कामबीज की सृजनात्मक शक्ति

नर- नारी को सामान्य सामाजिक स्तर पर अलग रहने की जरूरत नहीं है। जरूरत यौन सम्पर्क के सम्बन्ध में अति सतर्कता बरतने की है। मस्तिष्क के बाद जननेन्द्रिय का दूसरा स्थान है। इन दोनों केन्द्रों को शक्ति संस्थान कहना चाहिए। पृथ्वी के दो सिरे दो ध्रुव कहलाते हैं, इन ध्रुवों में अति रहस्यमय प्रकृति की शक्ति धाराओं के स्रोत बीज पड़े हैं। इन्हीं के कारण यह धरती अपनी धुरी पर घूमने, सूर्य की परिक्रमा करने, लहराती चाल से चलने, महासूर्य को अपने सौर मण्डल के साथ भ्रमण कराने में समर्थ है। ऋतु परिवर्तन से लेकर वनस्पति उत्पादन और खनिज द्रव्यों के निर्माण की सारी प्रक्रियाएँ उन्हीं उभय ध्रुवों में सन्निहित शक्ति बीजों के कारण सम्भव होती हैं। मनुष्य पिण्ड में पृथ्वी की ही तरह मस्तिष्क उत्तरी ध्रुव और मूलाधार दक्षिणी ध्रुव है। जीवन की चेतनात्मक, बौद्धिक एवं भावनात्मक हलचलों का केन्द्र मस्तिष्क है। और शरीर में जो कुछ उत्तम, आकर्षक दीखता है उसका केन्द्र जननेन्द्रिय के अन्तराल में दबा पड़ा है। यदि मस्तिष्क में विकृति आ जाय तो बुद्धिहीन व्यक्ति पागल की तरह अपने और दूसरे के लिए निरर्थक हो जायेगा। इसी प्रकार यदि मूलाधार के कामबीज विकृत हो जायें तो स्नायु मण्डल से लेकर पाचनतन्त्र तक सारा कार्य- कलाप लड़खड़ा जायेगा। इसलिए इन दोनों शक्ति संस्थानों का बहुत ही समझ बूझ कर अति दूरदर्शिता पूर्वक उपयोग किया जाता है। इस उपयोग में बरती गई भूलें बहुत ही विघातक सिद्ध होती हैं।

नर- नारी का सामान्य मिलन जितना ही उपयोगी है उतना ही वासनात्मक सम्पर्क से खतरा भी है। दोनों का स्वरूप और महत्व अलग- अलग है। प्रतिबंधित व्यक्ति सान्निध्य नहीं, यौन मिलन किया जाना चाहिए। यह ध्यान रखा जाय वासनाओं का उभार एक अलग चीज है, जिसका सामाजिक नर- नारी सम्पर्क से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं। पुरुष दुकानदारों के यहाँ सामान खरीदने दिन भर औरतें जाती और सामान खरीदती है। कोई विकार उत्पन्न नहीं होता न कोई किसी की ओर आकर्षित होता है। आकर्षण उस विशेष मन:स्थिति में उत्पन्न होता है जिसमें यौन सम्पर्क की अभिलाषा भी रहती है। यदि इस भावस्थल को पहले से ही निर्मल बना लिया जाय तो वय भले ही नवयौवन की हो, सामने वाले रूपवान पक्ष के लिए भी आकर्षण पैदा न होगा।

यह बचाव इसलिए आवश्यक है कि यौन संस्थानों में अद्भुत विद्युत धाराएँ प्रवाहित करने वाला शक्ति केन्द्र विराजमान है, जिसे मूलाधार चक्र कहते हैं। वस्तुत: यह नामकरण बहुत ही समझ बूझकर किया गया है। यही शरीर के अन्तर्गत काम करने वाले सारे क्रिया कलाप, उत्साह, स्फूर्ति, कोमलता, आकर्षण, आरोग्य जीवन आदि का मूल आधार है। इसकी अवांछनीय छेड़खानी करने से हम काम क्षमता को एक प्रकार से नष्ट- भ्रष्ट कर डालते हैं।

नर में प्राण और नारी में रयि शक्ति की प्रधानता है। उन्हें आध्यात्मिक भाषा में अग्रि और सोम कहते हैं। विज्ञान के शब्दों में इन्हें धन और ऋण विद्युतधारा पुकारते है। इनमें स्वभावत: आकर्षण है। एक दूसरे के समीप आकर अपनी अपूर्णता पूर्ण करना चाहते है। जहाँ तक सामान्य सम्पर्क का सम्बन्ध है वहाँ तक यह विनिमय उपयोगी है। सभी जानते है कि बिना बाप या भाई की लड़की और बिना माँ या बहिन का लड़का मानसिक दृष्टि से अपूर्ण अविकसित पाये जाते हैं। प्रतिपक्षी वर्ग का सम्पर्क व्यक्तित्व के विकास के अनेक द्वार खोलता है। एकाकी अलग- थलग पड़ा जीवनक्रम कुंठित और मूर्छित होता चला जाता है। विधवा और विधुरों की मृत्यु संख्या रोगग्रस्तता एवं शारीरिक दुर्बलता विवाहितों की अपेक्षा कहीं अधिक पाई जाती है। पर्दे में रहने वाली महिलाएँ हर दृष्टि से पिछड़ती चली जाती हैं। यह सामान्य प्रतिपक्षी सम्पर्क से वंचित होने का ही दुष्परिणाम है। यदि जन सम्पर्क में नर- नारी जैसी बाधा उपस्थित न की जाय तो इससे व्यक्तित्वों के विकास में बाधा उत्पन्न नहीं होगी वरन् सहायता ही मिलेगी।

यदि मन में काम- विकार जाग पड़े तो प्रतिपक्षी वर्ग के साथ सामान्य सम्पर्क की मर्यादा तोड़कर यौन सम्बन्ध स्थापित करने की अभिलाषा होती है। दोनों विद्युत धाराएँ समीप आने के लिए मचल उठती हैं और उससे सामाजिक काम- विकृति तो प्रत्यक्ष ही फैलती है। शारीरिक, मानसिक गड़बड़ी भी कम नहीं उभरती। व्यभिचार के पीछे एक तथ्य तो स्पष्ट है कि सामान्य स्तर के व्यक्ति अपने दाम्पत्य जीवन तथा परिवार के प्रति निष्ठावान् नहीं रहते। दूसरी जगह आकर्षण चला जाने में अपना परिवार उस स्नेह सौजन्य के लाभ से वंचित होने लगता है जो सामान्यतया किसी सद्गृहस्थ के लिए आवश्यक है। परिवार व्यवस्थाएँ गड़बड़ाने न लगें। गृहस्थ अपनी- अपनी धुरी पर टिके रहें इस दृष्टि से व्यभिचार को हेय माना गया, पर यह कोई अविच्छिन्न मर्यादा नहीं है। आवश्यकतानुसार इसमें हेर- फेर भी होते रहते हैं। जर्मनी में जब पिछले महायुद्ध के समय पुरुष बहुत मारे गए और नारियों की संख्या अधिक रह गई तो तत्कालीन स्थिति को देखते हुए एक पुरुष कई पत्नियाँ रख सके, कानून में ऐसे सुधार किये गए। सामान्यतया ईसाई देशों में एक पत्नी एक पति का ही कानून रहता है। इसी प्रकार देहरादून जिले के जौनसार बाबर क्षेत्र के पहाड़ी इलाकों में यह आम रिवाज है कि भाइयों में से एक बड़े भाई का विवाह होता है, जो पत्नी आती है वह सब छोटे भाइयों की भी उपपत्नी होती है। बच्चे उन जन्मदाताओं को बड़े पिताजी, मँझले पिताजी, छोटे पिताजी आदि कहकर सम्बोधित करते हैं। वहां इस विवाह पद्धति को न कोई व्यभिचार कहता है न बुरा मानता है। उनका कहना है कि हम उन पाण्डवों की सन्तान हैं, जिनने एक द्रौपदी से ही पाँचों ने अपना दाम्पत्य जीवन निभा लिया था। जहाँ तक उथले स्तर पर बहुपतियों बहुपत्नियों का सम्बन्ध है वहां तक उसे सामाजिक स्तर का परिवार जीवन में विकृति उत्पन्न करने वाला पाप ही कहा जा सकता है। यदि कहीं ऐसी गड़बड़ न होती हो और गृहस्थ सद्भाव यथावत् बना रहता हो तो उस दोष का परिमार्जन हो जाता है, जिसके कारण एक से अनेक का दाम्पत्य जीवन गर्हित या वर्जित घोषित किया गया है। कृष्ण ने बहुपत्नी और द्रौपदी ने बहुपति का सफल प्रयोग करके यह सिद्ध कर दिया था कि पारिवारिक जीवन में विकृति उत्पन्न किये बिना यौन सम्पर्क को विस्तृत किया जा सकता है, पर यह हर किसी के बस की बात नहीं। इस प्रयोग में बहुत ऊंचे या बहुत नीचे व्यक्ति ही सफल हो सकते हैं अस्तु सामान्य समाज व्यवस्था में एक पत्नी या एक पति प्रथा का ही प्रचलन है जो उचित भी है और आवश्यक भी।

नर- नारी सम्पर्क की अभिवृद्धि में जो खतरा है उसे समझने के लिए हमें अधिक गहराई तक विचार करना होगा। सामाजिक मान के रूप में जहाँ तक परिवार विग्रह के कारण उत्पन्न अव्यवस्था का सवाल है, वहाँ यदि उच्चस्तरीय सम्पर्क हो तो उस सम्बन्ध में थोड़ी उपेक्षा भी की जा सकती है। पर इस सम्बन्ध में अधिक कड़ाई बरतने का अधिक महत्वपूर्ण कारण यह है कि यौन सम्पर्क से नर- नारी की अति महत्वपूर्ण विद्युत- शक्ति एक दूसरे में अति तीव्रता पूर्वक प्रवाहित होती है। यदि वह प्रवाह उपयुक्त न हुआ तो आन्तरिक क्षमता का भयानक ह्रास और विद्रूप प्रस्तुत होता है। शक्ति का नियम यह है कि अधिक स्वल्प समर्थता की ओर भागती है, दो तालाबों को यदि एक नाली खोदकर परस्पर मिला दिया जाय तो ऊंचे लेविल का पानी नीचे लेविल के तालाब की ओर बहना प्रारम्भ कर देगा और वह प्रवाह तब तक चलता रहेगा जब तक कि दोनों का पानी एक लेविल पर नहीं आ जाता। एक रोगी और दूसरा निरोग व्यक्ति यदि यौन सम्पर्क करेंगे तो प्रत्यक्षत: रोगी को लाभ और निरोग को हानि होगी। एक की सामर्थ्य दूसरे में प्रवाहित होगी और नर या नारी जो भी दुर्बल होगा लाभ में रहेगा और सबल को घाटा उठाना पड़ेगा। यह बात शरीर सम्बन्धी स्थिति पर जितनी लागू होती है उससे हजार गुनी अधिक मन:स्थिति पर लागू होती है। ओछे स्तर के दुष्ट, दुराचारी, व्यसनी और अनाचारी व्यक्तियों से यौन सम्पर्क बनाने वाला दूसरा पक्ष अपनी आत्मिक विशेषताओं को खोता चला जायेगा। इसी प्रकार मन्दबुद्धि और प्रतिभा सम्पन्नों के बीच इस प्रकार का प्रत्यावर्तन निश्चित रूप से समर्थ पक्ष के लिए हानिकारक सिद्ध होगा।

उच्चस्तरीय प्रतिभाओं से सम्पन्न व्यक्तियों में स्वभावत: कितने ही महत्वपूर्ण चेतन तत्व भरे पड़े हैं उन्हीं के आधार पर उन्हें आश्चर्यजनक सफलताएँ मिलती हैं। यदि उस शक्ति स्रोत को वे काम क्रीड़ा में खर्च करने लगे तो धीरे- धीरे अपना कोष समाप्त करते चले जायेंगे। इसलिए प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों को उच्चस्तरीय बौद्धिक अथवा आत्मिक गुण सम्पन्नों को ऐसे विनियोग करने से रोका गया है। ब्रह्मचर्य ऐसे लोगों के लिए अधिक आवश्यक है। घटिया शरीर स्थिति और मन:स्थिति का व्यभिचार करे तो उसे उतना घाटा नहीं है जितना मनोबल और आत्मबल सम्पन्न लोगों को। इस शरीर बल की तुलना में मनोबल का मूल्य अत्यधिक है। पुष्ट शरीर और दुर्बल शरीर का यौन सम्पर्क स्वस्थ पक्ष को थोड़ी सी ही शारीरिक क्षति पहुँचाता है पर मनोबल और बुद्धिबल तो प्रत्यक्ष प्राण है वह तनिक सा अवसर पाते ही प्रचण्ड प्रवाह की तरह विद्युत गति से दौड़ पड़ता है और निम्र स्तर के पक्ष में अपनी हानि कर लेता है। दुर्बल मनोबल वाला पक्ष थोड़ा लाभ उठा ले यह ठीक है, पर उससे प्राण शक्ति सम्पन्न पक्ष अपनी प्रतिभा खोकर उस प्रयोजन को पूरा कर सकने में असमर्थ हो जाता है जो अनेक दृष्टियों से अति महत्वपूर्ण होते हैं।

विवाह वस्तुत: व्यक्ति विनियोग की दृष्टि से अतीव सतर्कता के साथ ही किये जाने चाहिए। जोड़ा ठीक हो तो ही उसकी सार्थकता है अन्यथा उससे लाभ से भी अधिक हानि की सम्भावना रहती है। भोजन पका देने या बच्चे पैदा करने का लाभ उतना महत्व का नहीं जितना कि प्राणों के प्रत्यावर्तन का। जिसका व्यक्तित्व जितना घटिया होगा, गुण कर्म स्वभाव की दृष्टि से जिसका स्तर जितना नीचा है उसमें आन्तरिक क्षमता उतनी ही स्वल्प होगी। कई व्यक्ति शरीर से सुन्दर और पुष्ट दीखते हुए भी आन्तरिक दुर्बलताओं के कारण बहुत ही दीन- हीन होते है। इसके विपरीत शरीर से क्षीण दीखने वालों का प्राणबल भी आन्तरिक उत्कृष्टता के कारण बहुत प्रबल रहता है। यौन सम्पर्क से प्रत्यावर्तन शरीरों का नहीं प्राण का होता है। शक्ति का सूक्ष्म स्वरूप प्राण है, शरीर या कलेवर नहीं। प्राण की पुष्टि परिपक्वता केवल उत्कृष्ट व्यक्तित्वों और श्रेष्ठ प्रतिभा सम्पन्नों में ही सम्भव है।

काम विकार आँधी, तूफान की तरह आते हैं और बिना पात्र कुपात्र का भेद किये बादलों की तरह चाहे जहाँ बरस पड़ते हैं। यदि यह सम्पर्क वैध अथवा उपयुक्त नहीं है तो इससे बहुत प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न होंगी। विवाह हो या व्यभिचार प्राण शक्ति का विनियोग समान रूप से अपना वैज्ञानिक प्रभाव उत्पन्न करेगा। घटिया, स्तरहीन प्राण और ओछे व्यक्तियों के साथ सम्पर्क बनाकर न पत्नी को लाभ मिलेगा न प्रेयसी को। न पति का कल्याण है न प्रेमी का। यौन सम्पर्क एक प्रकार से अपनी शारीरिक मानसिक और आत्मिक पूँजी का आत्म समर्पण है। अविवेकपूर्वक चाहे जहाँ, चाहे जिसके साथ बिना उसकी आन्तरिक स्थिति को परखे, यदि शरीर समर्पण इन्द्रिय प्रेरणा से प्रेरित होकर किये जायेंगे तो उसमें समर्थ पक्ष को बहुत तरह की बहुत गहरी क्षति उठानी पड़ेगी। तनिक भी क्रीड़ा उसे बहुत मँहगी पड़ेगी। नर- नारी का समाज सम्पर्क यदि व्यभिचार तक बढ़ चले, तो निस्संदेह वह बहुत हानिकारक है इससे मनोबल उन्नत न होगा बहुत घाटे में रहेंगे, प्रतिभाएँ कुंठित होती चली जायेंगी और उच्च व्यक्तित्वों के दुर्बल होने से समाज को भारी क्षति होगी। यो शरीर सम्पर्क की मर्यादा का व्यतिक्रम भी कम हानिकारक नहीं है। सामान्य व्यक्तियों को भी बहुत दिन बाद यदा- कदा ही काम सेवन की बात सोचनी चाहिए यदि वे आये दिन इसी मखौल में उलझे रहे और अपने ओजस् को गन्दी नालियों में बहाते रहे, तो उन्हें शारीरिक रुग्णता और दुर्बलता का शिकार ही नहीं बनना पड़ेगा, बल्कि मनोबल, आत्मबल और प्राणशक्ति की पूंजी से भी हाथ धोना पड़ेगा। काम सेवन में जिनकी अति प्रवृत्ति है वे अपनी ही पूंजी नहीं चुकाते वरन् साथी का भी सर्वनाश करते हैं। अपने समाज में नारी की शारीरिक और मानसिक दुर्गति का एक बहुत बड़ा कारण उनके पतियों द्वारा बरती जा रही अत्याचारी रीति- नीति है, जिसके कारण उन्हें विवश होकर अपने अच्छे खासे स्वास्थ्य की बर्बादी सहन करनी पड़ी, यदि संयम से गृहस्थ जीवन चलाया गया होता तो न कोई नारी बन्ध्या होती न किसी को प्रदर जैसे रोगों का शिकार बनना पड़ता। जितनी सन्तान भली प्रकार पालित नहीं की जा सकती उतनी पैदा करके गृहस्थ जीवन का उद्देश्य और आनन्द नष्ट कर लेना भी यौन सम्पर्क की मर्यादाओं का अतिक्रमण ही है। ऐसे अविवेकी साथी को पाकर किस गृहस्थ को विवाह का आनन्द मिलेगा।

जननेन्द्रियों का सम्पर्क ही काम उल्लास नहीं है। वरन् उच्च भावना सम्पन्न व्यक्तित्वों का परस्पर आन्तरिक आदान- प्रदान ही वह आनन्द प्रदान कर सकता है, जिसे भौतिक जगत का सर्वोपरि सुख माना गया है और जिसकी तुलना ब्रह्मानन्द से की गई हैं। प्रकृति और पुरुष का संयोग ही इस सृष्टि में आनन्द और उल्लास की तरंगे प्रवाहित कर रहे हैं। केवल उच्चस्तरीय भावनाओं से सम्पन्न नर- नारी ही एकान्त मिलन का वह आनन्द ले सकते हैं जो शक्ति को किसी तरह नष्ट नहीं करता वरन् असंख्य गुनी बढ़ा देता हैं, काम सेवन आमतौर से हानिकारक ही माना गया है पर उन अपवादों से लाभदायक शक्ति संवर्धक और उत्कर्ष में सहायक भी सिद्ध हो सकता है। नहीं तो उन आत्माओं का शारीरिक ही नहीं आत्मिक मिलन भी सम्भव होता है। पर ऐसा होता कहाँ है? ऐसे जोड़े मिलते कहाँ है? जब तक वैसी स्थिति प्राप्त न हो, केवल इन्द्रिय सुख के लिए काम सेवन एक क्षणिक आवेश और हानिकारक कार्य ही सिद्ध होता है। इसलिए यौन सम्पर्क में बहुत ही सावधानी बरतने और जहाँ तक सम्भव हो ब्रह्मचर्य पालन करने की मर्यादा नियंत्रित की गई है। वही सर्वोपयोगी भी है।