बहुदेववाद में समस्या एकेश्वरवाद

June 1992

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हिन्दू धर्म पर एक सबसे बड़ा आक्षेप यह लगाया जाता रहा है। कि इसमें अनगिनत देवी-देवता हैं। इतना पुराना धर्म होते हुए भी इनमें इस बात पर सहमति नहीं है कि किसे मानें, किसे न मानें? वैदिक काल से लेकर पुराणों तक तथा अवतारी लीला पुरुषों तक अनगिनत आराध्य इष्ट हिन्दुओं के हैं व इनका कोई एक सनातन धर्म नहीं है, कोई एक ईश्वर नहीं है। ऐसा दोषारोपण प्रायः वे लोग करते हैं जो तथ्यों से अवगत न होने के कारण देव संस्कृति का मात्र बहिरंग पक्ष ही देखकर अपना मत बना लेते हैं।

उपरोक्त आक्षेप के उत्तर से एकेश्वरवाद बहुदेववाद की व्याख्या से भ्रान्तियों का वह कुहासा मिटाने का हम प्रयास करेंगे जो सनातन धर्म पर छाया दिखाई पड़ता है, पर वैसा नहीं है। अपूर्ण जानकारी के कारण भारतीय संस्कृति के आधार पर ही जीवन वृत्ति चलाने वाले धर्मोपदेशक भी अन्यान्य मतावलम्बियों के साथ हाँ में हाँ मिलाते देखे गए हैं कि हिंदू धर्म में देवी-देवता तो बहुत हैं व यही एक इसकी बड़ी कमी है। इनके प्रत्युत्तर पर हँसी भी आती है व इस विडम्बना पर दुःख भी होता है। क्रान्तिदर्शी चिन्तक स्तर के ऋषिगण क्या इतने अदूरदर्शी थे कि वे भगवान का स्वरूप बनाते समय सही ढंग से चिंतन नहीं कर पाए? आखिर यह कल्पना हमारे मन में आई कैसे?

इस संबंध में ऋग्वेद का एक मंत्र हमारा चिन्तन स्पष्ट करता है। ऋषि उसमें कहते हैं-

इन्द्र मित्रं वरुणमग्निमा हुथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान। एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वान माहुः॥ (ऋग्वेद 1/164/46)

अर्थात् “एक सत्यस्वरूप परमेश्वर को बुद्धिमान ज्ञानी लोग अनेक प्रकारों से अनेक नामों से पुकारते हैं। उसी को वे अग्नि, यम, मातरिश्वा, इन्द्र, मित्र, वरुण, दिव्य, सुपर्ण, गरुत्मान इत्यादि नामों से याद करते हैं, सारा वैदिक वांग्मय इसी प्रकार की घोषणाओं से भरा है, जिसमें एक ही सद्घन, चिंतन और आनंदघन तत्व को मूलतः स्वीकार करके उसी के अनेक रूपों के रूप में ईश्वर को मान्यता दी गयी है। विश्व के समस्त नाना प्रकार के रूपों में उसी एक का साक्षात्कार किया गया है। एक प्रकार से एकत्व में अनेकत्व तथा अनेकत्व में एकत्व, यह एक निराले प्रकार का दर्शन भारतीय संस्कृति का है, जो कहीं और देखने को नहीं मिलता। जब अधिकार भेद से आराध्य रूप भी विविध हो जाते हैं तो दार्शनिक चकराकर हिन्दुओं को बहुदेववादी (पालीथीस्टीक) ठहरा देते हैं व कहते हैं कि संभवतः हिन्दू सभ्यता एक ईश्वर की सत्ता से अनभिज्ञ थी। जबकि एक ही सत्य, एक ही चिन्मय सत्ता की स्वीकृति” भारतीय अध्यात्म स्थान-स्थान पर देता आया है।

मैक्समूलर कहते हैं कि वैदिककाल के ऋषि बड़े विद्वान थे। विभिन्न देवताओं के रूप में ऋषियों ने परमेश्वर की विभिन्न शक्तिधाराओं की गुण रूप में चर्चा करके उनकी महिमा का बखान किया है। मैक्समूलर ने वेदों में हेनीथीइज्म या उपास्य श्रेष्ठतावाद का प्रतिपादन किया, जिसे बाद के अध्येताओं ने अलग-अलग ढंग से समझकर उसकी व्याख्या की। “एकं सद्विप्रा वहुधा वदन्ति” स्वर जितनी बार हमारे समक्ष गूँजता है, हर बार एक महान प्रेरणा व संजीवनी हमें मिलती है, उस एक ईश्वरीय सत्ता के बारे में जिसे विभिन्न संप्रदाय विभिन्न मत अलग-अलग नामों से जानते हैं पर वैदिक आधार पर वह एक ही है।

‘वैदिकएज’ ग्रन्थ में लेखक लिखते हैं कि “ऋग्वेद का धर्म प्रधानतया मूल रूप में अनेकेश्वरवादी है किन्तु क्रमशः व्याख्यान करते करते हुए अद्वैतवाद की दिशा धारा पकड़ लेता है। कुछ सूक्तों के अध्ययन से उस लम्बी यात्रा की जानकारी मिलती है जो प्रारम्भिक असभ्य अनेकेश्वरवाद से क्रमबद्ध तत्त्वज्ञान की ओर प्राकृतिक बहुदेववाद एकेश्वरवाद, अद्वैतवाद की मंजिलों से गुजर कर इस संस्कृति ने पार की है।” संभवतः लेखक महोदय अग्नि, वरुण, इन्द्र आदि सभी को भगवान मान बैठे तथा चिरपुरातन श्रेष्ठतम भागवत् संदेश के रूप में उतरी अपौरुषेयवाणी को उनने “असभ्य” तक कहने का दुस्साहस कर लिया जो मात्र अर्थ न समझने की नादानी की प्रतिक्रिया है।

आचार्य यास्क ने देव शब्द की निरुक्ति ‘दा’ द्युत, दीप, दिवु इन धातुओं से की है। इसके अनुसार ज्ञान, प्रकाश, शान्ति, आनन्द तथा सुख देने वाली सब वस्तुओं को देव कहा जाता है। यजुर्वेद में अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र, वसु, रुद्र, आदित्य, इन्द्र इत्यादि को देव नाम से इसलिये पुकार गया है कि यह शब्द सत्यविद्या का प्रकाशन करने वाले ब्रह्मनिष्ठ-सत्यनिष्ठ विद्वानों के लिए प्रयुक्त होता है। ज्ञान दान करने वाले वे देवता वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को कुहासे निकाल कर उसे प्रकाशवान बनाते हैं अतः उन्हें देव कहा जाता है। ऋग्वेद में षष्ठ मण्डल में कहा गया है-

य एक एत् तमुष्टहि कृष्टीना विचर्षणिः। पतिर्जज्ञो वृषक्रतुः (ऋग्. 6/45/16)

अर्थात्-जो परमेश्वर एक है, तू उसी की स्तुति कर। वह परम पिता परमात्मा सब मनुष्यों की भली-भाँति देखभाल करने वाला है। वहीं सुखवर्षक ज्ञान और कर्म वाला सारे जगत का स्वामी है।” अथर्ववेद में तो साफ कह दिया गया है-वह सर्वव्यापक, तथा प्राणी-अप्राणी सबको विशेष रूप से पूर्णतया देखने वाला है।” (तमिदं विगतं सहः स एष एक एकवृद एक एव-अथर्व 13/4/20)। सामवेद के एक मंत्र में कहा गया है-हे मनुष्यों! तुम सब सरलभाव और आत्मिक बल से एक परमेश्वर की ओर उसका भजन करने के लिए आओ जो समस्त मनुष्यों में एक ही अतिथि की तरह पूजनीय है, सनातन है, नयों के अंदर भी वही व्याप्त रहा है। ज्ञान, कर्म, भक्ति आदि के सभी मार्ग उसी की ओर जाते हैं, वह निश्चय रूप से एक ही हैं”। साम. (4/3/3)

छान्दोग्योपनिषद् में ओंकार एवेदं सर्वम् (302/23/3) गायत्री वा इदं सर्वम् (3/12/1), प्राणोवा इदं सर्वभूतम् (3/14/4), तथा बृहदारण्यकोपनिषद् में एतत् ब्रह्म एतत् सर्वम् (4/3/1) इदं सर्वं यदयमात्मा (2/4/6), यही अभिव्यक्ति स्थान-स्थान पर आयी है। समग्र अध्ययन करने वाले विद्वानों ने एक स्वर से माना है कि हिन्दू अध्यात्म एक ही परमेश्वर की सत्ता का वर्णन करता आया है। यह मान्यता भ्रान्तिपूर्ण है कि आर्यों के बहुत से देवता थे सभी को चापलूसी से प्रसन्न करना ही उनका स्वभाव था। डब्ल्यू डी. ब्राउन ने “सुपिरीयारिटी आफ वैदिक रिलीजन” में लिखा है कि “वैदिक धर्म एक ही परमसत्ता को मान्यता देता है।” श्री चार्ल्स कोलमैन “माइथोलॉजी आफ हिन्दूज्” में लिखते हैं कि “आराध्यसत्ता की परिभाषा वेदों में विभिन्न रूपों में की गयी है। जो सब कुछ देखता है पर स्वयं नहीं दिखाई देता वह ब्रह्म है। उसके अनेकानेक गुण हैं पर इन गुणों को भिन्न-भिन्न परमात्मा मान लेना तो सरासर बेवकूफी होगी।” श्लेगेल सभी विवादों का एकमत से उत्तर देते हुए लिखते हैं कि “यह एक स्वर से कहा जा सकता है कि वैदिक काल के भारतीय उच्चकोटि के विद्वान थे व उनकी “मोनोथीज्म” की मान्यता ही सर्वोपरि है अर्थात् वे एकेश्वरवादी ही हैं।” (“विज्डम आफ एशिएण्ट इंडियन्स-वेद मात्र एक ही आराध्यसत्ता की शिक्षा हमें देते हैं यह तथ्य श्री डचान्जू “फिलॉसफी आफ जेरोएस्ट्रिएनिज्म एण्ड कम्पेरेटिव रिलीजन” पुस्तक में लिखते हैं। आर्षग्रन्थों में वस्तुतः यह घोषणा है कि सभी प्राकृतिक नियमों के मूल में जड़तत्त्व और शक्ति के प्रत्येक अणु परमाणु में ओतप्रोत वही एक सत्ता विराजमान है, जिसके आदेश से वायु चलती है, अग्नि दहकती है, बादल बरसते हैं, मृत्यु पृथ्वी पर नाचती है।

भयादस्याग्निस्तपति भयातपति सूर्यः। भयाद्रिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पंचमः। (कठोप. 2/3/3)

और वह सत्ता क्या तथा कौन है, जिसके आदेश पर यह सब होता है।

“अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिवचस्थितम्” (गीता अध्याय 13/16)

अर्थात्-वह विभाग रहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी चराचर, संपूर्ण भूतों में विभक्त सास्थित प्रतीत होता है” एवं उसका-

ज्योतिषामपि तज्ज्यो तिस्तमसः परमुच्यते। ज्ञानं गेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्” गीता (13/17)

अर्थात्-वह परब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति एवं माया से अत्यन्त परे कहा जाता है। वह परमात्मा बोध स्वरूप, जानने के योग्य एवं तत्त्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है और सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित है।”

वस्तुतः किसी ने गंभीरता से आर्ष साहित्य को पढ़कर ईश्वर के स्वरूप को समझने की कोशिश नहीं की है। ईश्वर एक ही है, उसकी शक्ति धारायें अनेकों हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, अग्नि, यम, निऋति, वरुण, वायु कुबेर, ईशान, पृथ्वी, द्यौ का एक समुदाय देवगणों का है जो पूर्व से लेकर पूर्वोत्तर कोण तक की आठ दिशाओं व ऊपर नीचे के स्थानों में उस परमसत्ता के प्रतिनिधि के रूप में अपना कार्य करते बताये गए हैं। ब्रह्मा सृजन के, उत्पत्ति के देवता हैं, समस्त सृष्टि का पालन करने वाले नियन्ता, व्यवस्था बनाए रखने वाले विष्णु हैं तथा अनीति से मोर्चा, लेने वाले असंतुलन का संतुलन में बदलने वाले, सृष्टि का लय करने वाले देवता शिव हैं। इन तीनों को मिलाकर त्रिमूर्ति कहते हैं वह है यह एक ही परब्रह्म के तीन रूप।

विश्व के सभी धर्मों में सभी मनुष्यों के लिए एक ही साधन बतलाए गए हैं। एक ही मार्ग उनके मत में है। हिन्दू अध्यात्म मानवी बुद्धि की रुचि प्रधान वृत्ति को समझता है व अपने मनोवैज्ञानिक चिन्तन के आधार पर उसके प्रणेताओं ने उपास्य का रूप साधनादि चुनने का अधिकार सबको दे दिया। जो जिस मार्ग से चाहे, परमात्मा के रूप को माने उसका ध्यान करे। अंततः वह आस्तिकतावादी तो बनेगा यह चिन्तन ऋषियों का रहा है। गुरु अपने शिष्य की रुचि व अधिकार के अनुसार उसे विभिन्न साधनों में से एक बतलाते आए हैं। एक ही गुरु के विभिन्न शिष्यों में कोई योगी कोई ज्ञान मार्गी, कोई भक्त, कोई वैष्णव, कोई शैव तथा कोई शाक्त कुछ भी बन सकता है। रुचि भेद के अनुसार इष्ट की आकृति बदल दी जाय तो मनोवैज्ञानिक प्रयोग यह नहीं बताता कि परमेश्वर भी ढेरों हो गए। विश्वभुवन का एक ही स्वामी-एकोविश्वस्य भुवनस्य राजा” बताते हुए आर्ष-वांग्मय मूलतः बहुत्त्व में एकेश्वरवाद का ही प्रतिपादन करता आया है।

साकारोपसना से लेकर निराकारोपासना तथा प्रतीक पूजा आदि के मूल में एक ही तथ्य है कि परब्रह्म श्रेष्ठता का समुच्चय है। उसके विभिन्न सद्गुणों को, सत्प्रवृत्तियों को हम अपनी रुचि, विश्वास, मान्यता के अनुसार चुनते हुए एक ही लक्ष्य पर चलें स्वयं में श्रेष्ठताओं का समावेश करें परम पूज्य गुरुदेव ने परमेश्वर को सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय, आदर्शों का समूह, सद्गुणों का एकाकार रूप “सम्मम बोनस आफ वरच्यूज” कहा है। हम चाहें वैदिक देवता को मानें चाहे सूर्योपासक हों, हम चाहे साकार विष्णु रूप कृष्ण को मानें, चाहे देवी रूप में दुर्गा को, भक्त शिरोमणि हनुमानजी को मानें अथवा उनके इष्ट श्रीराम को, हम एक ही कार्य अपनी उपासना द्वारा करते हैं-श्रेष्ठता का अपने अंदर अभिवर्धन करते हुए अपनी अपूर्णता को पूर्णता में बदलना। हमें यह सीखना ही होगा कि मात्र हिन्दू धर्म में ही नहीं सभी धर्मों में चाहे वह बौद्ध, मुस्लिम, पारसी, ताओ, ईसाई, शिण्टो, जैन कुछ भी क्यों न हो, सबका ईश्वर एक ही है। मत संप्रदाय बदलने से ईश्वर नहीं बदल जाते। जो इनमें से किसी के भी धर्म या ईश्वर की निन्दा करता है या हँसी उड़ाता है, वह वस्तुतः अपने ही ईश्वर का उपहास उड़ाकर पाप का भागीदार बनता है।

देव संस्कृति की यह महानता है कि यहाँ विचार स्वातंत्र्य को बौद्धिक प्रजातंत्र को, प्रधानता मिली। यहाँ आस्तिक भी पनपते हैं, तथाकथित नास्तिक भी। यहाँ चार्वाकवाद, जैनों का शून्यवाद भी वैसा ही सम्मान पाता है जैसा त्रेतवाद, द्वेतवाद तथा अद्वैतवाद। ईश्वर के स्वरूप व कल्पना के लिए पूरी छूट दे दी गयी है। माना यह गया है कि अंततः व्यक्ति नीतिमत्ता को मानेगा, परमसत्ता के अनुशासन को मानेगा व जीवन में ईश्वरीय तत्त्वदर्शन को उतारेगा। चाहे किसी का भी नाम ले, बनेगा तो वह ईश्वरपरायण। यही कारण है कि इस्लाम, ईसाई धर्म यहाँ की उर्वर भूमि में भली-भाँति पनपते गए जब कि अपनी जन्म भूमि छोड़कर अन्य स्थानों पर उन्हें संघर्ष हिंसा द्वारा, अपना प्रचार करना पड़ा।

आदि पुरुष की कल्पना जिन ऋषियों ने की, “कस्मै देवाय हविषा विधेम” का उत्तर जिनने एक ही विश्वाधार के विभिन्न रूपों के रूप में दिया, उनके निर्धारणों पर उँगली उठाना कुतर्की, विवादों में उलझने वाले नास्तिकों का काम है। बहुदेववाद में एकेश्वरवाद का अर्थ है परमसत्ता की विभिन्न रूप रश्मियों में उस एक ही सता का दर्शन करना। यदि यह हो सके तो आस्तिकवादी मान्यताओं का विस्तार हो आस्था संकट से मोर्चा भली−भाँति लिया जा सकता है। आज की धर्म संप्रदायगत विद्वेष की स्थिति में हिन्दू अध्यात्म व देव संस्कृति ही एकमात्र समाधान है, इसमें कोई संशय नहीं।


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