गायत्री द्वारा सम्पूर्ण दु:खों का निवारण
मनुष्य ईश्वर का उत्तरधिकारी एवं राजकुमार है। आत्मा
परमात्मा का ही अंश है। अपने पिता के सम्पूर्ण गुण एवं वैभव बीज
रूप से उसमें मौजूद हैं। जलते हुए अंगार में जो शक्ति है वही छोटी
चिनगारी में भी मौजूद है। इतना होते हुए भी हम देखते हैं कि
मनुष्य बड़ी निम्न कोटि का जीवन बिता रहा है, दिव्य होते हुए भी
दैवी सम्पदाओं से वंचित हो रहा है।
परमात्मा सत् है, परन्तु उसके पुत्र हम असत् में निमग्न हो रहे हैं।
परमात्मा चित् है, हम अन्धकार में डूबे हुए हैं। परमात्मा आनन्द स्वरुप
है, हम दु:खों से संत्रस्त हो रहे हैं। ऐसी उल्टी परिस्थिति उत्पन्न हो जाने
का कारण क्या है? यह विचारणीय प्रश्न है।
जब कि ईश्वर का अविनाशी राजकुमार अपने पिता के इस सुरम्य
उपवन संसार में विनोद क्रीड़ा करने के लिए आया हुआ है तो उसकी
जीवनयात्रा आनन्दमय न रहकर दु:ख-दारिद्र से भरी हुई क्यों बन
गई है? यह एक विचारणीय पहेली है।
अग्नि स्वभावत: उष्ण और प्रकाशवान् होती है, परन्तु जब जलता
हुआ अंगार बुझने लगे तो उसका ऊपरी भाग राख से ढक जाता है
तब उस राख से ढके हुए अंगार में वे दोनों ही गुण दृष्टिगोचर नहीं
होते जो अग्नि में स्वभावत: होते हैं।