसका संस्कारवान परिवार में हुआ हो। परिवार का सूत्र संचालन विशेष रूप से नारी के हाथ में रहता है। सारे दिन मिनट-मिनट पर उठने वाली समस्याएं उसी को हल करनी पड़ती हैं। यदि वह सुसंस्कृत है तो घर में देव मन्दिर जैसी मन को लुभा लेने वाली स्थिति तो बनी रहेगी, साथ ही परिवार के हर सदस्य के हृदय में उल्लास भी भरा रहेगा।
परिवार एक प्रयोगशाला है उसमें रहने वाले सभी सदस्य अपने गुण, कर्म तथा स्वभाव को बढ़िया से बनाने का प्रयोग और प्रयत्न करते हैं। अकेला मनुष्य अधिक स्वार्थी और अधिक उच्छृंखल हो सकता है, पर जिन्हें मिलजुलकर साथ रहना और एक दूसरे की सुख सुविधा का, कठिनाई एवं आवश्यकता का ध्यान रखना है, उन्हें स्वभावतः अपने ऊपर अधिक अंकुश रखना पड़ता है—संयमशीलता का, अनुशासन का पाठ पढ़ना पड़ता है।
यहां यह बात समझ ली जाय, कि कहीं भी एक साथ रहने वाले मनुष्यों के झुंड को परिवार नहीं कहा जा सकता। जैसे किसी मजबूरी के कारण भेड़े एक बाड़े में बन्द रहती हैं, उसी तरह कुछ मनुष्य किसी घर में एक दूसरे से उदासीन—बेरुखे से होकर बने रहें, तो उसे परिवार कह भले लें—लेकिन है वह सिर्फ प्राण हीन ढांचा! परिवार का प्राण तो पारिवारिक भावना है। उसमें हर सदस्य एक दूसरे के प्रति स्नेह और कृतज्ञता के भाव रखता है, उदारता और सहयोग का व्यवहार करता है, संयुक्त परिवार के एक अंग के रूप में अपनी जिम्मेदारी समझता है, और अपने कर्तव्यों को पूरा करता है। ऐसा परिवार एक छोटे, लेकिन व्यवस्थित राष्ट्र की तरह शानदार होता है। उसका हर सदस्य उस व्यवस्था का लाभ उठाता रहता है।
परिवार की प्रयोगशाला में ऐसा वातावरण बनना चाहिए जिसके सदस्य को जीवन—विकास का पूरा-पूरा मौका मिले। उसमें सिर्फ भौतिक ही नहीं आत्मविकास का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। यह प्रयास नर नारी द्वारा मिले-जुले रूप से करने पर हो सकता है। पुरुष की भूमिका उसमें नारी के मुकाबले कम ही है, अतः अकेला तो वह उसे पूरा कर ही नहीं सकता।
ऐसे परिवारों के गठन में सबसे बड़ी रुकावट नारी का पिछड़ापन है। लम्बे समय तक प्रतिबंधों की जकड़ के कारण नारी शरीर से कमजोर हो गयी है, और मानसिक तथा आत्मिक स्तर पर तो जैसे कुचल कर ही रख दी गयी है। इसका फल यह हुआ है कि वह बहुत छोटे दायरे में सोच पाती है। इसलिए उसे अपने परिवार के सदस्य ही पराये जैसे लगते हैं। उनके साथ वह तुनक मिजाज ही बनी रहती है, सहयोग न ले पाती है और न दे पाती है। इसलिए छोटी सी बातों पर कलह मचता रहता है। यह कहावत बन गयी है कि नारी के ओछेपन से बने घर भी बिगड़ जाते हैं। लेकिन यह बात ध्यान में रखी जाय कि नारी स्वभाव से ऐसी नहीं है, यह तो उसके ऊपर थोपे गये पिछड़ेपन का अभिशाप है।
प्रगति के लिए लोग धन वैभव को मुख्य आधार मान लेते हैं यह गलती है। धन सम्पत्ति प्रगति के कारण भी बन सकते हैं और दुर्गति के भी। हाथी ढेरों काम भी कर सकता है और भयानक बर्बादी भी। धन वैभव अगर श्रेष्ठ आदर्शों से जुड़कर रहे तो कल्याण कर सकता है, नहीं तो उल्टी विपत्ति खड़ी कर सकता है। धन वैभव तो मनुष्य की प्रतिभा की देन है। प्रतिभा जड़ है तो धन वैभव टहनियां और पत्ते। प्रतिभायें ही इन सबको बनाने वाली है।
लेकिन ध्यान रहे कि प्रतिभायें हाड़ मांस या तन्तुओं और कोषों से नहीं गुण, कर्म, स्वभाव से पैदा होती है। इसके लिए बहुत लम्बे समय तक संस्कार देने पड़ते हैं। लम्बे समय तक लगातार श्रेष्ठ संस्कार दे सकना नारी के लिए ही संभव है। बच्चों पर तो माता के शरीर और तन की स्थिति का सीधा असर पड़ता ही है, लेकिन परिवार के दूसरे सदस्य भी उससे प्रभावित नहीं होते। उन्हें भी उत्थान और पतन की दिशा में प्रेरणा बहुत अंश में नारी से ही मिलती है।
नारी के पुनरुत्थान के लिए विशेष ध्यान देना हमारे लिए दो दृष्टियों से उचित और आवश्यक है। एक तो नारी के साथ अब तक जो अनीति बरती गई है, उसका प्रायश्चित किया जाना चाहिए। दूसरे उसके माध्यम से हम सारी मनुष्यता की उन्नति के नये रास्ते खोल सकते हैं। नारी के विकास से सबका हित जुड़ा है। औसत आदमी, नौकरी और काम-धन्धे के सिलसिले में लगभग दस घण्टे बाहर रहता है, बाकी चौदह घण्टे घर में ही बिताता है यदि उसके इस समय का अच्छा उपयोग हो उसे उचित मात्रा में आराम, मनोरंजन, स्नेह, सहयोग और उल्लास मिले तो वह अधिक स्वस्थ, अधिक प्रसन्न, अधिक शक्तिशाली और अधिक क्रियाशील हो सकता है। इसकी जगह अगर मनमुटाव, असन्तोष, फूहड़पन द्वेष, ईर्ष्या के वातावरण में रहना पड़े तो उसे साक्षात नर्क के दर्शन होते रहेंगे। इस नर्क की आग में जिन्दगी का अधिकांश रस तो समाप्त ही हो जाता है। इसलिए व्यक्ति और परिवार के हित की दृष्टि से भी नारी का विकास जरूरी है।
नारी का अर्थ है संसार की आधी जनसंख्या। नारी के पिछड़ेपन की समस्या अपने देश की ही नहीं समस्त विश्व की, समूची जाति की समस्या है उसे सुलझाने के लिए इतना बड़ा आन्दोलन खड़ा करना पड़ेगा, जिसका विस्तार और स्वरूप आज तो कल्पना में भी नहीं आता। यह जरूरी नहीं कि हर आन्दोलन का स्वरूप विरोध प्रदर्शन, विद्रोह या उत्तेजना भरा ही हो रेडक्रास किण्डर-गार्टन, स्काउट, श्रमदान, भूदान, हरित-क्रान्ति, साक्षरता आन्दोलन, वृक्षारोपण, सहकारिता, स्वच्छता अभियान, बचत-योजना, परिवार नियोजन आदि अनेक अभियान ऐसे हैं जिनमें घृणा, आक्रोश आदि उत्पन्न नहीं करने पड़ते बल्कि करुणा और सहृदयता ही उभरती है। साथ ही चिंतनात्मक कार्यों में अनेकों को संलग्न रहना पड़ता है। अपनी युगनिर्माण योजना पिछले 27 वर्षों से इसी आधार पर चल रही है। लोकमानस के परिष्कार तथा रचनात्मक प्रवृत्तियों में उत्साह जगाया गया है। इस दिशा में लाखों व्यक्ति जुटाये गये हैं। महिला जागरण अभियान इन सभी सृजनात्मक आन्दोलनों से अधिक बड़ा है। संसार की आधी जनता को पिछड़ेपन के गड्ढे से निकालकर उन्नति के शिखर पर पहुंचाने का कार्य जितना महान है उसी हिसाब से इसमें जागृत आत्मा के ठोस सहयोग और बड़ी मात्रा में साधनों की आवश्यकता पड़ेगी। इन्हें जुटाने में सबसे पहला योगदान हमारा ही होना चाहिए। इस महायज्ञ में पहली आहुति हमारी ओर से ही पड़नी चाहिए।
लोहे और सोने की दोनों ही जंजीरों से नारी को मुक्ति मिलनी चाहिए। उसे ईश्वर से प्रदत्त अपनी विशेषताओं को विकसित कर सकने का अवसर मिलना चाहिए, जिससे वह सच्चे अर्थों में देवी बन सके और अपने कार्यक्षेत्र को देवत्व के वरदानों से भर दे। यह कार्य जादू की छड़ी घुमाने से नहीं होगा। इसके लिए भारी प्रयत्न करने होंगे। कितनी ही प्रतिभाओं को अपने आपको होम देने का साहस करना होगा, अब तक नारी समस्या को हलकी फुलकी माना जाता रहा है, और ऐसे ही उथले प्रचार, पुस्तकों तक ही सुधार कार्य सीमित रहता रहा है। अब समय ने ठोस कार्य करने का आह्वान किया है। युग की चुनौती स्वीकार करने के लिए हममें से बहुतों को साहसपूर्वक आगे आना चाहिए।
इसके लिए आवश्यक है कि कुछ लोग अपने आपको पूरी तरह उसी में खपा दें, उसी के लिए सोंचे और उसी के लिए करें। यह एकाग्रता चमत्कारी परिणाम उत्पन्न कर सकती हैं। पिछले दिनों कुछ ऐसे महामानव हुए हैं जिन्होंने अपना जीवन नारी उत्कर्ष के लिए ही लगा दिया। महर्षि कर्वे का नाम इस क्षेत्र में बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता रहेगा। उन्होंने इसी एक समस्या पर सोचा और एकनिष्ठ भाव से उसी के समाधान में लगे रहे। राजा राममोहन राय ईश्वरचंद विद्यासागर—हीरालाल शास्त्री जैसी आत्माओं के प्रति अपनी पीढ़ी सदा कृतज्ञ रहेगी जिन्होंने नारी जागरण को अपने युग की सबसे बड़ी समस्या माना और उसी के हल करने में सारी शक्ति लगा दी। महिलाओं में आम्रपाली, संघमित्रा, मीरा जैसी कितनी ही नारी जागरण का काम करती रही हैं। झांसी वाली लक्ष्मीबाई ने महिलाओं की एक पराक्रमी सेना खड़ी की थी। आजाद हिन्द फौज वाली लक्ष्मी बाई की लक्ष्मी ब्रिगेड ने भी बड़ा काम किया था।
धुन के धनी व्यक्ति जिस भी काम में लग जाते हैं, उसे सफलता की चोटी तक पहुंचा कर रहते हैं। इस काम में महिला वर्ग को तो आगे आना ही चाहिए, लेकिन भावनाशील पुरुष वर्ग भी पीछे न रहे। नारी का मातृत्व उन्हें पुकारता है। नारी की कीमत जो समझते हैं, और जिनकी कलाइयों में ताकत है, उनके लिए विश्व नारी ने राखी भेजी है, अपने उद्धार में योगदान मांगने के लिए बहन ने भाई के आगे आंचल फैलाया है। क्या उसे निराश कर दिया जायेगा? क्या पौरुष अपनी भूमिका भुला देगा? नहीं जहां पुरुषार्थ जिन्दा है वहां इस दिशा में तुरन्त सक्रियता दिखाई देगी।
महिलाओं में से अनेकों के पास बहुत समय रहता है। साधनों की भी कमी नहीं है। कमी है तो एकमात्र प्रबल इच्छा की। यदि वे चाहें तो अपनी आत्मा को समस्त नारी जाति से जुड़ा हुआ देख सकती है। अपने निज के लिए जो सोचती है, सारे नारी समाज के लिए सोच सकती है। लगन हो तो गृहस्थ की जिम्मेदारी होते हुए भी बहुत कुछ किया जा सकता है। जिनके ऊपर गृहस्थ की जिम्मेदारियां नहीं हैं वे प्रौढ़ महिलाएं—विधवाएं परित्यक्ताएं, निःसंतान—सधवाएं उनके लिए बड़ा। शानदार और सौभाग्य से भरा अवसर सामने है। वे नारी उत्कर्ष में अपना समय और साधन लगाकर वर्तमान स्थिति की तुलना में कहीं अधिक गौरव और शान्ति पा सकती है। कुमारियां इस अवसर को पहचान सकें तो अपना थोड़ा या अधिकांश पूरा समय इस पुण्य कार्य में लगाकर अपनी प्रतिभा को सार्थक बना सकती है।
विचारशील वर्ग में से जो जिस स्थिति में है उसी में यह देखें कि वे नारी उत्कर्ष के लिए क्या कर सकते हैं जिनके पास जो साधन हैं वे उन्हीं को लेकर नव जागरण के यज्ञ में अपनी आहुतियां प्रस्तुत करें। गिरि गोवर्धन उठाने में ग्वाल बालों ने सहयोग दिया था, संस्कृति की सीता वापस लाने के लिए रीछ बानर अपने प्राण हथेली पर रखकर आगे आये थे। इन स्वल्प साधन वालों ने भी अपने भाव भरे अनुदान देकर युग का आमन्त्रण स्वीकार किया था और अपने को धन्य बनाया था। आवश्यकता आज भी वैसे ही है प्रत्येक भावनाशील नर नारी का सहयोग इस पूर्ण प्रयोजन के लिए मिलना ही चाहिए और इसमें एक क्षण का भी विलम्ब नहीं होना चाहिए।
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*समाप्त*

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