विज्ञान को अध्यात्म के साथ मिलना होगा

January 1983

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समस्याएँ असन्तुलन से उत्पन्न होती हैं। समग्र दृष्टि का अभाव और एकाँगी प्रयत्नों के कारण ही अनेकानेक समस्याओं का जन्म होता है तथा वे संकटों का कारण बनती हैं। सन्तुलित एवं सुव्यवस्थित जीवन क्रम के लिए उन सभी पक्षों का समावेश करना होता है जो शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हों। मानवी काया जड़ चेतन के समन्वय से बनी है। शरीर भौतिक तत्वों से पुष्ट होता और उत्कृष्ट विचारणा एवं उदात्त सम्वेदनाओं से। इन दोनों के समन्वय को ही जीवन दर्शन की संज्ञा दी जा सकती है। जिस पर व्यक्ति एवं समाज की प्रगति एवं उन्नति अवलम्बित है। असन्तुलन सामंजस्य का अभाव ही विभिन्न प्रकार की समस्याओं को जन्म देता तथा मानवी अधःपतन का कारण होता है।

आकृति विज्ञान द्वारा गढ़ी जाती है, प्रकृति अध्यात्म द्वारा। साधनों के निर्माण में विज्ञान का योगदान होता है, व्यक्तित्व में अध्यात्म का। प्रकृतिगत स्थूल रहस्यों का उद्घाटन विज्ञान करता है। उसके सूक्ष्म रहस्यों- उद्देश्यों को अध्यात्म। वस्तुओं के आकार-प्रकार एवं संरचना का विश्लेषण विज्ञान का विषय है और उन संरचना के लक्ष्य एवं मूलभूत कारणों का उद्घोष अध्यात्म करता है। क्षेत्र एवं प्रकृति की भिन्नता होते हुए दोनों में एक मूलभूत समानता यह है कि दोनों ही सृष्टि के मूलभूत रहस्यों को जानना चाहते हैं। अन्तर मात्र इतना है कि एक खोज करता है कि अमुक वस्तु क्या है, जबकि दूसरे की खोज वस्तु क्यों है? पर टिकी हुई है। आवश्यकता सामंजस्य की है- परस्पर सहयोग की है। एक नदी के दो पाट- एक क्षितिज के दो छोर होते हुए भी नदी और क्षितिज के प्रवाह विस्तार से अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं।

सामंजस्य के अभाव ने ही अनेकानेक समस्याओं को जन्म दिया है। विज्ञान ने प्रकृति के भण्डार को खोजा उधेड़ा और भौतिक सामर्थ्य प्राप्त की। पर आध्यात्मिक अवलम्बन के न होने के कारण वह प्राप्त सामर्थ्य का सदुपयोग न कर सका। वस्तुएँ ही लक्ष्य बनकर रह गईं और जीवन लक्ष्य जैसे महत्वपूर्ण प्रश्नों की उपेक्षा कर दी गई। जबकि होना यह चाहिए था कि उन प्रश्नों पर भी विचार किया जाय जो उन गुत्थियों को भी सुलझा सकें, जिनमें जीवन लक्ष्य का समावेश हो। भौतिक खोजों में जड़ की सामर्थ्य पकड़ में आयी। पर मानवी अन्तरंग में निवास करने वाली उत्कृष्ट विचारणा- भाव सम्वेदना की असीम सामर्थ्य अनभिज्ञ एवं उपेक्षित ही बनी रही। फलस्वरूप जड़ सभ्यता जीवन पर हावी हो गई और चेतना की उपेक्षा हुई। जो होना चाहिए वही हुआ। लक्ष्य जब वस्तुएँ बनीं तो सद्विचारणा- सद्भावना की महत्ता एवं उपयोगिता की बात क्यों कर समझ में आये। नीति-सदाचार, सौहार्द्र, सहयोग, उदारता से भरा दृष्टिकोण तो उच्चस्तरीय भाव-सम्वेदनाओं पर टिकाऊ है। जब उनकी महत्ता नहीं समझी गई तो अपनाया ही क्यों जाय? संकीर्ण स्वार्थपरता की आपाधापी भाव-सम्वेदनाओं की उपेक्षा एवं दरिद्रता की ही परिचायक है। जिसके कारण ही भौतिक सम्पन्नता होते हुए भी विश्व में अनेकानेक समस्याएँ नित्य-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं।

शोध की गरिमा एवं विज्ञान की उपलब्धियों का लाभ सही रूप में तब मिल सकेगा जब वह क्या की सीमा से बढ़कर क्यों पर विचार करेगा। अनेक प्रकार के दार्शनिकों ने विज्ञान के समक्ष इस प्रकार प्रश्न रखे हैं। प्रसिद्ध नाटककार एवं दार्शनिक टॉलस्टाय एवं रोशजाक जैसे विद्वानों ने एक अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सम्मेलन में प्रश्न उठाया कि विज्ञान की हर वस्तु कैसी है, यह प्रश्न करता है- क्यों है। यह जानने की चेष्टा क्यों नहीं करता? स्वयं उत्तर देते हुए टॉलस्टाय ने कहा- विज्ञान का बचपन ‘क्या’ से आरम्भ होता है। परिपक्वता ‘क्यों’ में निहित है। ‘क्यों’ में प्रवेश से ही सृष्टि के मूल रहस्यों का उद्घाटन सम्भव है। यही विज्ञान एवं अध्यात्म के समन्वय का केन्द्र बिन्दु होगा। प्लेटो ने भी कहा है कि विज्ञान की समग्रता परिपूर्णता अध्यात्म में प्रवेश पर निर्भर करती है।

दृश्य जगत क्यों है? मनुष्य जीव जन्तुओं की उत्पत्ति क्यों हुई? सृष्टि सुव्यवस्था का कारण क्या है? गणित के नियमों के समान ब्रह्माण्ड का प्रत्येक घटक एक निर्धारित क्रम में क्यों गतिशील है? सृष्टि की सुव्यवस्था, अनुशासन, व्यापकता जैसे प्रश्नों का विज्ञान के पास कोई उत्तर नहीं है। अस्तित्ववादियों के इन प्रश्नों का समाधान वैज्ञानिकों के पास नहीं है।

इन गूढ़ दार्शनिक प्रश्नों को छोड़ भी दिया जाय तो भी मनुष्य जीवन के विकास से सम्बन्धित अनेकों प्रश्न ऐसे हैं जिन पर खोज करने की आवश्यकता विज्ञान द्वारा अनुभव नहीं की गई। जिन पर मानव जाति का अस्तित्व अवलम्बित है।

टॉलस्टाय ने जहाँ आधुनिक विज्ञान के सृजनात्मक प्रयत्नों की प्रशंसा की है, जिसके कारण मनुष्य जाति को अनेकों प्रकार के उपयोगी साधन मिले। वहीं दूसरी ओर आक्रोश भी व्यक्त किया है कि विज्ञान ने नैतिकता एवं मान्यता जैसे महत्वपूर्ण प्रश्नों पर क्यों नहीं विचार किया? अपने शोध का विषय क्यों नहीं बनाया?

‘बैनेवार वुश’ नामक विचारक ने अपनी पुस्तक ‘साइन्स इज नाट इनफ’ नामक पुस्तक में लिखा है कि ‘विज्ञान वस्तुओं के विश्लेषण एवं संश्लेषण के अध्ययन तक ही सिमट कर रह गया है। वह एक सामान्य वस्तु की पूर्ण जानकारी होने तक का भी दावा नहीं कर सकता। प्रमाण सामने है। पदार्थ का छोटा घटक परमाणु तक अपने स्वरूप के लिए रहस्यात्मक बना हुआ है। बदलती हुई मान्यताओं ने उसकी वैज्ञानिक क्षमताओं को अपर्याप्त ठहराया है। ‘रोशजाक’ नामक विचारक ने अपना सुझाव प्रस्तुत करते हुए कहा है कि “जब तक कि विज्ञान की दार्शनिक नींव मेटाफिजिक्स में नहीं होगी- चेतन विज्ञान की ओर नहीं मुड़ेगा, तब तक वह एक बनावटी तकनीक के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकता।”

‘वारेन बीवर’ जैसे वैज्ञानिक ने भी कहा है कि समग्र शोध एवं सृष्टि की गुत्थियों को सुलझाने के लिए विज्ञान को भी पूर्वाग्रहों से हटना होगा। पूर्वाग्रह इन अर्थों में कि उसे शोध की विषय वस्तु जड़ वस्तुओं तक ही नहीं रखना होगा। बस, उससे ऊपर उठकर चेतना के क्षेत्र में प्रविष्ट करने से ही वह अधिक उपयोगी बन सकेगा।

‘वारेन बीवर’ की मान्यता है कि दुःख शोक, क्लेश, भय के क्षणों में, अन्तःप्रेरणा के क्षणों में अन्तःप्रेरणा के रूप में कोई शक्ति आश्वस्त करती प्रतीत होती है। प्रस्तुत संकटों के निवारण के लिए शक्ति का संचार करती है। असमंजस की स्थिति में समाधान देने वाली शक्ति ही परमात्मा का अदृश्य स्वरूप है। जिसकी अनुभूति प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी करता है।

सदियों से विज्ञान एवं अध्यात्म परस्पर पूरक न रहकर विरोधी रहे हैं। इस प्रतिगामिता के कारण दोनों को ही एक दूसरे की विशेषताओं से वंचित रहना पड़ा है। वैज्ञानिक दृष्टि के अभाव में अध्यात्म की उपयोगिता संदिग्ध है। ऐसा अध्यात्म लोकोपयोगी नहीं बन सकता। उसमें अन्ध विश्वास, मूढ़ मान्यताएँ जड़ जमा लेती हैं। विज्ञान भी अध्यात्म के बिना एकाँगी तथा अपूर्ण है। सद्विचारों एवं सद्भावनाओं को विकसित करने का माध्यम अध्यात्म है। एकाकी रहने पर विज्ञान निरंकुश बन जाता है। मनमानी करने एवं बरतने की उसे खुली छूट मिल जाती है। इस सच्चाई को परखना हो तो आज की परिस्थितियों का अध्ययन पर्यवेक्षण गहराई से किया जा सकता है विकास क्रम में विज्ञान ने जितना सहयोग दिया है उससे अधिक भयावह विस्फोटक परिस्थितियाँ भी उत्पन्न की हैं। यह एकाँगी वैज्ञानिक प्रगति का दुष्परिणाम है। समय रहते विज्ञान की अपूर्णता दूर करना अनिवार्य है। यह तभी सम्भव है जब उपेक्षित अध्यात्म का अवलम्बन लिया जाय। विज्ञान साधनों की पूर्ति कर सकता है नैतिकता की नहीं। समृद्धि दे सकता है- भाव सम्वेदनाओं से अभिपूरित परिस्थितियाँ नहीं। इस आवश्यकता की पूर्ति न हो सकी तो बढ़ी हुई प्रगति भी मानव जाति के लिए अभिशाप ही सिद्ध होगी।


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