श्राद्ध तर्पण का प्रयोजन

April 1986

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

श्राद्ध पितरों के नाम पर किये जाते हैं और उनमें दान पुण्य किया जाता है। इस निमित्त उनके साथ तर्पण पिण्डदान आदि कर्मकांड भी जोड़ दिये गये हैं।

वर्ष में जिस तिथि में पितरों की मृत्यु हुई हो, उस दिन भी श्राद्ध किये जाते हैं और आश्विन कृष्ण पक्ष में भी। चूँकि उन दिनों कन्या का सूर्य होता है। इसलिए कन्यार्क का अपभ्रंश “कनागत” भी प्रचलित हो गया है।

पूर्वजों या गुरुजनों द्वारा किये गये उपकारों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना और उसकी वार्षिक ब्याज को चुकाना वार्षिक श्राद्ध है, चाहे वह मरण वाली तिथि को किया जाय या आश्विन पक्ष में।

उपकारी का प्रत्युपकार करना सामान्य मनुष्य धर्म है। धर्म कर्त्तव्यों के प्रति श्रद्धा बनाये रहना श्राद्ध है। अंत्येष्टि संस्कार के उपरान्त जो 13 दिन बाद श्राद्ध किया जाता है, उसमें स्वावलम्बी उत्तराधिकारी पूर्वजों की छोड़ी सम्पत्ति को उनकी धरोहर मानकर उनकी सद्गति के लिए ही परमार्थ प्रयोजनों में लगा देते हैं। मात्र असमर्थ आश्रित ही उसे निर्वाह में काम में लाते हैं।

दान का परिणाम लोक और परलोक दोनों में ही होता है। उससे यश और शान्ति दोनों ही मिलते हैं। सह वितरण क्रम अपनाने से समाज की सुव्यवस्था भी बनती है। पर वह दान सत्पात्रों को ही दिया जाना चाहिए और ऐसा होना चाहिए जिससे किसी की सुविधा सम्पन्नता भले ही न बढ़े, पर उनसे पिछड़ेपन से छुटकारा पाने और आगे बढ़ने ऊँचा उठने में सहारा मिले। यश के लिए किसी पर भी पैसा लुटा देना दान नहीं, एक प्रकार का अहंकारी अज्ञान है।

महाभारत की कथा है कि राजा कर्ण नित्य सवा मन सोने का दान किया करते थे। जब वे स्वर्गलोक गये तब उनके लिए निवास, वस्त्र, उपकरण, आहार आदि सब कुछ सोने से ही विनिर्मित मिला।

यह देखकर वे चकित भी हुए ओर दुःखी भी। केवल स्वर्ण साधनों से ही मेरा क्या काम चलेगा? देवदूतों ने कहा- जो आपने दिया है, वही तो आपको मिलेगा।

कर्ण को अपनी भूल प्रतीत हुई। उनने धरती पर एक महीने के लिए लौटने की इच्छा प्रकट की। धर्मराज ने वह अनुरोध स्वीकार कर लिया। वापस आते ही उन्होंने ज्ञानदान और अन्न दान के लिये अधिकारी पात्र तलाश किये और अपने कृत्य का सदुपयोग माना। अवधि पूरी करके वे फिर स्वर्ग गये तो जीवनोपयोगी सभी सामग्री उन्हें उपलब्ध हुई।

आत्मिक प्रगति के लिए सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है- “श्रद्धा।” श्रद्धा में शक्ति भी है। वह पत्थर को देवता बना देती है और मनुष्य को नर नारायण स्तर तक उठा ले जाती है। किन्तु श्रद्धा मात्र चिन्तन या कल्पना का नाम नहीं है। उसके प्रत्यक्ष प्रमाण भी होना चाहिए। यह उदारता, सेवा, सहायता, करुणा आदि के रूप में ही हो सकती है। इन्हें चिन्तन तक सीमित न रखकर कार्यरूप में, परमार्थ परक कार्यों में ही परिणत करना होता है। यही सच्चे अर्थों में श्राद्ध है। उपकारी के प्रति कृतज्ञता का प्रत्युपकार का भाव रखना भावना क्षेत्र की पवित्रता एवं उत्कृष्टता का प्राणवान चिन्ह है। इसके लिए धनदान आवश्यक नहीं, समय, धन, श्रम दान, भाव दान भी असमर्थता की स्थिति में इसी प्रयोजन की पूर्ति करते हैं। उन्हीं सब बातों पर विचार करते हुए भारतीय धर्म परम्परा में श्राद्ध कर्म की महत्ता बताई गई है। सत्पात्र न मिलने या अपनी आर्थिक स्थिति अच्छी न होने की स्थिति में इसे जलांजलि देकर तर्पण के रूप में भी सम्पन्न किया जा सकता है। यह सोचना उचित नहीं कि जो मर गए उन तक हमारी दी हुई वस्तु कैसे पहुँचेगी। पहुँचती तो केवल श्रद्धा है। उसे चरितार्थ करने के लिए किया गया दान तो सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन में ही काम आता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118