चरम विकास का द्वार है आज्ञाचक्र

January 1999

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षट्चक्रों में आज्ञाचक्र का स्थान सर्वोपरि है। उसे सर्वप्रमुख इसीलिए माना गया है कि ध्यान चाहे अन्तः या बाह्य किसी भी केन्द्रबिन्दु पर एकाग्र किया जाए, वह तल्लीनता के स्तर के अनुसार कम-ज्यादा अवश्य प्रभावित होता है, इस कारण साधना-अभ्यासों में चक्र-जागरण के क्रम में सबसे पहले उसे जागने का विधान हैं।

इसे गुरुचक्र भी कहते है। ज्योतिष में आज्ञाचक्र बृहस्पति का केन्द्र है। इसे गुरु का प्रतीक-प्रतिनिधि माना गया है। बृहस्पति देवताओं के गुरु है, अस्तु, साधना ग्रन्थों में इसे गुरुचक्र के नाम से अभिहित किया गया है। इसका आज्ञाचक्र नाम क्रियामूलक है। आज्ञा का अर्थ ‘आदेश’ होता है। आदेश हमेशा स्वामी या नियन्ता की ओर से आता है। इस दृष्टि से यह सम्पूर्ण चक्रसंस्थान का नियंत्रणकर्ता हुआ।

इसका एक नाम ज्ञान या दिव्य चक्षु है। गोचर ज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण आधार स्थूल नेत्र हैं इनसे भौतिक जगत की आकृति, प्रकृति और स्वरूप का दिग्दर्शन किया जा सकता है, किंतु जो सूक्ष्मजगत या नतः प्रकृति है, उसको जान पाना इनकी सामर्थ्य से परे है। इस गहराई में उतर पाने की क्षमता सिर्फ दिव्य चक्षु में है। चूँकि इसके माध्यम से व्यक्ति चेतना के सूक्ष्म तथा अतीन्द्रिय आयाम में पहुँचता है, इसलिए इसको अलौकिक या अतीन्द्रिय नेत्र भी कहा जाता है।

शंकरजी का सबसे प्रसिद्ध नाम ’तृतीय नेत्र’ है। शंकर एवं दुर्गा की प्रतिमाओं में इस तीसरे नेत्र का चित्रण अक्सर किया जाता है। इसके पीछे एक उच्चस्तरीय तत्त्वदर्शन है। तीसरी आँख अर्थात् दूरदर्शिता। प्रायः लोग अदूरदर्शी होते है। तनिक-से लाभ के लिए अवांछनीय कार्य करते और मर्यादाएँ तोड़ते है, फलस्वरूप उसके चिरकाल तक कष्ट देने वाले दुष्परिणाम भुगतते है। दूरदर्शिता मनुष्य को किसान, विद्यार्थी, माली, पहलवान, व्यापारी आदि के समान बुद्धिमान बनाती है, जो आरंभ में तो कष्ट सहते है, पर पीछे महत्वपूर्ण लाभ उठाते है। यह दूरदर्शिता यदि किसी को उपलब्ध हो सके; तो वह जीवन-सम्पदा का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की योजना बनाएगा और इस सुरदुर्लभ अवसर का समुचित लाभ उठाकर धन्य बनेगा।

शंकरजी के तीसरे नेत्र के पीछे कथा है उसके अनुसार एक बार उन्हें काम-विकार ने पथभ्रष्ट करने का प्रयत्न किया था। उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोला और उस विकार को जलाकर भस्म कर दिया। इस अलंकार का भावार्थ इतना ही है कि अदूरदर्शिता के कारण जो बात बड़ी आकर्षक एवं लुभावनी लगती है, वही विवेकशीलता की कसौटी पर कसने से विषतुल्य हानिकारक लग सकती है। जब किसी बात की, वस्तु की हानि स्पष्ट हो जाए, तो उसके प्रति घृणा का उभरना और परित्याग करना स्वाभाविक है। जिस प्रकार शिवजी ने कामदेव को तृतीय नेत्र के सहारे जलाकर अपने ऊपर बरसने वाली विपत्ति से छुटकारा पा लिया था, उसी प्रकार जिस किसी को भी यह दूरदर्शिता प्राप्त होगी, वह अवांछनीय आकर्षणों से आत्मरक्षा करके उज्ज्वल भविष्य की संरचना कर सकेगा। आमतौर पर यह तृतीय नेत्र बन्द प्रसुप्त रहता है, उसका जागरण एवं उन्मीलन करना ही साधना-उपचार का उद्देश्य है।

साधना-विज्ञान के आचार्यों का मत है कि आज्ञाचक्र का जो स्थान है, वहाँ इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना नामक तीन प्रमुख नाड़ियाँ मिलती है तथा एक प्रवाह के रूप में चेतना के सर्वोच्च केन्द्र सहस्रार तक पहुँचती है। यह मिलन त्रिवेणी संगम की तरह है। संगम की महिमा का बखान करते हुए शास्त्रों में कहा गया है। कि जो इसमें अवगाहन करते है, उनका कायाकल्प हो जाता है, वे बाहर से भले ही ज्यों-के-त्यों दीखें, उनका अन्तर्गत पूरी तरह परिवर्तित होता है।

आज्ञाचक्र में जब ध्यान को एकाग्र किया जाता है, तो तीन बड़ी शक्तियों के मिलन के फलस्वरूप व्यक्तिगत चेतना का रूपान्तरण विश्वचेतना में हो जाता है।

यह सच है कि अन्य चक्रों के उद्दीपन और जागरण से भी उच्चस्तरीय अनुभूतियाँ होती है, किन्तु विश्वचेतना में व्यष्टिचेतना का विलय-विसर्जन नहीं होता। तब हमेशा अनुभूतियों के साथ-साथ साधक को अपने आपे का भान बना रहता है। यह प्रगति-मार्ग में बहुत बड़ा अवरोध है। जब तक इसे गला नहीं लिया जाता, तब तक इड़ा,पिंगला, सुषुम्ना का पारस्परिक मिलन संभव नहीं। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि जब इनका संगम होता है, तो अहंभाव का लोप हो जाता है, वैयक्तिक चेतना व्यापक और विस्तृत बनती तथा वह विश्वव्यापी चेतना के साथ तदाकार हो जाती है। ऐसी स्थिति में साधक का अस्तित्व-बोध पूर्णतया समाप्त हो जाता है। इसका यह अर्थ नहीं कि व्यक्ति संज्ञाशून्य हो जाता है। केवल इतना होता है कि जो चेतना पहले एक सीमित दायरे में सीमाबद्ध थी, वह उस परिधि को तोड़ देती और द्वैत दशा से अद्वैत भाव में अवस्थान करने लगती है। यही है व्यक्तिगत चेतना का विलुप्त होना। आज्ञाचक्र के जागरण के बिना यह शक्य नहीं।

आज्ञाचक्र का स्थान यों तो भ्रूमध्य माना गया है; पर इसकी वास्तविक स्थिति दोनों भौंहों के मध्यवर्ती स्थान के ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी के एकदम ऊपर मेरुरज्जु और मस्तिष्क के संधि स्थल के करीब है। शुरू में इसके यथार्थ स्थान का पता लगा पाना मुश्किल होता है। इसलिए प्रारंभिक साधक उसके क्षेत्रम् पर ध्यान केन्द्रित करते है। यह ‘क्षेत्रम्’ और कुछ नहीं वरन् चक्रों को निरूपित करने वाले प्रतीक-प्रतिनिधि है। इन्हें चक्रों के उद्दीपन-बिन्दु का प्रतिबिम्ब कहा जा सकता है। मूलाधार को छोड़कर प्रायः हर चक्र का अपना एक चक्र क्षेत्रम् होता है। ये दोनों केन्द्र (वास्तविक चक्र एवं चक्र क्षेत्रम्) एक -दूसरे के एकदम सीध में तथा नाड़ियों के माध्यम से परस्पर सम्बद्ध होते है। अन्तर सिर्फ इतना होता है कि क्षेत्रम् शरीर के सामने वाले हिस्से में स्थित होते है। जबकि चक्रों की अवस्थिति शरीर के पृष्ठ में मेरुरज्जु एवं मस्तिष्क में है। द्वक्षेत्रम् पर ध्यान करने से एक संवेदनात्मक अनुभूति होती है, जो नाड़ियों के माध्यम से चक्रों तक पहुँचती और फिर मस्तिष्क की ओर आगे बढ़ जाती है।

आज्ञाचक्र का क्षेत्रम् मस्तक में उस स्थान पर है, जहाँ लोग तिलक, चन्दन या कुमकुम लगाते तथा स्त्रियाँ जहाँ बिन्दी अथवा सिन्दूर का टीका प्रयोग करती है। वास्तव में इस परम्परा के पीछे भी आज्ञाचक्र को उत्तेजित-जाग्रत करने का ही प्रयोजन निहित है।सिन्दूर पारे का उत्पाद है। उसे जब बिन्दी के रूप में माथे पर लगाया जाता है, तो भ्रूमध्य स्थित नाड़ी में उत्तेजना होने लगती है।यह ठीक उसी प्रकार की होती है, जैसी आज्ञाचक्र पर ध्यान के दौरान तिलक, चन्दन द्वारा चेतन-अचेतन रूप से आज्ञाचक्र के प्रति सजगता बनाये रखी जाती है, इसलिए इन्हें केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक चिन्ह ही नहीं माना जाना चाहिए, अपितु आत्मसत्ता के विज्ञानवेत्ता, सूक्ष्मदर्शी योगियों द्वारा अन्वेषित ऐसा आधार समझा जाना चाहिए, जो अपेक्षणीय प्रयोजन पूरे करते हों।

आज्ञाचक्र की संगति शरीरशास्त्री आप्टिकल कायजमा, पिट्यूटरी एवं पीनियल ग्रन्थियों के साथ बिठाते है। यह ग्रन्थियाँ के साथ बिठाते है। यह ग्रन्थियाँ भ्रूमध्य की सीध में मस्तिष्क में है। इनसे स्रवित होने वाले हारमोन स्राव समस्त शरीर के अति महत्वपूर्ण मर्मस्थलों को प्रभावित करते है, अन्यान्य ग्रन्थियों के स्रावों पर भी नियंत्रण करते है। इनकी विकसित एवं अविकसित स्थिति का पूरे व्यक्तित्व पर भला-बुरा प्रभाव पड़ता है। सामान्यतया इन रहस्यमयी ग्रन्थियों और उनके उत्पादनों को अतिमहत्त्वपूर्ण मानते हुए भी मानवी नियंत्रण के बाहर समझा जाता है। ऐसा कोई उपाय अभी हाथ नहीं लगा है कि इन ग्रन्थियों की स्थिति को सँभाला-सुधारा जा सके। यदि वैसा उपाय हाथ लगा होता, तो सचमुच ही मनुष्य को अपने हाथों, अपना व्यक्तित्व, भाग्य और भविष्य बनाने की कुँजी हाथ लग जाती।

कुछ अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार पीनियल और पिट्यूटरी ग्रन्थियाँ चक्र संस्थान के दो अलग-अलग चक्रों का प्रतिनिधित्व करती है। उनका कहना है। कि आज्ञाचक्र और पीनियल ग्रन्थि दोनों एक ही है, जबकि पिट्यूटरी ग्रंथि सहस्रार है। पीनियल और पिट्यूटरी ग्रन्थियों की ही तरह आज्ञाचक्र और शून्यचक्र (सहस्रार) में भी निकट का संबंध है। ऐसा समझा जाता है कि आज्ञाचक्र शून्यचक्र तक पहुँचने का एक मार्ग है। इस मार्ग में यदि किसी प्रकार की कोई अड़चन न आई तो सहस्रार का जागरण सरल हो जाता है और इस मार्ग में यदि किसी प्रकार की कोई अड़चन न आई तो सहस्रार का जागरण सरल हो जाता है और इस उन्नयन से होने वाली अनुभूतियों को सँभाल पाना आज्ञाचक्र जागरण के बाद सुगम होता है।

पीनियल ग्रन्थि को अंतःस्रावी संस्थान का नियन्ता (मास्टर ग्लैण्ड) कहा गया है। अन्य ग्रन्थियों के साथ-साथ पिट्यूटरी पर भी वह बन्ध की तरह चढ़ा होता है एवं उसकी बागडोर अपने हाथ रखता है। ऐसा देखा गया है कि 10-12 वर्ष की आयु से पीनियल का रस-स्राव आरंभ हो जाता है। इसके पश्चात् पिट्यूटरी क्रियाशील हो जाती है, जिसमें शेष अन्य ग्रन्थियों का क्षरण प्रारम्भ हो जाता है और रक्त में विभिन्न प्रकार के हारमोन आ-आकर मिलने लगते है। इससे आदमी में यौन भावना, क्रूरता, कठोरता, करुणा, उदारता, दया, प्रेम, घृणा, द्वेष जैसी भली-बुरी भाव−संवेदनाओं का उदय होने लगता है और व्यक्तित्व में साँसारिकता हावी होती जाती है, मनुष्य आध्यात्मिक अनुशासनों की अवहेलना करने लगता है एवं आध्यात्मिक जीवन से शनैः-शनैः दूर होता जाता है।

तत्त्ववेत्ताओं के अनुसार आज्ञाचक्र का मन से गहरा संबंध है। हमें अंतः दर्शन, स्वप्न या आध्यात्मिक अनुभूतियों के दौरान जो कुछ भी दिखलाई पड़ता है, उसका आधार यही है। मानसिक सजगता के लिए भी यहीं जिम्मेदार है। उठते, बैठते कार्य करते समय यदि व्यक्ति सजग नहीं है। तो इसका तात्पर्य यह है कि उसका आज्ञाचक्र निष्क्रिय दशा में है। उसकी क्रियाशीलता के साथ-साथ आदमी की तत्परता और जागरूकता बढ़ने लगती है।

लौकिक ज्ञान के लिए सामान्यता इन्द्रियों की सहायता देनी पड़ती है, लेकिन असाधारण दशा में इनके बिना भी जानकारी संभव है। ऐसा दिव्य चक्षु के जागरण से होता है। ज्ञान के भौतिक तरीके में इन्द्रियों द्वारा जो कुछ संदेश ग्रहण किया जाता है, उसे सीधे मस्तिष्क में सम्प्रेषित कर दिया जाता है। वहाँ उसका अध्ययन, वर्गीकरण और विश्लेषण होता है, तब हूँ यह विदित हो पाता है कि जो कुछ देखा जा सुना गया वह क्या था। दूसरा तरीका अतीन्द्रिय है। इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है।

आकाश मेघमालाओं से घिरा हुआ हो और बीच-बीच में बिजली कौंध रही हो, तो कोई भी व्यक्ति आसानी से यह अनुमान लगा सकता है कि वर्षा होने वाली है। यह इन्द्रिय ज्ञान हुआ। इसके विपरीत यदि बिलकुल आसमान साफ हो फिर भी कोई यह कहे कि बरसात अवश्य होगी और तीन घंटे बाद होगी, तो इसका एक ही अर्थ है कि उसकी अन्तःप्रज्ञा विकसित है। और आज्ञाचक्र उद्बुद्ध स्थिति में है।

यह एक ऐसा केन्द्र है, जिसके विकास के बाद व्यक्ति मन और शरीर स्तर पर घटने वाली घटनाओं एवं साँसारिक प्रसंगों के द्रष्टा भाव से देखा रहता है और जिन घटनाक्रमों से सर्वसाधारण लोग विचलित हो उठते है, वैसे प्रसंगों में भी वह तटस्थ बना रहता है। इस स्थिति में चित की चंचलता समाप्त हो जाती है, बुद्धि में पवित्रता और शुचिता का उदय होता है, आसक्ति का अवशेष तक नहीं रहता, संकल्पशक्ति अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाती है तथा सत्संकल्प पूरे होने लगते है, व्यक्ति में अतीन्द्रिय अनुभूतियों और सिद्धियों का चमत्कार प्रकट होने लगता है, उसके शाप-वरदान फलित होने लगते है; वाणी में ओज, मुखमण्डल पर तेज और आँखों में चमक विराजने लगती है। इनके अतिरिक्त अन्य अनेक प्रकार की विशेषताएँ साधक में प्रकट और प्रत्यक्ष होती दिखाई पड़ती है।

तन्त्रशास्त्र में आज्ञाचक्र को ‘शिव ग्रन्थि’ कहा गया है। यह आत्मविकास के मार्ग में प्रकट होने वाली आत्मिक विभूतियों पर तिजोरी के ताले की तरह है। साधक सिद्धियों के प्रति जब तक मोह भंग नहीं होता, तब तक यह ग्रन्थि प्रगति के आगे के पथ को अवरुद्ध बनाये रहती है, इसलिए आज्ञाचक्र से शून्यचक्र (सहस्रार) तक की विकास-यात्रा काफी कठिन होती है। जो साधक सिद्धियों के भ्रम-जंजाल में उलझ जाते है, उनके लिए चेतना के सर्वोच्च शिखर तक पहुँच पाना संभव नहीं होता, इसीलिए साधनाकाल के आरंभिक दिनों से ही योगाभ्यासियों को आकर्षणों के प्रति तीव्र वैराग्य, अनासक्ति और निर्लिप्तता का परिचय देते हुए कठोर आत्मसंयम का अभ्यास करना पड़ता है।

आज्ञाचक्र का प्रतीक दो पंखुड़ियों वाला कमल है। साधना ग्रन्थों में इसके पीला, हल्का भूरा तथा स्लेटी कई रंग बताये गए है। इसके बीजमंत्र ‘हं’ और ‘क्षं’ है, जो क्रमशः बायीं एवं दायीं पंखुड़ियों पर अंकित है। ये चमकीले श्वेत रंग के होते है। इनमें से एक चन्द्रमा अथवा इड़ा नाड़ी का एवं दूसरा सूर्य या पिंगला नाड़ी का प्रतीक है।

कमल के भीतर एक वृत होता है, जो शून्य का प्रतीक है। वृत्त के अन्दर एक त्रिकोण है, जो शक्ति की सृजनात्मकता तथा प्रकटीकरण का प्रतिनिधित्व करता है। त्रिकोण के एक सिरे पर एक काला शिवलिंगम् है। यह साधक के सूक्ष्मशरीर को निरूपित करता है। लिंगम् का रंग साधक के विकास और पवित्रता भेद के हिसाब से भिन्न-भिन्न हो सकता है।

विकास की प्रारंभिक अवस्था में लिंगम् धूम्रवर्णी होता है। यह बार-बार ध्यान में आता और जाता रहता है। गहरे ध्यान में जब मन की चंचलता एकदम शान्त हो जाती है, तो लिंगम् का रंग काला दिखाई देता है। इस पर ध्यान एकाग्र करने से प्रकाशमान ज्योतिर्लिंगम् प्रकट होता है।

शिवलिंगम् के ऊपर बीजमंत्र ‘ॐ’ है। शिव आज्ञाचक्र के देवता है। इसकी अधिष्ठात्री देवी ‘हाकिनी’ है। इसके छह मुख हैं, जो चन्द्रमाओं की तरह शीतल-स्निग्ध प्रतीत होते है। आज्ञाचक्र की यह सूक्ष्म संरचना और आकृति मनगढ़न्त अनुभव की गई सच्चाई है। प्रत्येक चक्र की पृथक् -पृथक् तन्मात्रा, ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ होती है। आज्ञाचक्र के लिए मन ही इन तीनों भूमिकाओं को निबाहता है। यहाँ मन को सूक्ष्म आधारों से ज्ञान और संकेत प्राप्त होते है। यह आधार वह इन्द्रियों नहीं होती, जो अन्य चक्रों के लिए सूचनाओं के स्रोत है।

आज्ञाचक्र के जागरण के समय का अनुभव बताते हुए तत्त्वदर्शी आत्मवेत्ता कहते है कि यह लगभग वैसा ही होता है, जैसा चरस, गाँजा, भाँग या एल.एस.डी. जैसे रसायनों के सेवन से प्राप्त होता है, पूर्ण जाग्रत स्थिति में जब भ्रूमध्य पर ध्यान एकाग्र किया जाता है, तो वहाँ दीपशिखा की भाँति एक ज्योति दिखाई पड़ती है। गहरे ध्यान में उतरने पर दो पंखुड़ियों वाली उसकी वास्तविक आकृति उभरने लगती है। इस चक्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि अलग-अलग चक्रों पर ध्यान करने जो पृथक्-पृथक् अनुभूतियाँ होती है, वह सब इस एक ही चक्र पर ध्यान के अभ्यास द्वारा अनुभव की जा सकती है।

आज्ञाचक्र के जागरण के बाद शेष चक्रों के उन्नयन के लिए दो प्रकार के क्रम अपनाये जाते है। एक में आज्ञाक्रम के उपरान्त विशुद्धि, अनाहत, मणिपूरित -इस क्रम में बढ़ते हुए मूलाधार तक पहुँचना पड़ता है, जबकि दूसरे में आज्ञाचक्र के बाद मूलाधार से शुरुआत कर ऊपर की ओर बढ़ते हुए स्वाधिष्ठान, मणिपूरित, अनाहत होकर विशुद्धि तक पहुँचते है। इन दोनों में से किसी को भी रुचि और सुविधा के अनुसार अपनाया जा सकता है, पर दोनों ही क्रमों में आज्ञाचक्र का प्रथम जागरण अनिवार्य है, अन्यथा दूसरे चक्रों के विकास से उत्पन्न हुई शक्ति को सँभाल पाना कठिन होगा।

आज्ञाचक्र जगाने के यों तो त्राटक शाम्भवी, मुद्रा अनुलोम-विलोम प्राणायाम आदि कितने ही तरीके है; पर पवित्र जीवन और शुद्ध आचरण के बिना यह सब साधना-उपचार समयक्षेप करने वाले कवायद भर बनकर रह जाते है। ऐश्वर्य को पा के लिए स्वयं को अनश्वर के समकक्ष साबित करना पड़ता है। इससे कम में आत्मिक विभूतियाँ न तो किसी को मिली है, न मिलने वाली है।

चेतनात्मक विकास में आज्ञाचक्र को सहस्रार से पूर्व का महत्वपूर्ण पड़ाव माना गया हैं उसकी महत्ता और उपयोगिता इसलिए भी बढ़ जाती है कि उसे चरम विकास का द्वार कहते है। योगविद्या के अनुभवियों ने आज्ञाचक्र को हिमालय कहा है, तो सहस्रार को सुमेरु की संज्ञा दी है हिमालय गए बिना सुमेरु तक पहुँचने की कल्पना करना निरर्थक ही नहीं, निरुद्देश्य भी है। ऐसे में चक्रसंस्थान के अंतर्गत आज्ञाचक्र को सर्वाधिक महत्वपूर्ण शक्ति-केन्द्र की उपमा देना अनुचित नहीं, उचित ही है।


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