''नायमात्मा प्रवचनेन लभ्योः न मेधया न बहुना श्रुतेन''
शास्त्र कहता है कि यह आत्मा प्रवचन, बुद्धि या बहुत सुनने से प्राप्त नहीं होती।
प्रथम अध्याय को समझ लेने के बाद तुम्हें इच्छा हुई होगी कि उस आत्मा का दर्शन करना चाहिए, जिसे देख लेने के बाद और कुछ देखना बाकी नहीं रह जाता। यह इच्छा स्वाभाविक है। शरीर और आत्मा का गठबन्धन कुछ ऐसा ही है, जिसमें जरा अधिक ध्यान से देखने पर वास्तविकता झलक जाती है। शरीर भौतिक स्थूल पदार्थों से बना हुआ है, किन्तु आत्मा सूक्ष्म है। पानी में तेल डालने पर वह ऊपर को ही आने का प्रयत्न करेगा क्योंकि तेल और लकड़ी के परमाणु पानी की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म हैं। गर्मी ऊपर को उठती है, अग्नि की लपटें ऊपर को ही उठेंगी। पृथ्वी की आकर्षक शक्ति और वायु का दबाव उसे रोक नहीं सकता है। आत्मा शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म है, इसलिए वह इसमें बँधी हुई होते हुए भी इसमें पूरी तरह घुल-मिल जाने की अपेक्षा ऊपर उठने की कोशिश करती रहती है। लोग कहते हैं कि इन्द्रियों के भोग हमें अपनी ओर खींचे रहते हैं, पर यह बात सत्य नहीं है। सत्य के दर्शन कर सकने के योग्य सुविधा और शिक्षा प्राप्त न होने पर झकमारकर अपनी आन्तरिक प्यास को बुझाने के लिए मनुष्य विषय भोगों की कीचड़ पीता है।
यदि उसे एक बार भी आत्मानन्द का चस्का लग जाता तो दर-दर पर क्यों धक्के खाता फिरता? हम जानते हैं कि इन पंक्तियों को पढ़ते समय तुम्हारा चित्त वैसी ही उत्सुकता और प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है, जैसी बहुत दिनों से बिछुड़ा हुआ परदेशी अपने घर-कुटुम्ब के समाचार सुनने के लिए आतुर होता है। यह एक मजबूत प्रमाण है, जिससे सिद्ध होता है कि मनुष्य की आन्तरिक इच्छा आत्म-स्वरूप देखने की बनी रहती है। शरीर में रहता हुआ भी वह उसमें घुलमिल नहीं सकता, वरन् उचक-उचक कर अपनी खोई हुई किसी चीज को तलाश करता है। बस, वह स्थान जहाँ भटकता है, यही है। उसे यह याद नहीं आता कि मैं क्या चीज ढूँढ़ रहा हूँ? मेरा कुछ खो गया है, इसका अनुभव करता है। खोई हुई वस्तु के अभाव में दुःख पाता है, किन्तु माया-जाल के पर्दे से छिपी हुई चीज को नहीं जान पाता। चित्त बड़ा चंचल है, घड़ी भर भी एक जगह नहीं ठहरता। इसकी सब लोग शिकायत करते हैं, परन्तु कारण नहीं जानते कि मन इतना चंचल क्यों हो रहा है? कस्तूरी मृग कोई अद्भुत गन्ध पाता है और उसके पास पहुँचने के लिए दिन-रात चारों ओर दौड़ता रहता है। क्षण भर भी उसे विश्राम नहीं मिलता। यही हाल मन का है। यदि वह समझ जाय कि कस्तूरी मेरी नाभि में रखी हुई है, तो वह कितना आनन्द प्राप्त कर सके और सारी चंचलता भूल जाय।
आत्म-दर्शन का मतलब अपनी, सत्ता, शक्ति और साधनों का ठीक-ठीक स्वरूप मानस पटल पर इतनी गहराई के साथ अंकित कर लेना है कि वह दिन भर जीवन में कभी भी भुलाया न जा सके। तोता-रटन्त विद्या में तुम बहुत प्रवीण हो सकते हो। इस पुस्तक में जितना कुछ लिखा है, उससे दस गुना ज्ञान तुम सुना सकते हो, बड़े-बड़े तर्क उपस्थित कर सकते हो। शास्त्रीय बारीकियाँ निकाल सकते हो। परन्तु यह बातें आत्म-मंदिर के फाटक तक ही जाती हैं, इससे आगे इनकी गति नहीं है। रट्टू तोता पण्डित नहीं बन सकता। शास्त्र ने स्पष्ट कर दिया है कि 'यह आत्मा उपदेश, बुद्धि या बहुत सुनने से प्राप्त नहीं हो सकता।' अब तक तुम इतना सुन चुके हो, जितना अधिकारी भेद के कारण आम लोगों को भ्रम में डाल देता है। आज हम तुम्हारे साथ कोई बहस करने उपस्थित नहीं हुए हैं। यदि तुम्हें यह विषय रुचिकर हो और आत्म-दर्शन की लालसा हो, तो हमारे साथ चले आओ, अन्यथा अपना मूल्यवान समय नष्ट मत करो।
आत्म-दर्शन की सीढ़ियों पर चढ़ने से पहले सर्वप्रथम समतल भूमि पर पहुँचना होगा। जहाँ आज तुम भटक रहे हो, वहाँ से लौट आओ और उसी भूमि पर स्थित हो जाओ, जिसे प्रवेश द्वार कहते हैं। मानलो कि तुमने अपने अन्य सब ज्ञानों को भुला दिया है और नये सिरे से किसी पाठशाला में भर्ती होकर क, ख, ग सीख रहे हो। इसमें अपमान मत समझो। तुम्हारा अब तक का ज्ञान झूँठा नहीं है। तुम उर्दू खूब पढ़े हो और यदि हिन्दी द्वारा भी लाभ प्राप्त करना चाहो, तो एकदम उसका दर्शन-शास्त्र नहीं पढ़ने लगोगे, वरन् वर्णमाला ही से आरम्भ करोगे। हम अपने आदणीय और ज्ञानी जिज्ञासुओं की पीठ थपथपाते हुए दो कदम पीछे लौटने को कहते हैं, क्योंकि ऐसा करने से प्रथम सीढ़ी पर पाँव रख सकेंगे और आसानी एवं तीव्र गति से ऊपर चढ़ेंगे।
तुम्हें विचार करना चाहिए कि जब मैं कहता हूँ कि 'मैं' तब उसका क्या अभिप्राय होता है? पशु, पक्षी तथा अन्य अविकसित प्राणियों में यह 'मैं' की भावना नहीं होती। भौतिक सुख-दुख का तो वे अनुभव करते हैं, किन्तु अपने बारे में कुछ अधिक नहीं सोच सकते। गधा नहीं जानता कि मुझ पर किस कारण बोझ लादा जाता है? लादने वाले के साथ मेरा क्या सम्बन्ध है? मैं किस प्रकार अन्याय का शिकार बनाया जा रहा हूँ? वह अधिक बोझ लद जाने पर कष्ट का और हरी घास मिल जाने पर शांति का अनुभव करता है, पर हमारी तरह सोच नहीं सकता। इन जीवों में शरीर ही आत्म-स्वरूप है। क्रमशः अपना विकास करते-करते मनुष्य आगे बढ़ आया है। फिर भी कितने मनुष्य हैं, जो आत्म-स्वरूप को जानते हैं? तोता रटन्त दूसरी बात है। लोग आत्म-ज्ञान की कुछ चर्चा को सुनकर उसे मस्तिष्क में रिकार्ड की तरह भर लेते हैं और समयानुसार उसमें से कुछ सुना देते हैं। ऐसे आदमियों की कमी नहीं, जो आत्मा के बारे में कुछ नहीं जानते। इनमें सोचने-विचारने की शक्ति चुक गई है। उनका संसार आहार, निद्रा, भय, मैथुन, क्रोध, लोभ, मोह आदि तक ही सीमित होता है। इन्हीं समस्याओं को सोचने, समझने और हल करने लायक योग्यता उन्होंने प्राप्त की होती है।
मूढ़ मनुष्य भद्दे भोगों से तृप्त हो जाते हैं, तो बुद्घिमान कहलाने वाले उनमें सुन्दरता लाने की कोशिश करते हैं। मजदूर को बैलगाड़ी में बैठकर जाना सौभाग्य प्रतीत होता हैं तो धनवान मोटर में बैठकर अपनी बुद्घिमानी पर प्रसन्न होता है। बात एक ही है। बुद्घि का जो विकास हुआ है, वह भोग सामग्री को उन्नत बनाने में हुआ है। समाज के अधिकांश सभ्य नागरिकों के लिए वास्तव में शरीर ही आत्म-स्वरूप है। धार्मिक रूढ़ियों का पालन मन-सन्तोष के लिए वे करते रहते हैं, पर उससे आत्म-ज्ञान का कोई सम्बन्ध नहीं। लड़की के विवाह में दहेज देना पुण्य कर्म समझा जाता है। पर ऐसे पुण्य कर्मों से ही, कौन मनुष्य अपने उद्देश्य तक पहुँच सकता है? यज्ञ, तप, ज्ञान, सांसारिक धर्म में लोक-जीवन और समाज-व्यवस्था के लिए उन्हें करते रहना धर्म है,। पर इससे आत्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। आत्मा इतनी सूक्ष्म है कि रूपया, पैसा, पूजा-पत्री, दान, मान आदि बाहरी वस्तुएँ उस तक नहीं पहुँच पातीं। फिर इनके द्वारा उसकी प्राप्ति कैसे हो सकती है?
आत्मा के पास तक पहुँचने के साधन जो हमारे पास मौजूद हैं, वह चित्त, अन्तःकरण, मन, बुद्घि आदि ही हैं। आत्म दर्शन की साधना इन्हीं के द्वारा हो सकती है। शरीर में सर्वत्र आत्मा व्याप्त है। कोई विशेष स्थान इसके लिए नियुक्त नहीं है, जिस पर किसी साधन विशेष का उपयोग किया जाय। जिस प्रकार आत्मा की आराधना करने में मन, बुद्घि आदि ही समर्थ हो सकते हैं, उसी प्रकार उसके स्थान और स्वरूप का दर्शन मानस लोक में प्रवेश करने से हो सकता है। मानसिक लोक भी स्थूल लोक की तरह ही है। उसमें इसी बाहरी दुनियाँ की ही अधिकांश छाया है। अभी हम कलकत्ते का विचार कर रहे हैं, अभी हिमालय पहाड़ की सैर करने लगे। अभी जिनका विचार किया था, वह स्थूल कलकत्ता और हिमालय नहीं थे, वरन् मानस लोक में स्थित उनकी छाया थी, यह छाया असत्य नहीं होती। पदार्थों का सच्चा अस्तित्व हुए बिना कोई कल्पना नहीं हो सकती। इस मानस लोक को भ्रम नहीं समझना चाहिए। यही वह सूक्ष्म चेतना है, जिसकी सहायता से दुनियाँ के सारे काम चल रहे हैं। एक दुकानदार जिसे परदेश से माल खरीदने जाना है, वह पहले उस परदेश की यात्रा मानसलोक में करता है और मार्ग की कठिनाइयों को देख लेता है, तदनुसार उन्हें दूर करने का प्रबन्ध करता है। उच्च आध्यात्मिक चेतनाएँ मानसलोक से आती हैं। किसी के मन में क्या भाव उपज रहे हैं, कौन हमारे प्रति क्या सोचता है, कौन सम्बन्धी कैसी दशा में है आदि बातों को मानसलोक में प्रवेश करके हम अस्सी फीसदी ठीक-ठीक जान लेते हैं। यह तो साधारण लोगों के काम-काज की मोटी-मोटी बातें हुईं। लोग भविष्य को जान लेते हैं, भूतकाल का हाल बताते हैं, परोक्ष ज्ञान रखते हैं। ईश्वरीय सब चेतनाएँ मानस लोक में ही आती हैं। उन्हें ग्रहण करके जीभ द्वारा प्रगट कर दिया जाता है। यदि यह मानसिक इन्द्रियाँ न हुई होतीं तो मनुष्य बिल्कुल वैसा ही चलता-फिरता हुआ पुतला होता जैसे यांत्रिक मनुष्य विज्ञान की सहायता से योरोप और अमेरिका में बनाये गये हैं। दस सेर मिट्टी और बीस सेर पानी के बने हुए इस पुतले की आत्मा और सूक्ष्म जगत से सम्बन्ध जोड़ने वाली चेतना यह मानस-लोक ही समझनी चाहिए।
अब हमारा प्रयत्न यह होगा कि मानसिक लोक में प्रवेश कर चलो और वहाँ बुद्घि के दिव्य चक्षुओं द्वारा आत्मा का दर्शन और अनुभव करो। यही एक मार्ग दुनियाँ के सम्पूर्ण साधकों का है। तत्त्व दर्शन मानस लोक में प्रवेश करके बुद्घि की सहायता द्वारा ही होता है। इसके अतिरिक्त आज तक किसी ने कोई और मार्ग अभी तक नहीं खोज पाया है। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ही योग की उच्च सीढ़ियाँ हैं। आध्यात्मिक साधक, योगी, यम, नियम, आसन, प्राणायाम अनेक प्रकार की क्रियाएँ करते हें। हठ योगी नेति, धोति, वस्ति, वज्रोली आदि करते हैं। अन्य मतावलम्बियों की साधनाएँ अन्य प्रकार की हैं। यह सब शारीरिक कठिनाइयों को दूर करने के लिए हैं। शरीर को स्वस्थ रखना इसलिए जरूरी समझा जाता है कि मानसिक अभ्यासों में गड़बड़ न पड़े। हम अपने साधकों को स्वस्थ शरीर रखने का उपदेश करते हैं। आज की परिस्थितियों में उन उग्र शारीरिक व्यायामों की नकल करने में हमें कोई विशेष लाभ प्रतीत नहीं होता। धुएँ से भरे हुए शहरी वायुमण्डल में रहने वाले व्यक्ति को उग्र प्राणायाम करने की शिक्षा देना उसके साथ अन्याय करना है। फल और मेवे खाकर पर्वत प्रदेशीय नदियों का अमृत जल पीने वाले और इन्द्रिय भोगों से दूर रहने वाले स्वस्थ साधक हठ योग के जिन कठोर व्यायामों को करते हैं, उनकी नकल करने के लिए यदि तुमसे कहें, तो हम एक प्रकार का पाप करेंगे और बिना वास्तविकता को जाने उन शारीरिक तपों में उलझने वाले साधक उस मेढकी का उदाहरण बनेंगे जो घोड़ों को नाल ठुकवाते देखकर आपे से बाहर हो गई थी और अपने पैरों में भी वैसी ही कील ठुकवा कर मर गई थी। स्वस्थ रहने के साधारण नियमों को सब लोग जानते हैं। उन्हें ही कठोरतापूर्वक पालन करना चाहिए। यदि कोई रोग हो तो किसी कुशल चिकित्सक से इलाज कराना चाहिए। इस सम्बन्ध में एक स्वतंत्र पुस्तक हम भी प्रकाशित करेंगे। पर इस साधन के लिए किसी ऐसी शारीरिक योग्यता की आवश्यकता नहीं है, जिसका साधन चिरकाल में पूरा हो सकता हो। स्वस्थ रहो, प्रसन्न रहो, बस इतना ही काफी है।
अच्छा चलो, अब साधना की ओर चलें। किसी एकान्त स्थान की तलाश करो। जहाँ किसी प्रकार के भय या आकर्षण की वस्तुएँ न हों, यह स्थान उत्तम है! यद्यपि पूर्ण एकान्त के आदर्श स्थान सदैव प्राप्त नहीं होते तथापि जहाँ तक हो सके निर्जन और कोलाहल रहित स्थान तलाश करना चाहिए। इस कार्य के लिए नित नये स्थान बदलने की अपेक्षा एक जगह नियत कर लेना अच्छा है। वन, पर्वत, नदी तट आदि की सुविधा न हो, तो एक छोटा-सा कमरा इसके लिए चुन लो, जहाँ तुम्हारा मन जुट जाये। इस तरह बैठो जिससे नाड़ियों पर तनाव पड़े। अकड़कर, छाती या गरदन फुलाकर, हाथों को मरोड़कर या पाँवों को ऐंठकर एक-दूसरे के ऊपर चढ़ाते हुए बैठने के लिए हम नहीं कहेंगे, क्योंकि इन अवस्थाओं में शरीर को कष्ट होगा और वह अपनी पीड़ा की पुकार बार-बार मन तक पहुँचाकर उसे उचटने के लिए विवश करेगा। शरीर को बिल्कुल ढीला शिथिल कर देना चाहिए, जिससे समस्त माँस पेशियाँ ढीली हो जावें और देह का प्रत्येक कण शिथिलता, शान्ति और विश्राम का अनुभव करे। इस प्रकार बैठने के लिए आराम कुर्सी बहुत अच्छी चीज है। चारपाई पर लेट जाने से भी काम चल जाता है, पर सिर को कुछ ऊँचा रखना जरूरी है। मसनद, कपड़ों की गठरी या दीवार का सहारा लेकर भी बैठा जा सकता है। बैठने का कोई तरीका क्यों न हो, उसमें यही बात ध्यान रखने की है शरीर रुई की गठरी जैसा ढीला पड़ जावे, उसे अपनी साज सँभाल में जरा-सा भी प्रयत्न न करना पड़े। उस दशा में यदि समाधि चेतना आने लागे, तब शरीर के इधर-उधर लुढ़क पड़ने का भय न रहे। इस प्रकार बैठकर कुछ शरीर को विश्राम और मन को शान्ति का अनुभव करने दो। प्रारम्भिक समय में यह अभ्यास विशेष प्रयत्न के साथ करना पड़ता है। पीछे अभ्यास बढ़ जाने पर तो साधक जब चाहे तब शान्ति का अनुभव कर लेता है, चाहे वह कहीं भी और कैसी भी दशा में क्यों न हो। सावधान रहिए कि यह दशा तुमने स्वप्न देखने या कल्पना जगत में चाहे जहाँ उड़ जाने के लिए पैदा नहीं की है और न इसलिए कि इन्द्रिय विकार इस एकान्त वन में कबड्डी खेलने लगें। ध्यान रखिए अपनी इस ध्यानावस्था को भी काबू में रखना और इच्छानुवर्ती बनाना है। यह अवस्था इच्छापूर्वक किसी निश्चित कार्य पर लगाने के लिए पैदा की गई है। आगे चलकर यह ध्यानावस्था चेतना का एक अंग बन जाती है और फिर सदैव स्वयमेव बनी रहती है। तब उसे ध्यान द्वारा उत्पन्न नहीं करना पड़ता, वरन् भय, दुःख, क्लेश, आशंका, चिन्ता आदि के समय में बिना यत्न के ही वह जाग पड़ती हैं और साधक अनायास ही उन दुःख क्लेशों से बच जाता है।
हाँ, तो उपरोक्त ध्यानावस्था में होकर अपने सम्पूर्ण विचारों को 'मैं' के ऊपर इकट्ठा करो। किसी बाहरी वस्तु या किसी आदमी के सम्बन्ध में बिलकुल विचार मत करो। भावना करनी चाहिए कि मेरी आत्मा यथार्थ में एक स्वतंत्र पदार्थ है। वह अनन्त बल वाला अविनाशी और अखण्ड है। वह एक सूर्य है, जिसके इर्द-गिर्द हमारा संसार बराबर घूम रहा है, जैसे सूर्य के चारों ओर नक्षत्र आदि घूमते हैं। अपने को केन्द्र मानना चाहिए और सूर्य जैसा प्रकाशवान। इस भावना को बराबर लगातार अपने मानस लोक में प्रयत्न की कल्पना और रचना शक्ति के सहारे स्थिर करो। मानस लोक के आकाश में अपनी आत्मा को सूर्य रूप मानते हुए केन्द्र की तरह स्थित हो जाओ और आत्मा से अतिरिक्त अन्य सब चीजों को नक्षत्र तुल्य घूमती हुई देखो। वे मुझसे बँधी हुई हैं, मैं उनसे बँधा नहीं हूँ। अपनी शक्ति से मैं उनका संचालन कर रहा हूँ। फिर भी वे वस्तुएँ मेरी या मैं नहीं हूँ, लगातार परिश्रम के बाद कुछ दिनों में यह चेतना दृढ़ हो जायगी।
वह भावना झूँठी या काल्पनिक नहीं है। विश्व का हर एक जड़-चेतन परमाणु बराबर घूम रहा है। सूर्य के आस-पास पृथ्वी आदि ग्रह घूमते हैं और समस्त मण्डल एक अदृश्य चेतना की परिक्रमा करता रहता है। हृदयगत चेतना के कारण रक्त हमारे शरीर की परिक्रमा करता रहता है। शब्द, शक्ति, विचार या अन्य प्रकार के भौतिक परमाणुओं का धर्म परिक्रमा करते हुए आगे बढ़ना है। हमारे आस-पास की प्रकृति का यह स्वाभाविक धर्म अपना काम कर रहा है। हमसे भी जिन परमाणुओं का काम पड़ेगा वह स्वभावतः हमारी परिक्रमा करेंगे क्योंकि हम चेतना के केन्द्र हैं। इस बिल्कुल स्वाभाविक चेतना को भलीभाँति हृदयंगम कर लेने से तुम्हें अपने अन्दर एक विचित्र परिवर्तन मालूम पड़ेगा। ऐसा अनुभव होता हुआ प्रतीत होगा कि मैं चेतना का केन्द्र हूँ और मेरा संसार, मुझसे सम्बन्धित समस्त भौतिक पदार्थ मेरे इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। मकान, कपड़े, जेवर-धन, दौलत आदि मुझसे सम्बन्धित हैं, पर वह मुझमें व्याप्त नहीं, बिल्कुल अलग है। अपने को चेतना का केन्द्र समझने वाला, अपने को माया से सम्बन्धित मानता है, पर पानी में पड़े हुए कमल के पत्ते की तरह कुछ ऊँचा उठा रहता है, उसमें डूब नहीं जाता। जब वह अपने को तुच्छ, अशक्त और बँधे हुए जीव की अपेक्षा चेतन-सत्ता और प्रकाश-केन्द्र स्वीकार करता है, तो उसे उसी के अनुसार परिधान भी मिलते हैं। बच्चा जब बड़ा हो जाता है तो उसके छोटे कपड़े उतार दिये जाते हैं। अपने को हीन, नीच और शरीराभिमानी तुच्छ जीव जब तक समझोगे, तब तक उसी के लायक कपड़े मिलेंगे। लालच, भोगेच्छा, कामेच्छा, चाटुकारिता, स्वार्थपरता आदि गुण तुम्हें पहनने पड़ेंगे, पर जब अपने स्वरूप को महानतम अनुभव करोगे, तब यह कपड़े निरर्थक हो जायेंगे। छोटा बच्चा कपड़े पर टट्टी कर कर देने में कुछ बुराई नहीं समझता, किन्तु बड़ा होने पर वह ऐसा करने से घृणा करता है। कदाचित बीमारी की दशा में वह ऐसा कर भी बैठे, तो अपने को बड़ा धिक्कारता है और शर्मिन्दा होता है। नीच विचार, हीन भावनाएँ, पाशविक इच्छाएँ और क्षुद्र स्वार्थपरता ऐसे ही गुण हैं, जिन्हें देखकर आत्म-चेतना में विकसित हुआ मनुष्य घृणा करता है। उसे अपने आप वह गुण मिल गये होते हैं, जो उसके इस शरीर के लिए उपयुक्त हैं। उदारता, विशाल हृदयता, दया, सहानूभूति, सच्चाई प्रभृति गुण ही तब उसके लायक ठीक वस्त्र होते हैं। बड़ा होते ही मेढक की लम्बी पूँछ जैसे स्वयमेव झड़ पड़ती है, वैसे ही दुर्गुण उससे विदा होने लगते हैं और वयोवृद्घ हाथी के दाँत की तरह सद्गुण क्रमशः बढ़ते रहते हैं।
अपने को प्रकाश केन्द्र अनुभव करने के लिए तर्कों से काम न चलेगा, क्योंकि हमारे तर्क बहुत ही लंगड़े और अन्धे हैं। तर्कों के सहारे यह नहीं सिद्घ हो सकता कि वास्तव में वही हमारा पिता है, जिसे पिताजी कहकर सम्बोधन करते हैं। इसलिए योगाभ्यास के दैवी अनुष्ठान में इस अपाहिज तर्क का बहिष्कार करना पड़ता है और धारणा, ध्यान एवं समाधि को अपनाना पड़ता है। आत्म-स्वरूप के अनुभव में यह तर्क-वितर्क बाधक न बनें इसलिए कुछ देर के लिए इन्हें विदा कर दो। विश्वास रखो, इन पंक्तियों का लेखक तुम्हें भ्रम में फँसाने या कोई गलत हानिकारक साधन बताने नहीं जा रहा है। उसका निश्चित विश्वास है और वह शपथपूर्वक तुमसे कहता है कि हे मेरे ऊपर विश्वास रखने वाले साधक! यह ठीक रास्ता है। मेरा देखा हुआ है। आओ, पीछे-पीछे चले आओ, तुम्हें कहीं धकेला नहीं जायेगा, वरन् एक ठीक स्थान पर पहुँचा दिया जायगा। साधन की विधि- बार-बार ध्यानावस्थित होकर मानस-लोक में प्रवेश करो। अपने को सूर्य समान प्रकाशवान सत्ता के रूप में देखो और अपना संसार अपने आप-पास घूमता हुआ अनुभव करो। इस अभ्यास को लगातार जारी रखो और इसे हृदय पट पर गहरा अंकित कर लो तथा इस श्रेणी पर पहुँच जाओ कि जब तुम कहो कि 'मैं' तब उसके साथ ही चित्त में चेतना, विचार, शक्ति और प्रतिभा सहित केन्द्र स्वरूप चित्र भी जाग उठे। संसार पर जब दृष्टि डालो, तो वह आत्म-सूर्य की परिक्रमा करता नजर आवे।
उपरोक्त आत्म-स्वरूप दर्शन के साधन में शीध्रता होने के लिए तुम्हें हम एक और विधि बताते हैं। ध्यान की दशा में होकर अपने ही नाम को बार-बार, धीरे-धीरे, गम्भीरता और इच्छापूर्वक जपते जाओ। इस अभ्यास से मन आत्म-स्वरूप पर एकाग्र होने लगता है। लार्ड टेनिसन ने अपनी आत्म-शक्ति को इसी उपाय से जगाया था। वे लिखते हैं-''इसी उपाय से हमने कुछ आत्म-ज्ञान प्राप्त किया है। अपनी वास्तविकता और अमरता को जाना है एवं अपनी चेतना के मूल स्रोत का अनुभव कर लिया है।''
उपरोक्त भावना का तात्पर्य यह नहीं है कि तुम शरीर की उपेक्षा करने लगो। ऐसा करना तो अनर्थ होगा। शरीर को आत्मा का पवित्र मन्दिर समझो, उसकी सब प्रकार से रक्षा करना और सुदृढ़ बनाये रखना तुम्हारा परम पावन कर्तव्य है।
शरीर से पृथकत्व की भावना जब तक साधारण रहती है, तब तक तो साधक का मनोरंजन होता है, पर जैसे ही वह दृढ़ता को प्राप्त होती है, वैसे ही मृत्यु हो जाने जैसा अनुभव होने लगता है और वह वस्तुएँ दिखाई देने लगती हैं, जिन्हें हम साधना के स्थान पर बैठकर खुली आँखों से नहीं देख सकते। सूक्ष्म जगत की कुछ धुँधली झाँकी उस समय होती है और कोई परोक्ष बातें एवं दैवी दृश्य दिखाई देने लगते हैं। इस स्थिति में नये साधक डर जाते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि इसमें डरने की कोई बात नहीं है। केवल साधन में कुछ शीघ्रता हो गई है और पूर्व संस्कारों के कारण इस चेतना में जरा-सा झटका लगते ही वह अचानक जाग पड़ी है। इस श्रेणी तक पहुँचने में जब क्रमशः और धीरे-धीरे अभ्यास होता है, तो कुछ आश्चर्य नहीं होता। साधना की उच्च श्रेणी पर पहुँचकर अभ्यासी को वह योग्यता प्राप्त हो जाती है कि सचमुच शरीर के दायरे से ऊपर उठ जाय और उन वस्तुओं को देखने लगे, जो शरीर में रहते हुए नहीं देखी जा सकती थी। उस दशा में अभ्यासी शरीर से सम्बन्ध तोड़ नहीं देता। जैसे कोई आदमी कमरे की खिड़की में से गर्दन बाहर निकालकर देखता है कि बाहर कहाँ, क्या होता है और फिर इच्छानुसार सिर को भीतर कर लेता है, यही बात इस दशा में भी होती है। नये दीक्षितों को हम अभी यह अनुभव जगाने की सम्मति नहीं देते, ऐसा करना क्रम का उल्लंघन करना होगा। समयानुसार हम परोक्ष दर्शन की भी शिक्षा देंगे। इस समय तो थोड़ा सा उल्लेख इसलिए करना पड़ा है कि कदाचित् किसी को स्वयमेव ऐसी चेतना आने लगे, तो उसे घबराना या डरना न चाहिए।
जीव के अमर होने के सिद्घांत को अधिकांश लोग विश्वास के आधार पर स्वीकार कर लेते हैं। उन्हें यह जानना चाहिए कि यह बात कपोल कल्पित नहीं है वरन् स्वयं जीव द्वारा अनुभव में आकर सिद्घ हो सकती है। तुम ध्यानावास्थित होकर ऐसी कल्पना करो कि 'हम' मर गये। कहने-सुनने में यह बात साधारण सी मालूम देती है। जो साधक पिछले पृष्ठों में दी हुई लम्बी-चौड़ी भावनाओं का अभ्यास करते हैं, उनके लिए यह छोटी कल्पना कुछ कठिन प्रतीत न होनी चाहिए, पर जब तुम इसे करने बैठोगे, तो यही कहोगे कि यह नहीं हो सकती। ऐसी कल्पना करना असम्भव है। तुम शरीर के मर जाने की कल्पना कर सकते हो, पर साथ ही यह पता रहेगा कि तुम्हारा 'मैं' नहीं मरा है वरन् वह दूर खड़ा हुआ मृत शरीर को देख रहा है। इस प्रकार पता चलेगा कि किसी भी प्रकार अपने 'मैं' के मर जाने की कल्पना नहीं कर सकते। विचार बुद्घि हठ करती है कि आत्मा मर नहीं सकती। उसे जीव के अमरत्व पर पूर्ण विश्वास है और चाहे जितना प्रयत्न किया जाय, वह अपने अनुभव के त्याग के लिए उद्यत नहीं होगी। कोई आघात लगकर या क्लोरोफार्म सूँघ कर बेहोश हो जाने पर भी 'मैं' जागता रहता है। यदि ऐसा न होता तो उसे जागने पर यह ज्ञान कैसे होता कि मैं इतनी देर बेहोश पड़ा रहा हूँ, बेहोशी और निद्रा की कल्पना हो सकती है पर जब 'मैं' की मृत्यु का प्रश्न आता है, तो चारों ओर अस्वीकृत की ही प्रतिध्वनि गूँजती है। कितने हर्ष की बात है कि जीव अपने अमर और अखण्ड होने का प्रमाण अपने ही अन्दर दृढ़तापूर्वक धारण किए हुए है।
अपने को अमर, अखण्ड, अविनाशी और भौतिक संवेदनाओं से परे समझना, आत्म-स्वरूप दर्शन का आवश्यक अंग है। इसकी अनुभूति हुए बिना सच्चा आत्म-विश्वास नहीं होता और जीव बराबर अपनी चिरसेवित तुच्छता की भूमिका में फिसल पड़ता है, जिससे अभ्यास का सारा प्रयत्न गुड़-गोबर हो जाता है। इसलिए एकाग्रता पूर्वक अच्छी तरह अनुभव करो कि मैं अविनाशी हूँ। अच्छी तरह इसे अनुभव में लाये बिना आगे मत बढ़ो। जब आगे बढ़ने लगो, तब भी कभी-कभी लौटकर अपने इस स्वरूप का फिर निरीक्षण कर लो। यह भावना आत्म-स्वरूप के साक्षात्कार में बड़ी सहायता देगी। आगे वह परीक्षण बताये जाते हैं, जिनके द्वारा अपने ''अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयम ल्केद्योऽशोष्य एवच। नित्यः सर्वगतस्याणुचलोऽयं सनातनः॥'' (गीता २.२४) को अनुभव कर सको।
कुछ जिज्ञासु आत्म-स्वरूप का ध्यान करते समय 'मैं' को शरीर के साथ जोड़कर गलत धारणा कर लेते हैं और साधन करने में गड़बड़ा जाते हैं। इस विघ्न को दूर कर देना आवश्यक है अन्यथा इस पंचभूत शरीर को आत्मा समझ बैठने पर तो एक अत्यन्त नीच कोटि का थोड़ा सा फल प्राप्त हो सकेगा।
इस विघ्न को दूर करने के लिए ध्यानावस्थित होकर ऐसी भावना करो कि मैं शरीर से पृथक् हूँ। उसका उपयोग वस्त्र या औजार की तरह करता हूँ। शरीर को वैसा ही समझने की कोशिश करो, जैसा पहनने के कपड़े को समझते हो। अनुभव करो कि शरीर को त्यागकर भी तुम्हारा 'मैं' बना रह सकता है। शरीर को त्यागकर और ऊँचे स्थान से उसे देखने की कल्पना करो। शरीर को एक पोले घोंसले के रूप में देखो, जिसमें से आसानी के साथ तुम बाहर निकल सकते हो। ऐसा अनुभव करो कि इस खोखले को मैं ही स्वस्थ, बलवान, दृढ़ और गतिवान बनाये हुए हूँ, उस पर शासन करता हूँ और इच्छानुसार काम में लाता हूँ। मैं शरीर नहीं हूँ, वह मेरा उपकरण मात्र है। उसमें एक मकान की भाँति विश्राम करता हूँ। देह भौतिक परमाणुओं की बनी हुई है और उन अणुओं को मैंने ही इच्छित वेश के लिए आकर्षित कर लिया है। ध्यान में शरीर को पूरी तरह भुला दो और 'मैं' पर समस्त भावना एकत्रित करो, तब तुम्हें मालूम पड़ेगा कि आत्मा शरीर से भिन्न है। यह अनुभव कर लेने के बाद जब तुम 'मेरा शरीर' कहोगे तो पूर्व की भाँति नहीं, वरन् एक नये ही अर्थ में कहोगे।
ध्यानावस्था में आत्म-स्वरूप को देह से अलग करो और क्रमशः उसे आकाश, हवा, अग्नि, पानी, पृथ्वी की परीक्षा में से निकलते हुए देखो। कल्पना करो कि मेरी देह की बाधा हट गई है और अब मैं स्वतंत्र हो गया हूँ। अब तुम आकाश में इच्छापूर्वक ऊँचे-नीचे पखेरुओं की तरह जहाँ चाहे उड़ सकते हो। हवा के वेग से गति में कुछ भी बाधा नहीं पड़ती और न उसके द्वारा जीव कुछ सूखता ही है। कल्पना करो कि बड़ी भारी आग की ज्वाला जल रही है और तुम उसमें होकर मजे में निकल जाते हो और कुछ भी कष्ट नहीं होता है। भला जीव को आग कैसे जला सकती है? उसकी गर्मी की पहुँच तो सिर्फ शरीर तक ही थी। इसी प्रकार पानी और पृथ्वी के भीतर भी जीव की पहुँच वैसे ही है जैसे आकाश में। अर्थात् कोई भी तत्त्व तुम्हें छू नहीं सकता और तुम्हारी स्वतन्त्रता में तनिक भी बाधा नहीं पहुँचा सकता।
इस भावना से आत्मा का स्थान शरीर से ऊँचा ही नहीं होता बल्कि उसको प्रभावित करने वाले पंच-तत्त्वों से भी ऊपर उठता है। जीव देखने लगता है कि मैं देह ही नहीं वरन् उसके निर्माता पंच-तत्त्वों से भी ऊपर हूँ। अनुभव की इस चेतना में प्रवेश करते ही तुम्हें प्रतीत होगा कि मेरा नया जन्म हुआ है। नवीन शक्ति का संचार अपने अन्दर होता हुआ प्रतीत होगा और ऐसा भी न होगा कि पुराने वस्त्रों की तरह भय का आवरण ऊपर से हटा दिया गया है। अब ऐसा विश्वास हो जायगा कि जिन वस्तुओं से मैं अब तक ही डरा करता था वे मुझे कुछ भी हानि नहीं पहुँचा सकतीं। शरीर तक ही उनकी गति है। सो ज्ञान और इच्छा शक्ति द्वारा शरीर से भी इन भयों को दूर हटाया जा सकता है।
बार-बार समझ लो। प्राथमिक शिक्षा का बीज मंत्र 'मैं' है। इसका पूरा अनुभव करने के बाद ही आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकोगे। तुम्हें अनुभव करना होगा मेरी सत्ता शरीर से भिन्न है। अपने को सूर्य के समान शक्ति का एक महान् केन्द्र देखना होगा, जिसके इर्द-गिर्द अपना संसार घूम रहा है। इससे नवीन शक्ति आवेगी, जिसे तुम्हारे साथी प्रत्यक्ष अनुभव करेंगे। तुम स्वयं स्वीकार करोगे, अब मैं सुदृढ़ हूँ और जीवन की आँधियाँ मुझे विचलित नहीं कर सकतीं। केवल इतना ही नहीं इससे भी आगे है। अपनी उन्नति के आत्मिक विकास के साथ उस योग्यता को प्राप्त करता हुआ भी देखोगे जिसके द्वारा जीवन की आँधियों को शान्त किया जाता है और उन पर शासन किया जाता है।
आत्म-ज्ञानी दुनियाँ के भारी कष्टों की दशा में भी हँसता रहेगा और अपनी भुजा उठाकर कष्टों से कहेगा-'जाओ, चले जाओ, जिस अन्धकार से तुम उत्पन्न हुए हो उसी में विलीन हो जाओ।' धन्य है वह जिसने 'मैं' के बीज मंत्र को सिद्घ कर लिया है।
जिज्ञासुओ! प्रथम शिक्षा का अभ्यास करने के लिए अब हमसे अलग हो जाओ। अपनी मन्द-गति देखो, तो उतावले मत होओ। आगे चलने में यदि पाँव पीछे फिसल पड़े तो निराश मत होओ। आगे चलकर तुम्हें दूना लाभ मिल जायगा। सिद्घि और सफलता तुम्हारे लिए है, वह तो प्राप्त होनी ही है। बढ़ो, शांति के साथ थोड़ा प्रयत्न करो।
इस पाठ के मंत्रः
- मैं प्रतिभा और शक्ति का केन्द्र हूँ।
- मैं विचार और शक्ति का केन्द्र हूँ।
- मेरा संसार मेरे चारों ओर घूम रहा है।
- मैं शरीर से भिन्न हूँ।
- मैं अविनाशी हूँ, मेरा नाश नहीं हो सकता।
- मैं अखण्ड हूँ, मेरी क्षति नहीं हो सकती।.........