गायत्री ही कामधेनु है

गायत्री उपासना बनाम द्विजत्व-ब्राह्मणत्व

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गायत्री उपासना केवल मानव मात्र के लिए है ।। सद्बुद्धि की देवी- ऋतम्भरा प्रज्ञा की अधिष्ठात्री इस महाशक्ति की आराधना और अन्तःकरण में प्रतिष्ठापना करना, हर किसी के लिए आवश्यक है ।। यह तत्व जिसे भी प्राप्त होगा वह ऊँचा उठेगा ।। जहाँ तक अधिकार का प्रश्न है प्रत्येक सत्प्रयोजन को सम्पन्न करने, सन्मार्ग की दिशा में कदम बढ़ाने की छूट और सुविधा हर किसी को है ।। प्रतिबंध तो अवांछनीय गतिविधियों पर ही लगाये जाते हैं ।। अथवा उन कार्यों से रोका जाता है जो रोकने की सामर्थ्य से बाहर होते हैं और क्षमता के अभाव में भारी वजन उठाने पर कठिनाई उत्पन्न होने की आशंका होती है ।। गायत्री उपासना में ऐसी कोई बात नहीं है ।। न तो उसमें कुछ अनैतिक है और न दुस्साध्य ।। उसका लक्ष्य सद्बुद्धि की शरण में जाना है ।। इसमें अधिकारी अनाधिकारी का प्रश्न ही नहीं उठता ।।

सूर्य की धूप में, चन्द्रमा की चाँदनी में बैठने का मनुष्य को ही नहीं प्राणिमात्र को अधिकार है ।। गंगा स्नान पर किसी के लिए प्रतिबंध नहीं है ।। स्वच्छ वायु में साँस लेने, जल पीने और अन्न खाने से किसी को वंचित नहीं किया जाता ।। इसी प्रकार सत्य बोलने उदारता बरतने, संयम से रहने, कर्त्तव्यपरायण रहने जैसे सत्प्रयोजनों के लिए किसी को रोका नहीं जाता वरन् प्रोत्साहित किया जाता है ।। ईश्वर का स्मरण भी ऐसा ही पवित्र कार्य है, जिसमें हानि की कोई आशंका नहीं है और न ऐसा कुछ है जिस पर विचार करके किसी के शुभ प्रार्थना का अधिकारी, किसी को अनाधिकारी ठहराया जा सके ।। गायत्री मंत्र के बारे में भी यही बात है ।। वह सार्वभौम- सर्वजनीन उपासना मंत्र है ।। जिसे बिना धर्म, जाति, सम्प्रदाय, देश, वंश लिंग आदि का भेद- भाव किये मनुष्य मात्र द्वारा अपनाया जा सकता है ।।

यहाँ यह इसलिए कहा जा रहा है कि जहाँ- तहाँ ऐसे प्रतिपादन मिलते हैं जिनमें द्विजत्व और ब्राह्मणत्व को गायत्री के साथ जोड़ा गया है ।। इस प्रतिपादन का तात्पर्य इतना ही है कि उत्कृष्टतावादी चिन्तन और आदर्शवादी कर्तव्य अपना कर चलने वाले जीवन क्रम में ईश्वरीय उपासना की दिव्य उपलब्धियाँ अधिक अच्छी तरह हो सकती हैं ।। द्विजत्व का अर्थ है दूसरा जन्म ।। दूसरे जन्म से तात्पर्य है पशु प्रवृत्तियों से जकड़े हुए सामान्य प्राणि जीवन से ऊँचा उठकर मानवी उत्तरदायित्वों की विशिष्टता भरी भूमिका को अपनाया जाना ।। नर पशु की रीति- नीति छोड़कर, देव जीवन की महानता को अपनाया जाना ।।

इसके लिए व्रत लेना पड़ता है कि वासना तृष्णा की क्षुद्रता में कृमि कीटकों की तरह निरत नहीं रहा जायेगा वरन् मानवी उत्कृष्टता को जीवन क्रम से ओत- प्रोत करते हुए उच्च स्तरीय सिद्धांतों को अपनाकर चला जायेगा ।। ऐसा व्रतशील जीवन क्रम ही द्विजत्व है ।। पशु प्रवृत्तियों का त्याग और देव परम्परा को धारण करने का व्रत लेना भारतीय परम्परा में एक अत्यन्त आवश्यक एवं पवित्र कर्म है ।। इसलिए द्विजत्व का संस्कार समारोह पूर्वक किया जाता है ।। इसे यज्ञोपवीत संस्कार कहते हैं ।। इसका प्रतीक यज्ञोपवीत धारण है ।। ऐसे व्रतधारियों को द्विज की संज्ञा दी गई है ।।

द्विज के लिए आदर्शवादी रीति- नीति अपनाना और लोकोपयोगी कार्यों में निरत रहने की योजना बनाकर चलना आवश्यक होता है ।। ऐसे कार्यों में तीन प्रमुख हैं- (1)अज्ञान का निवारण, (2) अनीति का उन्मूलन, (3)अभावों का समापन ।। व्यक्तिगत रुचि, योग्यता एवं परिस्थिति के अनुसार इनमें से कोई भी लक्ष्य चुना जा सकता है ।। संसार के समस्त कष्टों और संकटों के यह तीन कारण हैं ।। इन्हें जितना निरस्त किया जा सकेगा उतनी ही सुख- शान्ति स्थिर रह सकेगी और प्रगति की सम्भावना बढ़ेगी ।। अज्ञान का निवारण करने में प्रवृत्त वर्ग का ब्राह्मण- अनीति से जूझने वाले को क्षत्रिय- अभाव दूर करने में जुटे हुए लोगों को वैश्य कहते हैं ।। जिनमें इस प्रकार की आदर्शवादी आकांक्षायें नहीं हैं जो अपनेपन की आपा- धापी तक ही सीमित हैं ।।

जिनकी उत्कृष्टता अपनाने में कोई रुचि नहीं है जो पेट प्रजनन में आगे की बातों में रुचि नहीं लेते, जिन्हें पशु प्रवृत्तियों में डूबे रहना ही पर्याप्त लगता है वह समस्त मनुष्य शूद्र हैं ।। यह भावनात्मक वर्गीकरण है ।। इसमें जाति वंश का कोई प्रश्न नहीं है ।। इसे विशुद्ध रूप से आचार प्रक्रिया या आदर्श पद्धति कहा जा सकता है ।। इस तथ्य को भी स्पष्ट करना हो तो यों यह कह सकते हैं कि संकीर्ण स्वार्थपरता की पशु प्रवृत्तियों में संलग्न व्यक्ति शूद्र और उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तव्य अपनाने वाले लोग द्विज हैं ।। इन वर्गों का स्थायित्व नहीं है ।।

आज का स्वार्थी कल आदर्शवादी बन सकता ।। इसी प्रकार आज का श्रेष्ठ व्यक्ति कल निकृष्ट भी बन सकता है ।। अस्तु शूद्र द्विज होते रहते हैं और द्विजों में से अगणित पतित होकर शूद्र वर्ग में चले जाते हैं ।। यह वर्ण भेद ही प्राचीन काल में वर्ण भेद कहा जाता है ।। जन्म जाति के आधार पर किसी को शूद्र या द्विज मानना निरर्थक है ।। सदाचारियों के बच्चे सदाचारी ही हो और दुराचारियों के यहाँ दुराचारी ही जन्मते रहें ऐसा कहाँ होता है ।। इसलिए अमुक वंश में जन्मे लोग शूद्र ही होते रहेंगे और अमुक परिवार की पीढ़ियाँ द्विज ही होती रहेंगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता ।।
द्विजत्व के साथ गायत्री उपासना को सोना और सुगन्ध मिलने की तरह अधिक सराहा गया है और उससे अधिक लाभ होने का तथ्य समझाया गया है ।। ईश्वर उपासना कोई भी कर सकता है पर अधिक लाभ उसी को होगा जो प्रभु समर्पित आदर्शवादी जीवन प्रक्रिया भी अपनाने वाली जीवन साधना दूसरा ।। इन दोनों के सम्मेलन से ही सर्वतोन्मुखी प्रगति का रथ अग्रसर होता है ।। मात्र पूजा पाठ कर लेने से भी यों तो कुछ लाभ होता है पर पूरा सत्परिणाम देखना हो तो पवित्र जीवन क्रम अपनाने की साधना के साथ ईश्वर की उपासना करनी चाहिए ।। पवित्र जीवन उर्वरा भूमि है ।। और भजन उपजाऊ बीज ।। दोनों की व्यवस्था पर समुचित ध्यान रखा जाना चाहिये ।।

इसी प्रतिपादन को गायत्री और द्विजत्व का समन्वय करने की संगति बिठाकर किया गया है ।। तथ्य को समझा जाना चाहिए यदि किसी वंश या जाति को द्विज ठहराया जायेगा और उसी परिवार में जन्मे लोगों को उपासना का, गायत्री का, अधिकारी कहा जायेगा तब तो निश्चित रूप से अर्थ का अनर्थ ही हो जायेगा ।। दुर्भाग्य स पिछले दिनों ऐसी ही भूल होती रही है और उसी परिवार में जन्में लोगों को उपासना का अधिकारी अमुक हो अनाधिकारी ठहराया जाता रहा है ।। जबकि वास्तविकता इससे सर्वथा भिन्न है ।। तत्त्वदर्शी- मानवतावादी ऋषि इतने संकीर्ण हो ही नहीं सकते थे कि वे किसी अमुक जाति, वंश का आत्मिक प्रगति के साधनों को अपनाने का अधिकारी ठहराये और अन्यों को उससे वंचित कर दें ।। ऐसा पक्षपात हो बहुत ही ओछे स्तर के, संकीर्ण बुद्धि, पक्षपाती और द्विवेषी लोग कर सकते हैं ।। भारतीय धर्मशास्त्रों और उनके प्रस्तुतकर्त्ता ऋषियों पर ऐसे आक्षेप लगने लगेंगे तो यह उस महान् संस्कृति का अपमान ही होगा जिसके कारण समस्त विश्व ने इस देशवासियों को देव मानव माना था और जगद्गुरु कहकर अपना मस्तक नवाया था ।।

गायत्री उपासना का अधिकार हर किसी को है मनुष्य मात्र बिना किसी भेद- भाव के उसे कर सकता है ।। इस सामान्य बुद्धि संगत तथ्य के समर्थन में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं तो भी इस संदर्भ में प्रमाण मिल जी जाते हैं ।।

सर्वेषां वा गायत्री मनु ब्रूयात् ।। (पारस्कर गृह सूत्र 2/3/10)
गायत्री का उपदेश सबको करें-

चतुर्णामपि वर्णानम् आश्रमस्य विशेषतः ।।
करोति सततं शान्ति सावित्री उत्तमां पठन्॥ (महाभारत)
''चारो वर्ण और चारों आश्रमों में रहने वाले कोई भी साधक जो इस उत्तम गायत्री मंत्र का जप करते हैं वे परम शांति को प्राप्त करते हैं ।''

यथा कथं च जप्तैषा त्रिपदा परम पावनी ।।
सर्व काम प्रदा प्रोक्ता विधिनीं क्रि पुननर्प॥ (विष्णु धर्मोत्तर)
हे राजन् जैसे बने वैसे जप करने पर भी परम पावनी गायत्री कल्याण करती है ।। फिर विधिपूर्वक उपासना करने के नाम का तो कहना ही क्या है?
अग्निदेव ने कहा है-

एवं सन्ध्या विधि कृत्वा गायत्रीं च जयेत् स्मरेत् ।।
गायेचिष्यान् यत स्त्रायेदभार्यां प्राणांस्तथैव च॥
अर्थात् ''संध्या विधि परिपूर्ण करने के पश्चात् गायत्री का स्मरण और जप करना ।। गायमान होने से अर्थात् उसकी उपासना, जप करने से वह गुरु, शिष्य स्त्री और प्राणी सबका उद्धार करती है ।''

ब्राह्मण शब्द मात्र विद्वान अथवा कर्मकाण्ड परायण के लिए नहीं होता वरन् जिसका जीवन ब्रह्मपरायण है जो आत्म शोधन और परमार्थ प्रयोजन में निरत रहकर ब्रह्मतेज की अभिवृद्धि करता है ।। ब्राह्मणत्व का पद उसी को मिलता है और वही पूजनीय गिना जाता है ।।

शास्त्राणयधीत्यापि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान्पुरुषः स विद्वान ।।
सुचिन्तितं चौषधमातराणां न नाममात्रेणकरोत्यरोगम्॥
शास्त्र पढ़कर भी मूर्ख होते हैं परन्तु जो क्रिया में चतुर हैं वहीं पण्डित हैं, जैसे अच्छे प्रकार से निर्णयकारी औषधि भी रोगियों को केवल नाम- मात्र से अच्छा नहीं कर देती है॥1॥
संध्या वंदन को नित्य कर्म माना गया है ।। उसकी आवश्यकता शौच, स्नान, भोजन, शयन जैसी दैनिक गतिविधियों की तरह समझी गई है और कहा गया है कि जिस प्रकार शरीर की स्वच्छता, सुविधा, पुष्टि के लिए साधन जुटाये जाते हैं उसी प्रकार अन्तःकरण पर आये दिन चढ़ने वाली मलीनता को स्वच्छ करने, आत्मिक आवश्यकताओं को पूरा करने एवं ब्रह्मतेजस् को बढ़ाने के लिए नित्य ही ईश्वराधना नियत समय पर नियमित रूप से करनी चाहिए ।। संध्या वंदन इसी प्रक्रिया का नाम है ।। इसे अपनाने के लिए शास्त्रों ने कठोर निर्देश दिये हैं और उपेक्षा करने वालों की कटु भर्त्सना की है ।। सन्ध्या को नित्य कर्म ठहराते हुए स्थान- स्थान पर द्विजत्व की धारण के लिए भी संकेत किये गये हैं और कहा गया है कि संध्या तो करनी ही चाहिए पर उसका समुचित लाभ होना हो तो द्विजत्व की जीवन साधना को भी अपनाये रहना चाहिए ।।

यदि इस ओर उपेक्षा बरती गई और मात्र पूजा प्रक्रिया को ही पर्याप्त मान लिया गया तो काम नहीं चलेगा ।। उसके साथ- साथ उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की समन्वित प्रक्रिया- द्विजत्व का जुड़ा रहना भी आवश्यक है ।। संध्या का सामान्य निर्देश तो हर किसी के लिए है पर साथ ही यह भी बताया जाता रहा है कि उपासना का पूरा लाभ लेना हो तो द्विजत्व के नाम से जानी जाने वाली जीवन साधना को अपनाया जाना भी अनिवार्य रूप से आवश्यक समझना चाहिए ।।

सायं प्रातस्तु यः संध्यां सऋक्षां पर्युपासते ।।
जप्त्वैव पावनीं देवीं सावित्री लोक मातरम्॥ -याज्ञवल्क्य
प्रातःकाल तथा सांयकाल संध्योपासना और गायत्री जप जो ब्राह्मण करता है उसका सकल पाप नष्ट हो जाता है ।।

सायं प्रातश्च संध्यां यो ब्राह्मणोऽम्युपसेवते ।।
प्रजपन् पावनीं देवीं गायत्रीं वेदमातरम्॥83॥
स तया पावितो देव्या ब्राह्मणो नष्टकिल्वषः ।। -महा. वन पर्व
जो ब्राह्मण प्रातः और सायं इन दोनों समय की सन्ध्या और सबको पवित्र करने वाली वेदमाता गायत्री देवी के मन्त्र का जप करता है, वह ब्राह्मण उन्हीं गायत्री देवी की कृपा से परम पवित्र और निष्पाप हो जाता है ।।

सन्ध्यामुपासते ये तु नियतं संश्तिव्रताः ।।
विधूतपापास्ते यान्ति ब्रह्मलोक मनामयम्॥ -मनुस्मृति
जो लोग दृढ़प्रतिज्ञ होकर प्रतिदिन नियमपूर्वक सन्ध्या करते हैं, वे पापरहित होकर अनायमय ब्रह्मपद को प्राप्त होते हैं ।।

उद्यन्तमस्तं यन्त मादित्यभिष्यानम् कुर्वन् ।। ब्राह्मणो विद्वान सकलं भद्रमुश्नते॥ -तै. आ.प्र. 2 अ. 2
सूर्योदय और सूर्यास्त के समय गायत्री उपासना करने वाला ब्राह्मण सब प्रकार के कल्याण को प्राप्त होता है ।।

उत्थायावश्यकं कृत्वा कृतशौचः सान्तहितः ।।
पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत् स्वकाले चापरां चिरम्॥
ऋषयो दीर्घं सन्ध्यत्वा दीर्घ मायु खायु युः ।।
प्रज्ञां यशश्च कीर्ति च ब्रह्म वर्चस मैव च॥ -स्कन्द पुराण
प्रातः शयन से उठकर आवश्यक समूल - मूत्रादि का त्याग करके फिर शुद्ध तथा समाहित होकर पूर्व सन्ध्या को खड़े होकर जप और समुचित समय पर दूसरी सन्ध्या की उपासना चिरकाल तक करनी चाहिए ।। ऋषि लोग दीर्घ काल तक सन्ध्या की उपासना करने ही के कारण लम्बी आयु की प्राप्ति किया करते थे और इसी के प्रभाव से वे प्रजा- यश और ब्रह्मवर्चस को भी प्राप्त करते थे ।।
यदयास्तमयादर्ध्व यावत् स्याद् घटिकात्रयम् ।।
तावत् सन्ध्यामुपासीत प्रायश्चितं ततः परम्॥
सूर्योदय तथा सूर्यास्त के बाद तीन घटिका तक संध्योपासना का काल है ।। इसके बीत जाने पर प्रायश्चित करना होता है ।।

प्रातः संध्यां सनक्षत्रां नोपास्ते यः प्रमादत3 ।।
गायत्र्यष्टशतं तस्य प्रायश्चितं विशुद्धये॥
प्रमादवश यथा समय सन्ध्योपासना न होने पर प्रायश्चित रूप से 108 बार गायत्री जप करना होता है ।।

संध्याकाले त्वातिक्रान्ते स्थत्वाऽचम्य यथा विधी ।। जपदेष्ठशतं देवीं ततः सन्ध्यां समाचरेत्॥
सन्ध्या समय अतिक्रान्त हो जाय, तो यथाविधि स्नान आचमन करके 108 बार गायत्री मंत्र जप करने के बाद संध्या करनी चाहिए ।।

सव्याहृतिं स प्रणवं गायत्री शिर सा सह ।।
ये जपन्ति सदा तेषां न भयं विद्यते क्वचित् ।।
यथा कथञ्चिज्ज्ा प्तैषा देवी परम पावनी ।।
सर्व काम प्रदा प्रोक्ता विधिनां किं पुननर्प॥ -विष्णु धर्मोत्रा पुराण
व्याहृति प्रणव एवं शिरोमंत्र सहित गायत्री का जो जप करते हैं उन्हें किसी से भी डर नहीं रहता ।। परम पावनी गायत्री का जप किसी भी प्रकार किया जाय वह समस्त इष्ट कामनाओं को पूर्ण करता है ।। फिर यदि विधि पूर्वक किया जाय तब तो उसके सत्परिणाम का कहना ही क्या है ।।

या सन्ध्या सा तु गायत्री द्विधा भूत्वा प्रतिष्ठिता ।।
सन्ध्या उपासिता येन विष्णुस्तेन उपासिताः॥
सच सूर्य समो विप्रस्तेजसा तपता सदा ।।
तत्पादपद्मरजसा सद्यः पूता वसुन्धरा ।।
जीवन्मुक्तः स तेजस्वी सन्ध्यापूतो हि यो द्विजः ।।
जो सन्ध्या है वही गायत्री है, एक ही द्विधा होकर प्रतिष्ठित है ।। सन्ध्या की उपासना करने पर विष्णु की ही उपासना होती है ऐसे उपासक तेज तथा तपोबल से सूर्य तुल्य होते हैं ।। उनके पाद रज स्पर्श से पृथ्वी पवित्र होती है और उनको जीवनमुक्त पदवी पर प्रतिष्ठा मिलती है ।।

उपास्ते सन्धिवेलायां निशाया दिवसस्य च ।।
तामेव संध्यां तस्मात् प्रवदन्ति मनीषिणः॥ -महर्षि व्यास
दिवारात्रि के सन्धि समय में जा उपासना की जाती है, उसको भी इसलिए मनीषियों ने सन्ध्या कहा है ।।

ऋषयो दीर्घ सन्ध्यतवादीर्घ मायु श्वाप्नुयुः ।।
प्रज्ञां यशश्च कीर्तिश्च ब्रह्मवर्चस मेव च॥
दीर्घकाल तक सन्ध्या करके ऋषिगण दीर्घायु, प्रज्ञा, यश, कीर्ति और ब्रह्मतेज लाभ प्राप्त करते हैं ।।

गायत्री सर्व मंत्राणां शिरोमणितया स्थित्य ।।
विद्या नामपि ते नैतां साधयेत्सर्व सिद्धये॥
त्रिव्याहृति युतां देवी औंकार युग संपुटाम् ।।
उपास्य चतुऐ वर्गान् साधयेद्योन सो अऽन्धयीः॥
देव्या द्विजत्वमासाद्य श्रेयसेऽन्यरततास्तु ये ।।
ते रत्नमभिवांच्छन्ति हित्षा चिन्तामणि करोत्॥ -वार्तिकसार
''गायत्री सब मंत्रों तथा विधाओं में शिरोमणि है ।। इसलिये द्विजों को उसकी साधना करनी चाहिये ।। दो ॐकारों द्वारा सम्पुट की गई और तीन व्याहृति वाली देवी गायत्री की उपासना करके जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों वर्गों को नहीं साधता वह अन्धी बुद्धि वाला है ।। गायत्री के द्वारा द्विजत्व को प्राप्त करके जो अन्य देवताओं की साधना करते हैं वे वैसे ही हैं जैसे हाथ में आई चिन्तामणि को त्यागकर रत्नों की इच्छा करने वाले होते हैं ।''
कहा गया है कि जिन्होंने ब्राह्मणत्व की साधना कर ली है, गुण, कर्म, स्वभाव एवं चिन्तन, चरित्र और व्यवहार की दृष्टि से अपने को उत्कृष्ट आदर्शवादिता के साथ जोड़ने की प्रारम्भिक जीवन साधना सम्पन्न कर ली है, वे सच्चे अर्थों में ब्राह्मण हैं ।। ऐसे व्यक्तियों को ब्रह्मतेज उपलब्ध करने, सिद्धियों को हस्तगत करने में सफलता मिलती है ।। उन्हें ही साधारण उपासना तक सीमित न रहकर गुप्त और रहस्यमयी गायत्री साधना के क्षेत्र में प्रवेश करने का अधिकार मिलता है ।। ऐसे लोग योग और तप में संलग्न होकर उसका तत्वावधान हृदयंगम कर जीवन शोधन कर उसे ऊँचा उठा पाने में सफल होते हैं ।।

देवी भागवत् में उल्लेख आता है 'ब्रह्मत्वं चेदाप्तुकामऽस्युपास्व गायत्री चेल्लोक कामोऽन्यदेवम् ।'
अर्थात्- जिसे ब्रह्मत्व ब्रह्मतेज प्राप्त करने की इच्छा हो, वह गायत्री महाशक्ति की उपासना करे ।। जिसे अन्य कामनाओं की ललक हो वह अन्य देवताओं को पूजे ।।
गायत्री उपासना से साक्षी बुद्धि- ऋतम्भरा प्रज्ञा का उदय होता है ।। यही वेदों का सार है ।। पापों से निवृत्ति और पवित्रता की सिद्धि इसी से मिलती है ।। ब्रह्मतत्त्व की उपासना करने वाले के लिए यही साक्षात् ब्रह्म है, यह शिरोमणि मंत्र है ।। इससे बढ़कर तंत्र या पुराण में कोई भी मंत्र नहीं है ।। इसी ग्रन्थ में आगे कहा गया है-

ब्रह्मण्य तेजो रूपा च सर्वसंस्कार रूपिणी ।।
पवित्र रूपा सावित्री वांछति हयात्म शुद्धये॥
अर्थात्- गायत्री ब्रह्मतेज रूप है, पवित्र एवं संस्कार रूपिणी है ।। आत्मशुद्धि के लिए उसी की उपासना करनी चाहिए ।।

सावित्र्याश्चैव मन्त्रार्थ ज्ञातवा चैव यथार्थतः ।।
तस्या संयुक्त द्योपास्य ब्रह्म भूयाय कल्पते॥
अर्थात्- सावित्री- गायत्री के गूढ़ मर्म और रहस्य जानकर जो उसकी उपयुक्त उपासना करता है, वह ब्रह्मभूत ही हो जाता है ।।

सार यह है कि गायत्री ब्रह्मरूपिणी है ।। ब्राह्मणत्व की स्थापना के लिए उसी की उपासना करने का निर्देश देते हुए कहा गया है ।। 'ब्रह्मत्वस्य स्थापनार्थं प्रविष्टा गायत्रीयं तावतास्य द्विजत्वम् ।। (ब्राह्मणत्व की स्थापना के लिए गायत्री की उपासना करें ।) इसी से द्विजत्व- दूसरा देव जन्म भी प्राप्त होता है ।।
स्कन्द पुराण में महर्षि व्यास का कथन है-

गायत्रेवतपो योगः साधनं ध्यानमुच्यते ।। सिद्धिनां सामता माता नातः किचिद वृहत्तरम्॥
अर्थात्- गायत्री ही तप है, गायत्री ही योग है, गायत्री सबसे बड़ा ध्यान और साधन है ।। इससे बढ़कर सिद्धिदायक प्रयोग और कोई नहीं है ।।

भगवान् मनु भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हुए कहते हैं- 'सावित्र्यास्तु परन्नास्ति ।' अर्थात्- गायत्री से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है ।।
गायत्री मंजरी में शिव जी कहते हैं-

योगिकानां समस्तानां साधनानातु हे प्रिये, गायात्र्येव मतार्लोके मूलधारा विदोवरैः॥
अर्थात् हे पार्वती! समस्त योग साधनाओं का मूलभूत आधार गायत्री ही है ।।
देवल ऋषि के अनुसार गायत्री की उपासना करके ही कश्यप, गौतम, भृगु, अंगिरा, अत्रि, भारद्वाज, बृहस्पति, शुक्राचार्य, अगस्त्य, वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि ने ब्रह्मर्षि पद पाया और इन्द्र, वसु आदि देवताओं ने असुरों पर विजय पाई ।।

'तदंब्रह्म च तपश्च सपत ऋषयः उप जीवन्ति ब्रह्मवर्चस्युय जीवनीयो भवति य एवं वेद ।'अर्थात्- सप्तऋषि ब्रह्मतेज के आधार पर ही प्रतापी हैं ।। यह ब्रह्मवर्चस् उन्होंने तप के द्वारा ही प्राप्त किया ।।
महाभारतकार का स्पष्ट र्निदेश है कि-

'परांसिद्धिमवाप्नोति गायत्रीमुत्तमां पठेत ।'
अर्थात्- परासिद्धि प्राप्त करने के लिए सर्वश्रेष्ठ गायत्री को ही जपना चाहिए ।।
गायत्री को सर्वसिद्धि प्रदाता कहा गया है ।। 'गायत्र्या सर्व संसिद्धिर्द्विजानां श्रुति संमता ।' अर्थात्- देव वर्णित सारी सिद्धियाँ गायत्री उपासना से मिल सकती है ।।

वस्तुतः इस जड़ चेतन जगत में गायत्री ही शक्ति रूप से विद्यमान है ।। सही सोम और सावित्री भी है ।। साधना क्षेत्र में इसी को जीवनी शक्ति, प्राण ऊर्जा, कुण्डलिनी शक्ति आदि नामों से पुकारते हैं ।। ब्रह्मतेज की ब्रह्माग्नि की ब्रह्मवर्चस की प्रतिक्रिया है ।। ब्राह्मी ऊर्जा उपार्जित कर लेने वाले तेजस्वी ही सच्चे अर्थों में ब्राह्मण कहलाते हैं ।। ब्राह्मणत्व का आधार गायत्री महाशक्ति ही है, ओजस् तेजस् एवं वर्चस की उपलब्धि गायत्री साधना के क्षेत्र में प्रवेश करने पर ही हस्तगत होती है ।।

(गायत्री महाविद्या का तत्वदर्शन- पृ)





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