संतवाणी-आद्य शंकराचार्य

July 2000

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देह और लोक के अतिक्रमण का विज्ञान-धर्म

संसार के अन्य धर्म-संप्रदायों की तरह भारतीय अथवा हिंदू या सनातन धर्म किसी एक आचार्य, प्रवर्तक या ईशपुत्र की देन नहीं है। एक सुदीर्घ परंपरा के क्रम में इसका वर्तमान स्वरूप उभरकर आया है। इस परंपरा में वैदिक वाङ्मय जिन ग्यारह सौ से ज्यादा ऋषि-मुनियों के अनुभवों का निचोड़ है, के साथ दर्शन, पुराण आदि ग्रंथ, चौबीस अवतार, हजारों देवी-देवताओं को सम्मिलित किया जा सकता है। हिंदू या सनातन धर्म का उल्लेख आने पर जब यह कहा जाता है तो कोई अत्युक्ति नहीं होती कि यह अस्तित्व मात्र का धर्म है। सृष्टि में जहाँ और जिस रूप में भी जीवनसत्ता व्यक्त हुई है, उसका सत्य तथा अनुभव इसमें समाहित है।

ईसाइयत, इस्लाम, पारसी, ताओ आदि धर्म-परंपराओं का समावेश भी हिंदू-परंपरा में होता है, इन धाराओं के लिए भारतीय धर्म परंपरा में कहीं न कहीं स्थान मिल जाता है। सनातन परंपरा के परिप्रेक्ष्य में देखें तो सभी धर्म-संप्रदाय और उनका तत्वदर्शन विराट् भारतीय दर्शन के अंग-अवयव की तरह लगते हैं। अंग-अवयव अथवा स्वजन-संबंधी एक शरीर या परिकर में रह सकते हैं, लेकिन शरीर या परिवार का निर्वाह उन इकाइयों में नहीं होता। दसियों धाराओं और पद्धतियों का समावेश अनादि-अनंत भारतीय धर्म-परंपरा में आसानी से हो जाता है।

आधुनिक युग में उस धर्म-परंपरा का जो सर्वत्र संव्याप्त रूप दिखाई देता है, उसे आदि शंकराचार्य ने अंतिम रूप से परिभाषित किया। योग, वेदाँत, साँख्य, न्याय, मीमाँसा, वैशेषिक दर्शन सहित विभिन्न देवी-देवताओं और विश्वासों को उन्होंने एक क्रम में गूँथा। उनसे पहले धर्म-दर्शन का बिखरा हुआ रूप ही मिलता है। समीक्षक यह मानते हैं कि आदि शंकराचार्य से पहले इस तरह का प्रयत्न महर्षि वेदव्यास ने ही किया था। वैदिक मंत्रों, सूक्तों और संहिताओं के संकलन, पुराणों के संपादन और दर्शन-ग्रंथों को व्यवस्थित करने के प्रचंड पुरुषार्थ ने उन्हें वेदव्यास की उपाधि से विभूषित किया। शंकराचार्य की द्विता, सिद्ध स्थिति और निरंतर संघर्षशीलता ने उन्हें वेदव्यास से भी उच्च आसन पर प्रतिष्ठित किया। उनके संबंध में कथा प्रसिद्ध है कि महर्षि वेदव्यास स्वयं उनसे मिलने आए थे। ब्रह्मसूत्रों की व्याख्या लिखते देख उन्होंने आचार्य शंकर की परीक्षा ली और उनकी प्रतिभा से चमत्कृत होकर आशीर्वाद दिए। उस समय आचार्य शंकर की आयु मात्र सोलह वर्ष थी। थोड़ा-सा जीवन लेकर अवतरित हुई इस विभूति के लिए महर्षि वेदव्यास ने आशीर्वाद दिया कि वे इतना ही जीवन और जिएँ। शेष अवधि में उन्होंने धर्म-संस्कृति की रक्षा के लिए चारों दिशाओं में संगठन खड़े किए।

आदि शंकराचार्य की जीवनलीला संक्षेप में इस प्रकार हैं उनके स्थापित किए मठों की परंपरा मानती है कि शंकराचार्य का आविर्भाव कम-से-कम ढाई हजार वर्ष पहले हुआ। काँची कामकोटि मठ में इसी बीच हुए आचार्यों अर्थात् शंकराचार्य के उत्तराधिकारियों के विवरण भी मिलते हैं, लेकिन इतिहासकार उन्हें प्रामाणिक नहीं मानते। विभिन्न सूत्रों, संदर्भों और प्रमाणों से आचार्य शंकर का समय सातवीं-आठवीं शताब्दी के आखिरी और पहले सोलह वर्ष निश्चित किए हैं। बत्तीस वर्ष जीकर अपनी प्रतिभा से दिग्दिगंत को आलोकित कर गए शंकराचार्य कुल-परंपरा से शैव थे। पिता का निधन पुत्र के जन्म से कुछ समय बाद ही हो गया।

छोटी उम्र में ही उन्होंने संन्यास ले लिया। नर्मदा नदी के तट पर अमरकंटक में उनने गोविंद भगवत्पाद से शास्त्र पढ़े। बारह वर्ष की उम्र में उन्होंने शास्त्र आदि पड़कर विभिन्न तीर्थों की यात्राएँ कर ली। उन दिनों विद्वान, पंडित और आचार्य व्यर्थ के वितंडवाद में ही उलझे रहते थे। शब्दों की खाल निकालना और शास्त्रार्थ में दूसरे को पराजित कर विजय-गर्व से चूर हो जाने तक ही उनकी रुचि युक्ति अपनाई और उन पंडितों, विद्वानों को परास्त कर संगठन-शिक्षण के काम में लगाया। लोगों के मन-मस्तिष्क में छाया हुआ निरा बुद्धिवाद जड़-मूल से नष्ट हो गया।

भाष्य, स्तोत्र, प्रकरण और तंत्र आदि विधाओं में विविध ग्रंथों की रचना के साथ धर्म को संगठित रूप देकर आचार्य शंकर ने सभी स्तरों पर भारतीय धर्म को आत्मनिर्भर बनाया। उसे अपने पाँवों पर खड़ा किया। भगवद्गीता, उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र की कसौटी पर कोई मत या विचार खरे हों तो ही ऋषिसम्मत है, यह मान्यता उन्हीं के समय स्थिर हुई। यह कसौटी निश्चित हो जाने के बाद इच्छा और सुविधा के लिए मनमाने संप्रदाय चला देने की उच्छृंखल प्रवृत्ति पर अंकुश लगा।

आचार्य शंकर के प्रतिपादनों से भारतीय धर्म-संप्रदाय का जो स्वरूप उभरकर आया है, उसे ‘अद्वैत वेदाँत’ कहते हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक और दार्शनिक अल्बर्ट आइंस्टीन मानते थे कि अद्वैत वेदाँत दर्शन शास्त्र का शिखर है। बुद्धि की कोई भी क्षमता इससे आगे नहीं जा सकती है। वहाँ समस्त प्रतिभा, योग्यता और सिद्धियाँ क्षीण हो जाती है।

अद्वैत वेदाँत की प्रारंभिक कक्षा में साधक को सिखाया जाता है कि सारा संसार परमात्मसत्ता की एक क्रीड़ास्थली है। संसार को माया, स्वप्न, प्रतीति मात्र और प्रवंचना बताने वाली मान्यता का अर्थ वास्तविकताओं से पलायन नहीं है। बहुधा मायावाद का अर्थ यह किया जाता है कि यह संसार माया है, मिथ्या है, इसलिए कुछ भी करना आवश्यक नहीं है। सिर्फ यह जान लेना ही काफी नहीं है कि गंधन और विकार झूठ है। उनका कहीं कोई अस्तित्व नहीं है। इस पलायनवादी वेदाँत का आचार्य शंकर ने अपने प्रतिपादनों से ही नहीं, आचरण और कृतित्व से भी खंडन किया। बत्तीस वर्ष की उम्र में उन्होंने धर्म-दर्शन को, विचार और संगठन के स्तर पर जितना सुसंबद्ध कर दिया, वही अपने आप में कर्मण्यता का विलक्षण प्रमाण है। इतना प्रचंड पुरुषार्थ व्यक्तित्व पलायनवादी दर्शन का प्रवर्तक कैसे हो सकता है ?

आचार्य शंकर ने कहा है कि साधना एक समर है। इसमें साधक को संकल्प और शक्ति के साथ उतरना होता है। स्वामी रंगनाथानंद ने आचार्य शंकर के मत का परिचय देते हुए लिखा है, “वे पूर्णता की यात्रा के रूप में मानव जीवन की क्रियाशील दृष्टि प्रस्तुत करते हैं। यह यात्रा के रूप में मानव जीवन की क्रियाशील दृष्टि प्रस्तुत करते हैं। यह यात्रा दो दिशाओं की है। एक बाहरी जगत् में होती है, देश और काल इसका क्षेत्र है। दूसरी यात्रा अंतर्जगत् में है, यह देश और काल का अतिक्रमण करती है। आचार्य शंकर दोनों ही दिशाओं को संतुलित करते हुए संपूर्ण जीवन की प्रेरणा देते हैं।”

“आचार्य शंकर ने संसार के मित्यात्व का प्रतिपादन करते हुए संसार के उपराम होने पर जोर दिया होता तो वे धर्म का अर्थ अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति का मार्ग कभी नहीं बताते। भगवद्गीता पर भाष्य लिखते हुए आचार्य ने भूमिका में ही कह दिया कि जिससे इस लोक में उन्नति (अभ्युदय) और आँतरिक जगत् में कल्याण (निःश्रेयस) की प्राप्ति हो, वही धर्म है। भगवद्गीता पर शंकर का भाष्य सबसे पुराना है। सात सौ श्लोकों और अठारह अध्यायों में विभक्त टीका के आधार पर ही गीता का पाठ सुनिश्चित हुआ है।”

समस्त समस्याओं का मूल अपने मन में ही है। आचार्य शंकर ने विभिन्न उदाहरणों, प्रमाणों और तर्कों से यह समझाया। कछुआ जिस तरह अपने पैरों को फैलाता और समेटता है, उसी प्रकार मनुष्य भी अपनी इच्छाओं, वासनाओं का विस्तार और संकोच करता है। मकड़ी जैसे अपने भीतर से ही लार निकलती और जाल बुनती है, फिर उसी में फँस जाती है, उसी तरह मनुष्य जिन समस्याओं या स्थितियों से उलझकर उनमें फँस जाता है, वे भी उसके मन से ही निकलती है।

कठोपनिषद् में मानवीय कलेवर को रथ के रूपक से समझाया गया है। उस रूपक के अनुसार शरीर रथ है। इंद्रियाँ घोड़े हैं, बुद्धि सारथी है, मन लगाम है और आत्मसत्ता उस रथ में बैठा हुआ यात्री। आचार्य शंकर कहते हैं कि विषय सुख वह मार्ग है जिससे पर रथ दौड़ा जाता है समझदार सारथी यदि लगाम और घोड़ों को साधे रहे तो शरीर-यात्रा सकुशल संपन्न होती चली जाती है अन्यथा बेलगाम घोड़े शरीर को यहाँ-वहाँ भगाते और बर्बाद करते रहते हैं।

स्वतंत्रता या मुक्ति कहीं बाहर से नहीं आती, वह अपने भीतर ही छुपी हुई है। सिर्फ उसे उद्घाटित करना होता है। आचार्य शंकर ने लिखा है कि मनुष्य अपने अंदर ही उस सुगंध से मुग्ध है, जो सदा से उसके अंदर विद्यमान है, पर वह उसका स्त्रोत नहीं जानता। नाभि में छुपी हुई कस्तूरी को हिरण जिस तरह देख नहीं पाता और उसकी गंध से आकर्षित होता रहता है। गंध से विमोहित हुआ मृग उसे पाने के लिए यहाँ-वहाँ भागता रहता है। उसे पाने के लिए छटपटाता है। मनुष्य को भी उसके भीतर निहित स्वतंत्रता अपनी गंध से अशाँत किए रहती है।

रामकृष्ण मिशन कि स्वामी रंगनाथानंद जी ने लिखा है कि भीतर निहित इस गंध की खोज में ही मनुष्य ने सभ्यता का विकास कर लिया है। खोज की यात्रा में निकले मानवीय चित्त ने हर उपलब्धि को आगे बढ़ने की सीढ़ी बनाया है। एक सीढ़ी चढ़ने या उपलब्धि अर्जित करने के बाद वह आगे चलता चला गया। यद्यपि उसे अपने लक्ष्य का बोध फिर भी नहीं हुआ। यात्रा जारी रही। इस यात्रा के दौरान ही उसने विद्या, गुण, सभ्यता और संस्कृति का विकास कर लिया।

समस्याओं और द्वंद्वों से मुक्ति के लिए मनुष्य को खोज की दिशा बाहर से भीतर की ओर मोड़नी चाहिए। अपने भीतर गहनतर स्तरों में प्रवेश करने के बाद मनुष्य अस्तित्व के वैभवशाली रूपों को प्राप्त करता जाता है। आचार्य शंकर ने कहा है कि जब मनुष्य अपनी इंद्रियों और उससे बंधे मन को शाँत करने में सफल हो जाता है, उसकी आत्मसत्ता उद्घाटित होने लगती है। वह विलक्षण शक्तियों का स्वामी हो जाता है। आत्मचेतना उसके अपने रहस्य खोलने लगाती है। आशय यह है कि अपने आप को केंद्र बनाना चाहिए। आत्मसत्ता में ही कारण और निवारण दोनों तलाशने चाहिए।

धर्म आचार्य शंकर के लिए लौकिक जगत् का नियंता और आँतरिक जगत् का वैभव दोनों ही है। दोनों का परस्पर विरोध नहीं है, बल्कि वे एक-दूसरे के पूरक है। आचार्य शंकर ने इस जगत् को निंदनीय और त्याज्य नहीं बताया, बल्कि वैभव के बीच रहते हुए ही उसके अतिक्रमण का उपदेश दिया। उनके द्वारा स्थापित चार मठों का विधान जिस रचना में मिलता है, उसमें संन्यासी को संसार में रहते हुए भी उसमें लिप्त न हो जाने का निर्देश है। ‘महानुशासन’ में उन्होंने कहा है, “मठों को संपत्ति का संयम करना चाहिए, इतना अन्न होना चाहिए कि असहाय, पीड़ित और दरिद्रजनों को आश्रय दिया जा सके। मठों में दरिद्रता का नाम भी न दिखाई दे। आचार्य और संन्यासी उस वैभव का उपयोग धर्म-संस्कृति की रक्षा के लिए करें, स्वयं निर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो, उतना ही ग्रहण करें।”

आत्मा दुर्बल और अशक्त लोगों को नहीं प्राप्त होती। दरिद्र और रोगियों को भी नहीं मिलती। जिनका शरीर स्वास्थ्य, मन पुष्ट, बुद्धि प्रखर और अंतःकरण पवित्र हो उन्हीं को यह मिलती है। शंकराचार्य ने घर-परिवार छोड़कर भाग आए एक शिष्य से पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया। शिष्य ने कहा कि परिवार बंधन है ? उन्होंने पूछा फिर परिवार बसाया किसलिए था ? शिष्य ने कहा, उस समय यह ज्ञान नहीं था। शंकराचार्य ने कहा, अगर तुमने अज्ञान के कारण परिवार बसाया तो उस अज्ञान का दंड भुगता। परिवार बसाना यदि पाप है तो उस पाप का क्या होगा ? उस उलाहने के बाद उन्होंने कहा था कि न तो परिवार और ही यह समाज, बंधना के दायरे में आता है। तुम निर्बलता के कारण परिवार छोड़कर आए हो। जो व्यक्ति परिवार का दायित्व नहीं उठा सकता वह परमात्मा का दायित्व कैसे सह सकेगा ?

आचार्य शंकर छोटी उम्र में ही संन्यासी हो गए थे। उन्होंने माँ से संन्यास की अनुमति ली थी। आरंभ से ही मर्यादा रही है कि व्यक्ति अपने स्वजन-संबंधियों की सहमति से ही संन्यास ले सकता है। इस तरह का निर्णय लेने के लिए वह स्वतंत्र नहीं है। जन्म लेते ही मनुष्य जिन संबंधों और दायित्वों से घिरा होता है, जो शक्तियाँ उसे जगत् में लाने और जीवित रखने में निमित्त बनती हैं, उनका भी अधिकार होता है। व्यक्ति उनके अधिकारों की अवहेलना नहीं कर सकता। इन अधिकारों में माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी और संतान आदि की गणना होती है। शंकराचार्य के परिवार में माँ के सिवाय कोई नहीं था। अतः उन्होंने माँ से अनुमति ली।

विपदा में फँसे शंकर को माँ ने यह सोचकर अनुमति दे दी कि शायद इस तरह जीवनरक्षा हो जाए। माँ के अनुमति देते ही मगरमच्छ ने शंकर का पाँव छोड़ दिया। तट पर आकर शंकर ने माँ को प्रणाम किया और जाने लगा। माँ ने उन्हें विदा देने से पहले वचन लिया कि अंतिम समय में वे माँ के पास रहेंगे। माँ की अंत्येष्टि भी वे स्वयं ही करेंगे। शंकर ने वचन दिया एवं निभाया।

संन्यास लेने के बाद अपने पूर्व आश्रम के संबंधियों से संपर्क की मनाही है। शंकर ने यह जानते हुए भी वचन दिया था। वे अंतिम समय में न केवल माँ के पास आए, बल्कि उनका अंतिम संस्कार भी किया। एक संन्यासी अपनी माँ की अंत्येष्टि कर शास्त्र की मर्यादा तोड़ रहा है, यह कहते हुए आसपास के लोगों ने विरोध या। वे शवयात्रा में भी नहीं गए। आचार्य शंकर ने अपनी माँ के शव को अकेले कंधे पर उठाया। चिता सजाई, उस पर लिटाया और विधि-विधान से मुखाग्नि दी। शंकराचार्य के जीवन में इस तरह की कई घटनाएँ है, जो उनका क्राँतिकारी स्वरूप उजागर करती है। परंपराएँ जब विकास में बाधक बनने लगें तो उन्हें छोड़ देना चाहिए। लेकिन वह त्याग आवश्यक हो तभी किया जाए। उच्छृंखलता या मनमानी के लिए किया गया त्याग न तो प्रगतिशीलता की निशानी है और न ही उपयोगी।

आचार्य शंकर ने अपने समय की उद्भट विद्वान् भारती मिश्र से एक वर्जित विषय पर शास्त्रार्थ किया। संन्यासी के लिए निषिद्ध उस विषय का देहातीत अनुभव किया और भारती का समाधान किया। इसके बाद एक और मर्यादा का अतिक्रमण किया, जिसके अनुसार स्त्री को संन्यास की दीक्षा नहीं दी जा सकती थी। इस वर्जना को एक ओर छोड़कर शंकराचार्य ने भारती मिश्र को संन्यासी वेश पहनाकर अपने शिष्य-समुदाय में सम्मिलित किया।

शंकराचार्य मनुष्य के भीतर विद्यमान महत् तत्व को उद्बोधित करते हैं। अपने प्रतिनिधि ग्रंथ विवेक चूड़ामणि में वे शिष्य से कहते हैं, जाति-नीति-कुल-गोत्र आदि भेदों से अति दूर, नाम-रूप-गुण दोषों से वर्जित, देशकाल और विषयों की सीमाओं से परे ब्रह्म है। वह ब्रह्म तू है। अपने भीतर तू उसी का ध्यान कर।

आगे के उपदेशों में वे यह भी कहते हैं, “ब्रह्म बहुत महान् है, सब से महान्। आश्वस्त हुआ जा सकता है कि मनुष्य का शरीर उसे प्राप्त करने में सक्षम है। प्रकृति ने यह शरीर इसीलिए रचा है। शरीर यदि अनित्य और नाशवान है तो और भी अच्छा। एक बार यह अच्छी तरह समझ लो तो तुम्हें जीवन का सत्य पा लेने की आवश्यकता अनुभव होने लगेगी। मुमुक्षा तीव्र और बलवती हो जाएगी।”


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