गायत्री ही कामधेनु है

सर्वोपरि सर्वसुलभ गायत्री योग

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गायत्री उपासना के सत्परिणामों की चर्चा सदा सर्वदा सुनाई पड़ती रहती है। जिसने भी इस महामंत्र का आश्रय लिया उन्होंने आशाजनक और उत्साह वर्धक फल पाया है ।। प्राचीन काल में भी ऐसी अनेकों महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटित होती रहती हैं, जिनसे यह प्रमाणित होता है कि गायत्री उपासना साधारण से साधारण और असाधारण से असाधारण समस्याओं को सुलझाने में एक चमत्कारी उपाय की तरह सत्परिणाम उत्पन्न करती रहती हैं ।।

शास्त्रों और पुराणों में ऐसे कई प्रसंगों की कथाएँ मिलती हैं जिनसे इस तथ्य का प्रतिपादन होता है कि देव- दानव, ऋषि मुनि, पुरुष और स्त्रियाँ समय- समय पर माता का आश्रय ग्रहण करके दुःखों से सुखों की ओर, अशान्ति से शान्ति की ओर अग्रसर होने में समर्थ होते रहे हैं ।।

अनेक देवताओं, भक्तों और महापुरुषों ने भी अनेक अनुभवों की चर्चा इसी प्रकार की है, जिससे गायत्री की महिमा की भी महत्ता का प्रतिपादन होता है और तथ्य का समर्थन होता है कि इस कल्पवृक्ष के नीचे बैठने वाले की कामनाएँ पूर्ण होती ही रही हैं ।। इस कामधेनु का पयपान करने वाला सदैव अत्युक्तियों की क्षुधा से छुटकारा पाकर पूर्ण रूप बना रहता है ।।
यह उदाहरण हमारी श्रद्धा को जागृत करते हैं और प्रेरणा देते हैं कि उपासना में तथा जीवन साधना में उन तत्वों का समावेश किया जाय जिनका प्रतिपादन गायत्री तत्व ज्ञान के अन्तर्गत हुआ है ।।

ध्रुव कुमार अपना अनुभव सुनाते हुए राजाओं से महिमामयी सावित्री (गायत्री) का प्रभाव परिणाम बताते हुए निर्देश करते हैं कि यहीं उपासना सर्वश्रेष्ठ तथा सर्वोपरि है-

किं ब्रवीमि महपालास्तस्याश्चरितमुत्तमम् ।।
ब्रह्मादयो न जानन्ति सेशाः सुरगणस्तथा ॥

ध्रुव कुमार से जब गायत्री का माहात्म्य पूछा गया तो उसने राजाओं से कहा -हे नृपगण ! मैं उस सावित्री देवी के अत्युत्तम चरित्र के विषय में क्या वर्णन करूँ ।। उसका चरित्र ऐसा अप्रमेय है कि ब्रह्मादिक बड़े- बड़े देवगण भी उसे नहीं जानते हैं ।।

सर्वस्याद्या महालक्ष्मीर्वरेण्यम् शक्ति उत्तमा ।।
सात्वकीयं महीपाल जगत्पालन तत्परा ॥ ‍

हे नृपगण ! यह देवी परम सात्त्विकी, सबसे आद्या महालक्ष्मी, वरेण्य और उत्तम शक्ति स्वरूपा है तथा इस जगत के पालन, रक्षण करने में सर्वदा तत्पर रहा करती है ।।

सृजति या रजोरूपा सत्वरूपा च पालने ।।
संहार च तमो रूपा त्रिगुणा सा सदा मता ॥
निर्गुणा परमा शक्तिः सर्वकाल फल प्रदा ।।
सर्वेषां कारणं साहि ब्रह्मवादिनां नृपोत्तमाः ।।
निर्गुणा सर्वथा ज्ञातुमराक्या योगिभिनुप्तः ॥ ‍

वह सावित्री देवी रजोगुण के स्वरूप वाली इस जगत का सृजन किया करती है और सत्त्व गुण का स्वरूप धारण करके इसका पालन करती है ।। जब इस प्रपंच विश्व का वह संहार करके लय करना चाहती है तो तमोगुण के रूप को धारण कर लेती है ।। इसके सर्वदा गुण सम्पन्न स्वरूप माने गये हैं ।। इसका जो निर्गुण स्वरूप है उसमें परमशक्ति है और समस्त कामनाओं के फलों को प्रदान करने वाला है ।। हे नृपोत्तमगण ! ब्रह्मा आदि सबका यह कारण स्वरूप है ।। हे नृपगण ! इसका निर्गुण स्वरूप तो बड़े- बड़े योगियों के द्वारा भी नहीं जाना जा सकता है ।।

यस्येच्छया सृजति विश्वमिदं प्रजेशी नानावतार कलनं कुरुते हरिश्च ।। नूनं करोति जगतः किल भस्म शम्भु स्तां शर्मदां न भजतेनु कथं मनुष्याः ।।

जिसकी इच्छा से प्रजा का स्वामी ब्रह्मा इस सम्पूर्ण विश्व का सृजन किया करते हैं तथा भगवान हरि अनेक अवतार धारण करते हैं एवं भगवान् शम्भु इस जगत को संहार करके भस्म कर देते हैं, यह मनुष्य कैसा है जो ऐसी कल्याणकारी सावित्री देवी का भजन नहीं किया करता है ।।  
स्वयं भुव मनु के सम्बन्ध में भी एक ऐसा आख्यान मिलता है जिसके अनुसार उनको ब्रह्मा ने गायत्री उपासना के प्रेरणा दी थी ।। स्वायत्तता मनु ने एक बार ब्रह्मा से अपने मन में घुमड़ रही यह इच्छा व्यक्त की वे अपनी गोदी में भगवान् जैसा पुत्र खिलाने की कामना रखते हैं जिससे उन्हें सृष्टि का आदि उद्घाटन कर्त्ता एवं नियम व्यवस्था बनाने का श्रेय प्राप्त हो, तो ब्रह्माजी ने उन्हें भगवती की शरण में जाने के लिए ही कहा ।। इस प्रसंग का विवरण इस प्रकार आता है ।।

मनुः स्वायत्तता स्खाद्यः पद्म पुत्रः प्रतापवान् ।।
शतरूपा पति श्रीमान् सर्व मन्वन्तराधियः ॥
स मनुः पितरं देवं प्रजापतिमकल्मषम् ।।
तक्ता पर्चचरत्पूर्व तमुवचात्मम् सुलम् ॥
पुत्र, पुत्र त्वया कार्य देव्याराधन मुत्तमम् ।।
तत्प्रसादेन ते तता! प्रजा सर्ग प्रसिद्धयाति ॥

अर्थ- समस्त मनुजों का स्वामी, शतरूपा के पति स्वायत्तता मनु ने अपने पिता की परिचर्या की थी ।। उस समय ब्रह्मा जी ने उससे कहा- हे पुत्र ! तुमको देवी की आराधना करनी चाहिए ।। उसी के प्रसाद से प्रजा का सर्ग करने का तुम्हारा कार्य सफल होगा ।।

एवमुक्तः प्रजास्रष्टा मनुः स्वायम्भुवो विराट ।।
जगद्योनिं तदा देवी तपसाऽतर्पयद् विभुः ॥
तुष्टाव दैवीं देवेश सम्तहित मतिः किल ॥

अर्थ- प्रज्ञा के सृजन करने वाले पितामह के द्वारा इस प्रकार से आदेश दिये जाने पर विराट स्वायत्तता मनु ने इस जगत् की व्युत्पत्ति करने वाली देवी को अपनी उत्कृष्ट तपश्चर्या द्वारा सन्तुष्ट कर दिया था ।। इस पर देवी ने प्रसन्न होकर कहा-

वरं वरेण्य राजेन्द्र! ब्रह्म पुत्र यदिच्छसि ।।
प्रसन्नहं स्तवेनात्र भक्त्या चाराधनेन च ॥
यदि देवि ! प्रसन्नाऽसि भक्त्या कासुणिकोत्तमे ।।
तदा निर्विघ्नता सृष्टि3 प्रजायाः स्यातवाज्ञ या ॥
प्रजा सर्गः प्रभवति ममानुग्रहतः कील ।।
निर्विघ्नेन च राजेन्द्रः ! वृद्धिश्चाप्युत्तरोरम् ॥

अर्थ- देवी ने कहा- हे राजेन्द्र! हे ब्रह्मा के पुत्र! जो भी तुम चाहते हो वरदान माँग लो ।। तुम्हारे इस स्तवन और आराधना से मैं प्रसन्न हूँ ।। मनु ने कहा- यदि आप मुझ पर करुणा कर प्रसन्न हैं तो मैं यही चाहता हूँ, प्रजा की सृष्टि निर्विघ्न होवे ।। देवी ने कहा- हे राजेन्द्र! तेरी सृष्टि की उत्तरोत्तर वृद्धि होगी ।।
दानवों से उत्पीड़ित होकर देवताओं ने भी अपनी रक्षा के लिए इसी आद्य शक्ति का आश्रय ग्रहण किया था ।। इसका उल्लेख इस प्रकार मिलता है ।।
आवयोर्जगतांचैव मङ्गलाय पदाम्बुजम् ।।
महामुक्ति प्रदं चैव त्वदीयमति निर्मलम् ॥
अदृश्यमपि गोप्यं हि मातुराकार वर्जितम् ।।
कथन्तत्पूजयिष्यावः सर्वमङ्गलदायकम् ॥

भुमौ स्थानं कल्पयस्व यजितुं तत्पदाम्बुजम् ।।
सर्वदा पूजयिष्यावो महामङ्गल कारणम् ॥
आवयोश्चौव सर्वेषां महामुक्ति फलाय च ।।
तदावयो दनिवाद्याः किं करिष्यति चाशुभम् ॥
अवश्यं वै तरिष्यसि वो दुस्तर त्वत्पदार्चनात् ॥

अर्थ- एक बार ब्रह्मा और विष्णु दोनों महान् देवों ने सावित्री देवी का स्तवन किया ।। इन दोनों देवो ने गायत्री देवी से कहा- 'हे माता ! हमारे और समस्त जगत के कल्याण के निमित्त आपके महामुक्ति प्रद, अत्यन्त निर्मल- अदृश्य और अहंकार हीन एवं गोपनीय तथा परम मङ्गलदायक महान् आपके चरण की अर्चना हम किस प्रकार से करें ।। आप आपने चरण कमलों को पूजन के लिए पृथ्वी पर किसी स्थल की कल्पना करें ।। हम उसी स्थान पर एकत्रित होकर महान् मङ्गल के कारण स्वरूप एवं महामुक्ति प्रद आपके चरण कमलों की अर्चना करेंगे ।। इससे हमारा, समस्त देवगणों का तथा सभी जीवों का महान् मङ्गल होगा ।। आपके चरणों की अर्चन करने पर दानव आदि हमारा कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सकेंगे ।। हम आपके चरणों की पूजा करे परम दुस्तर दुःखों से भी निस्तार प्राप्त कर सकेंगे ।। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है ।'

अति सुगप्तभावेन ईप्सितं प्राप्यते फलप्रदम् ।।
देव दानव गन्र्धवैरन्य रपि महामते ॥
यथा न शायते कैश्चितथाचाँ त्वं कुरुष्व मे ।।
सर्वाभिः परित्राणं करिष्यामि चतुः सदा ॥

अर्थ- भगवती वेद जननी ने कहा- ''अत्यन्त गुप्तभाव से पूजा करने पर अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है ।। देव- दानव आदि अन्य सभी को पूजना करने पर फल की प्राप्ति होती है, इसमें सन्देह नहीं है ।। जिसको दूसरा मनुष्य न जान सके, उसी भाँति मेरी पूजा करो ।। ऐसा करने पर सभी आपदाओं से मैं रक्षा करूँगी'

एक बार देव गुरु बृहस्पति जी ने देवसभा में अपने शिष्य देव पुरुषों को गायत्री का माहात्म्य बताते हुए कहा कि देव लोक पहुँचाने और देवत्व को स्थिर रखने का श्रेय गायत्री माता को ही प्राप्त है ।। उसी का आश्रय लेकर आत्मा को अंधकार भरे नरकों से छूटकर सूर्यलोक का आनन्द प्राप्त होता है ।। परा और अपरा विद्या के रूप में भगवती की सुविस्तृत आवरण की तरह ही जो अन्य लोग इस अवलम्बन को ग्रहण करेंगे, वे उच्च लोकों की भूमिका प्राप्त करेंगे और आत्मानन्द का सुख भोगे ।।
देवताओं ने सुर गुरु बृहस्पति जी के आदेशानुसार हिमालय पर जाकर भगवती की उपासना की और उसके फलस्वरूप प्राप्त अनुभवों के आधार पर अपने भाव व्यक्त करते हुए इस प्रकार स्तवन किया-

इति तस्य वचः श्रुत्वा देवास्तु प्रययुर्गिरम ।।
हिमालयम् महाराज ! देवी ध्यान परायणाः ॥
माया बीजं हृदा नित्यं जपन्त3 सर्व एव हि ।।
मनष्चक्रुर्महामायां भक्तनामभय प्रदाम ॥
तुष्टुकः स्तोत्रमंत्रैश्च भक्त्या परमयायुताः ।।

अर्थ- इस प्रकार का उनका वचन सुनकर वे समस्त देवगण गिरिराज हिमालय पर चले गये । हे महाराज ! वहाँ पर सब देवता देवी के ध्यान में तत्पर हो गये और माया बीज का हृदय में ध्यान करके मन्त्र का जाप करने लगे ।। अपने परम भक्तों को अभय प्रदान करने वाली महामाया को नमस्कार किया तथा अत्यन्त भक्ति की भावना से संयुक्त होकर स्तोत्रं और मन्त्रों द्वारा उसका स्तवन किया ।।

ते कि न मन्दमतयो यतयो बिमूढास्त्वां
ये न विश्व जननीं समुपाश्रयन्ति ।।
विद्यांपरां सकल काम फलप्रदां तां मुक्ति
प्रदां बिबुधवृन्द सुविन्द लाङिघ्रम ॥

अर्थ- देवों ने स्तुति की- '' हे देवि ! वे यातिगण मन्द बुद्धि वाले ही हैं और महामूढ़ हैं, जो समस्त विश्व की जननी आपका आश्रय नहीं लेते हैं ।। आप तो परा विद्या हैं, सब कामनाओं को पूर्ण करने वाली- मोक्ष प्रदान करने वाली हैं ।। सब देवगण आपके चरणों की वन्दना करते हैं ।'

जलदि सकल तत्वं ब्रह्माण्डादिक विस्तरम् ।।
देवाधि सकल पूर्ण द्रव्यादिक चराचरम् ॥
कायं चर कारणं सर्वं तथो विष्णौं समुद्भवः ।।
सर्व जानाति हि ब्रह्मा मत्कृतं मायया पुनः ॥
किन्तु सर्व हि मिथ्यैव मातुर्माय हि केवलम् ।।
तां मायां हि भजन्ति ये तत्परं यान्ति नराः ॥

तुष्ट सा परमा माया मुक्ति मात्रं प्रयच्छति ।।
दुष्टा सा परमा माया भूमियोगं प्रचच्छति ॥
तस्यां पादस्तु जे नूनं वस्या मुक्ति समाग्रिता ।।
यस्य तुष्ट महादेवी मम् माता महेश्वरी ॥
ददौ तस्मै च त्वं मुक्ति महामाया देवेश्वरी ।।

अर्थ- बस जल प्रभृति तत्व और ब्रह्माण्ड आदि समस्त विस्तार- सम्पूर्ण देवगण एवं चराचर तथा कार्य कारण तथा विष्णु की उत्पत्ति यह सभी कौशल ब्रह्मा को माता गायत्री कहती हैं कि मेरी माया से अवगत हुआ है, किन्तु यह सभी मिथ्या है, केवल गायत्री माता की माया का ज्ञान ही प्राप्त करना चाहिए ।।
जो मनुष्य उसकी माया महिमा को भजता है वह सांसारिक माया को पार कर लेता है अर्थात् उसका सर्वतोभावेन से परम कल्याण होता है ।। यदि वह मातेश्वरी परम तुष्ट हो जाती है तो निस्सन्देह मुक्ति प्रदान किया करती है ।। यदि वह रुष्ट हुआ करती है तो फिर योनि योग प्रदान करती है ।। उसके चरण कमलों में मुक्तिदायी होकर आश्रय किया करती है। वह माता गायत्री देवी जिस पर सन्तुष्ट होती है, उसी को प्राप्त होती है ।।

(गायत्री महाविद्या का तत्त्वदर्शन पृ.सं.3.43)

 


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