वेदकालीन महर्षियों की देन-ज्योतिर्विज्ञान

June 1998

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ज्योतिर्विज्ञान वेदकालीन महर्षियों की अलौकिक प्रतिभा की देन है। भारतीय विद्याओं में इसका अनूठा स्थान है। मनुष्य की संरचना और उसकी प्रकृति का इससे गहरा सम्बन्ध है। इसके अंतर्गत पिण्ड और ब्रह्माण्ड, व्यष्टि और समष्टि के सम्बन्धों का अध्ययन समग्र रूप से किया जाता है। ग्रह, नक्षत्र, तारे, राशियाँ मन्दाकिनियाँ, निहारिकाएं एवं मनुष्य, प्राणी, वृक्ष, चट्टानें आदि विश्वब्रह्माण्डीय घटक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से एक-दूसरे को प्रभावित-आकर्षित करते हैं। इन ग्रह-नक्षत्रों का मानव-जीवन पर सम्मिलित प्रभाव पड़ता है। वे कभी कष्ट दूर करते हैं, तो कभी कष्ट भी देते हैं। ये तत्व मनुष्य की सूक्ष्म संरचना एवं मनःसंस्थानों पर कार्य करते हैं और उसकी भावनाओं तथा मानसिक स्थितियों को अधिक प्रभावित करते हैं। ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन और उपयोग से ज्योतिषी को मानव-जीवन के सभी क्षेत्रों में गहरी अन्तर्दृष्टि प्राप्त हो जाती है।

प्रारम्भिक काल में ज्योतिर्विज्ञान अध्यात्म-विज्ञान की ही एक शाखा थी। अध्यात्म-विज्ञान की ही एक शाखा थी। इसे एक पवित्र विद्या माना जाता था। जिसका स्वरूप स्पष्टतः धर्मविज्ञान पर आधारित था। अपने इसी रूप में इसने चाल्डियन एवं मिश्री धर्मों तथा प्राचीन भार, चीन एवं पश्चिमी यूरोप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उस समय इसकी विश्वसनीयता असंदिग्ध मानी जाती थी और उसका प्रचार-प्रसार विश्व के समस्त भागों पर था, परन्तु मध्यकाल में ज्योतिर्विज्ञान पर अनेकों आघात हुए और अल्पज्ञ तथा स्वार्थी लोगों के हाथों पहुँच जाने पर इस विद्या की अवनति हुई। ज्योतिष की मूलभूत तत्वमीमांसा एवं उसके आध्यात्मिक तत्वदर्शन से उस समय के ज्योतिषी बहुत अंशों में अनभिज्ञ थे। उन्होंने ज्योतिर्विद्या के केवल उन सिद्धान्तों पर अमल किया, जिसका मेल नए यांत्रिक भौतिक विज्ञान के तथ्यों से बैठता था। उस समय केवल वहीं सिद्धान्त मान्य रहे जो दृश्य जगत की बाह्य भौतिक घटनाओं एवं तथ्यों पर आधारित थे। केपलर के ज्योतिष विज्ञान को ग्रहों की चाल पर आधारित मानने के कारण भी ज्योतिष विज्ञान की दुर्गति हुई।

वास्तव में इस विद्या के सिद्धान्तों का सुदृढ़ आधार अभौतिक एवं आध्यात्मिक है। इसे भौतिक यंत्रवाद और मात्र ग्रहों-तारों-राशियों एवं भावों का निर्धारण करने वाले एवं व्यवस्था-क्रम दर्शन वाले खगोलीय विज्ञान के आधार पर नहीं समझा जा सकता। इस शास्त्र के आविष्कर्ता भारतीय महर्षि रहे हैं, जो अलौकिक आध्यात्मिक शक्तियों से सम्पन्न थे। योग-विज्ञान जो कि भारतीय आचार्यों की विभूति माना जाता है, इसका पृष्ठाधार है। यहाँ ऋषियों ने योगाभ्यास द्वारा अपनी सूक्ष्म प्रज्ञा से शरीर के भीतरी ही सौरमण्डल के दर्शन किए और अपना निरीक्षण कर आकाशीय सौर मण्डल की व्यवस्था की। अंकविद्या जो इस शास्त्र का प्राण है, उसका आरम्भ भी भारत में ही हुआ। मध्यकालीन भारतीय संस्कृति नामक पुस्तक में श्री ओझा ने लिखा है, “भारत ने अन्य देशवासियों को जो अनेक बातें सीखायीं, उनमें सबसे अधिक महत्व अंकविद्या का है। संसार भर में गणित, ज्योतिष, विज्ञान आदि की आज जो उन्नति पायी जाती है। उसका मूल कारण वर्तमान अंक क्रम है। जिसमें 1 से 9 तक के अंक और शून्य इन 10 चिह्नों से अंक-विद्या का सारा काम चल रहा है। यह क्रम भारतवासियों ने ही निकाला और उसे सारे संसार ने अपनाया।

उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि प्राचीनतम काल में भारतीय ऋषि खगोल एवं ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान रखते थे। कतिपय विद्वान भारतीय ज्योतिष में ग्रीक प्रभाव मानते हैं, परन्तु विचार करने पर वास्तविकता कुछ भिन्न नजर आती है। प्राचीन भारत में ग्रीस देश से अनेक विद्यार्थी विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए आते थे और वर्षों रहकर भारतीय आचार्यों से भिन्न-भिन्न शास्त्रों का अध्ययन करते थे। जिससे अधिक सम्पर्क के कारण कुछ शब्द ई. पूर्व तीसरी शती में, कुछ छठी शती में कुछ 15-16वीं शती में ज्योतिष में मिल गए। भारत के ज्योतिर्विद् ईसवी सन की चौथी और 5वी शती में ग्रीस गए। इससे भी 5वी और छठी शती के प्रारम्भ में अनेक ग्रीक शब्द भारतीय ज्योतिष में आ गए।

समस्त विश्व ने भारत से जो अगणित-अनगिनत अजस्र अनुदान पाए, उसमें ज्योतिष का स्थान अद्वितीय है। डब्ल्यू. डब्ल्यू. हण्टर ने इण्डियन गजेटियर में साफ तौर पर लिखा है कि 8वीं शती में अरबी विद्वानों ने भारत से ज्योतिषविद्या सीखी और भारतीय ज्योतिष ‘सिद्धान्तों’ का सिन्दहिन्द नाम से अरबी में अनुवाद किया। अरबी भाषा में लिखी गयी ‘आदन उल अम्बाफितल कालूली अतवा’ नामक पुस्तक में लिखा है कि भारतीय विद्वानों ने अरबी के अंतर्गत बगदाद की राजसभा में जाकर ज्योतिष-चिकित्सा आदि शास्त्रों की शिक्षा दी थी। कर्क नामक एक विद्वान शक संवत् 694 में बादशाह अलमसूर के दरबार में ज्योतिष और चिकित्सा के ज्ञानदान के निमित्त गए थे।

भारतीय वांग्मय के प्राचीनतम ग्रन्थों में आयी ज्योतिर्विज्ञान की शब्दावली भी यही प्रमाणित करती है कि इसकी जन्मस्थली भारत ही है। ऋग्वेद संहिता में चक्र शब्द आया है, जो राशिचक्र का द्योतक है। द्वादशारं नहि तज्जराय (ऋक् 1-164-11) मंत्र में द्वादशारं शब्द 12 राशियों का बोधक है। प्रकरणगत विशेषताओं के ऊपर ध्यान देने से इस मंत्र में स्पष्टतया द्वादश राशियों का निरूपण देखा जा सकता है। इसके अलावा ऋग्वेद के अन्य स्थलों एवं शतपथ ब्राह्मण आदि ग्रन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि आज से-कम-से-कम 28,000 वर्ष पहले भारतीयों ने खगोल और ज्योतिषशास्त्र का मन्थन किया था। वे आकाश में चमकते हुए नक्षत्र पुँज, आकाश-गंगा निहारिका आदि के नाम-रूप-रंग-आकृति आदि से पूर्णतया परिचित थे।

‘अलबेरुनीज इण्डिया’ के पृष्ठों में अलबेरुनी की स्पष्टोक्ति है कि ज्योतिष शास्त्र में हिन्दू लोग संसार की सभी जातियों से बढ़कर है। मैंने अनेक भाषाओं के अंकों के नाम सीखे हैं, पर किसी जाति में हजार के आगे की संख्या के लिए मुझे कोई नाम नहीं मिला। हिन्दुओं में अठारह अंकों तक की संख्या के लिए नाम है।, जिनमें अन्तिम संख्या का नाम परार्द्ध बताया गया है। इण्डिया-ह्वाट इट केन टीच अस’ में प्रो. मैक्समूलर ने लिखा है, भारतवासी आकाशमण्डल और नक्षत्र मण्डल आदि के बारे में अन्य देशों के ऋणी नहीं हैं। वे ही इनके मूल आविष्कर्ता हैं। फ्राँसीसी पर्यटक फ्राक्वीस वर्नियर भी भारतीय ज्योतिषज्ञान की प्रशंसा करते हुए लिखते है कि भारतीय अपनी गणना द्वारा चन्द्र और सूर्यग्रहण की बिलकुल ठीक भविष्यवाणी करते हैं। इनका ज्योतिषज्ञान प्राचीनतम और मौलिक है।

‘टरवीनियरस ट्रेविल इन इण्डिया’ में फ्राँसीसी यात्री टरवीनियर ने भी भारतीय ज्योतिष की प्राचीनता और विशालता से प्रभावित होकर कहा है कि “भारतीय, ज्योतिष ज्ञान में प्राचीनकाल से ही निपुण हैं। वे व्यक्तिगत, राष्ट्रीय एवं वैश्विक जीवन के प्रत्येक पक्ष के संबन्ध में सटीक भविष्यवाणी करने की अद्भुत क्षमता रखते हैं।

एनसाइक्लोपीडिया ऑफ बिट्रैनिका में में लिखा है कि इसमें कोई सन्देह नहीं कि हमारे वर्तमान अंक क्रम की उत्पत्ति भारत से है। सम्भवतः ज्योतिष सम्बन्धी उन सारणियों के साथ, जिनको एक भारतीय राजदूत सन् 773 ईसवी में बगदाद में लाया-इन अंकों का प्रवेश भारत से हुआ। फिर ईसवी सन् की 9वीं शती के प्रारम्भिक काल में प्रसिद्ध अबूजफर मोहम्मद अल खारिज्मी ने अरबी में उक्त क्रम का विवेचन किया और उसी समय से अरबों में उसका प्रचार बढ़ने लगा। यूरोप में शून्य सहित यह सम्पूर्ण अंक क्रम ईसवी सन् की 12वीं शती में अरबी से लिया गया है इस क्रम से बना हुआ अंकगणित ‘अल गोरिट्मस’ नाम से प्रसिद्ध हुआ।

‘थियोगोनी ऑफ द हिन्दूज’ में काण्ट आॅर्मर्स्टजन ने लिखा है कि वेलों द्वारा किए गये गणित से ही प्रतीत होता है कि ईसवी सन् 3000 वर्ष पूर्व ही भारतीयों ने ज्योतिष शास्त्र और भूमिति शास्त्र में अच्छी पारदर्शिता प्राप्त कर ली थी। कर्नल टाड ने अपने ‘राजस्थान’ नामक ग्रन्थ में लिखा है हम उन ज्योतिषियों को यहाँ (भारत में) पा सकते हैं, जिनका ग्रह-मण्डल सम्बन्धी ज्ञान अब भी यूरोप में आश्चर्य उत्पन्न कर रहा है। मिस्टर मारिया ग्राहम लेटर्स ऑन इण्डिया में अपना मत व्यक्त करते हुए कहते है कि समस्त मानवीय परिष्कृत विज्ञानों में ज्योतिष मनुष्य ऊँचा उठा देता है। इसके प्रारम्भिक विकास का इतिहास मानवता के उत्थान का इतिहास है। भारत में इसके आदिम अस्तित्व के बहुत से प्रमाण मौजूद है।

मिस्टर सी.वी. क्लार्क एफ.जी. एफ. कहते हैं कि अभी बहुत वर्ष पीछे तक हम सुंदर स्थानों के अक्षांश के विषय में निश्चयात्मक रूप से ज्ञान नहीं रखते थे किन्तु प्राचीन भारतीयों ने ग्रहण ज्ञान के समय से ही इन्हें जान लिया था। इनकी यह अक्षांश-रेखाएँ वाली प्रणाली वैज्ञानिक ही नहीं अचूक है। ‘एन्सिएण्ट एण्ड मेडिवल इण्डिया में प्रो. विलसन का मानना है कि भारतीय ज्योतिषियों को प्राचीन खलीफों विशेषकर हारुँ रशीद और अलमायन ने भली भाँति प्रोत्साहित किया। वे बगदाद आमंत्रित किए गए और वहाँ उनके ग्रन्थों का अनुवाद हुआ। डॉक्टर राबर्टसन का कथन है कि 12 राशियों का ज्ञान सबसे पहले भारतवासियों को ही हुआ था। भारत ने प्राचीनकाल में ज्योतिर्विद्या में अच्छी उन्नति की थी।

प्रो. कोलबुक और बेबर साहब ने लिखा है कि भारत को ही सबसे प्रथम चन्द्र नक्षत्रों का ज्ञान था। चीन और अरब के ज्योतिष का विकास भारत से ही हुआ है। उनका क्रान्तिमण्डल हिन्दुओं का ही है। निस्सन्देह उन्हीं से अरब वालों ने इसे लिया है। विख्यात चीनी विद्वान लियांग चिचाप के शब्दों में “वर्तमान सभ्यजातियों ने जब हाथ-पैर हिलाना भी प्रारम्भ नहीं किया था, तभी हम दोनों भाइयों (भारत और चीन) ने मानव सम्बन्धी समस्याओं को ज्योतिष जैसे विज्ञान द्वारा सुलझाना आरम्भ कर दिया था।”

प्रो. वेलस महोदय ने प्लेफसर साहब की कुछ पंक्तियाँ मिल्स इण्डिया के खण्ड दो में उद्धृत की हैं, जिनका आशय है कि ज्योतिष ज्ञान के बिना बीजगणित की रचना कठिन है। विद्वान विलसन कहते है कि भारत ने ज्योतिष और गणित के तत्वों का आविष्कार अति प्राचीनकाल में किया था। डी. मार्गन ने स्वीकार किया है कि भारतीयों का गणित और ज्योतिष यूनान के किसी भी गणित या ज्योतिष के सिद्धान्त की अपेक्षा महान है। इनके तत्व प्राचीन और मौलिक हैं।

डॉ. थोबो बहुत सोच-विचार और समालोचना के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भारत ही रेखागणित के मूल सिद्धान्तों क आविष्कर्ता है। इसने नक्षत्र विद्या में भी पुरातनकाल में ही प्रवीणता प्राप्त कर ली थी। यह रेखागणित के सिद्धान्त का उपयोग इस विद्या को जानने के लिए करता था। वर्जेस महोदय ने सूर्य सिद्धान्त के अंग्रेजी अनुवाद के परिशिष्ट में अपना मत उद्धृत करते हुए बताया है कि भारत का ज्योतिष टालमी के सिद्धान्तों पर आधारित नहीं है, बल्कि इसने ईसवी सन के बहुत पहले ही इस विषय का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया था।


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