सत्यमेव जयते नानृतम्

September 1967

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हर मनुष्य की अपनी एक तौल होती है । इसे आत्म-श्रद्धा कहें या आत्म-गौरव। हर व्यक्ति इसी आँतरिक तौल के आधार पर आचरण करता है, उसी के अनुरूप ही उसे दूसरों से प्रतिष्ठा भी मिलती है और साँसारिक सुखोपभोग भी मिलते हैं। अपने आपके प्रति जिसमें जितनी प्रगाढ़ श्रद्धा होती है वह उतने ही अंश में नेक, ईमानदार, सच्चरित्र, तेजस्वी और प्रतापी होता। इन सद्गुणों का बाहुल्य ही विपुल सफलता के रूप में परिलक्षित होता है।

अपनी तौल क्या है? अपनी वाणी विचार और क्रिया के सत्य असत्य का विवेचन ही वह माप है जिससे हम अपने सम्बन्ध की मान्यता स्थिर करते हैं। अर्थात् आत्म-श्रद्धा का आधार सत्य है। हम सत्य से जितना विमुख होते हैं उतना ही अपने आपसे अश्रद्धालु बनते हैं। आत्मा के प्रति श्रद्धा का न होना ही दीनता, कायरता और कमजोरी है। इसी बात को यों कहा जा सकता है कि जो सत्य के प्रति वफादार नहीं होते वह कायर और कमजोर दीन हीन और दुःखी होते हैं। अपनी ही नजर में जो गिर गया वह सैकड़ों के उठाये नहीं उठ सकता । जिसने सत्य का परित्याग कर दिया, समझना चाहिये सुख-स्वर्ग का मार्ग उसके लिये अवरुद्ध हो गया।

शास्त्रकारों ने सप्त मर्यादाओं में सत्य को दूसरा स्थान दिया है। “सत्मेव जयते नानृतम” “सत्य की ही जय होती है, असत्य की नहीं” “सत्य से बढ़ कर कोई धर्म नहीं।” इन शब्दों में सत्य की गरिमा का उल्लेख किया है। वेद में कहा है-

दृष्ट्वा रुपे व्याकरोत सत्यानृते प्रजापतिः

अश्रद्धामनृतेऽदधाच्छ्रद्धाँ सत्यं प्रजापतिः।

ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपीनं शुक्रमन्धस इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु॥

(यजु 19-77)

प्राण में अमृत है। अन्न और जल में भी जीवनामृत है। यह दोनों प्राणधारियों के शरीर की रक्षा करते हैं। इनके निकल जाने पर शरीर तेज और क्रियाशक्ति विहीन हो जाता है। उसी तरह सत्य न रहने से मनुष्य जीवन की सारी तेजस्विता का अन्त हो जाता है।

प्राचीन काल में सब स्त्री पुरुष सत्यनिष्ठ होते थे। मन, वचन और कर्म से भी सत्य का ही व्यवहार किया जाता था। तब मनुष्य का जीवन बिलकुल सीधा सादा, सरल, स्वाभाविक एवं प्राकृत था। स्वल्प आवश्यकताएं थीं इसलिये जीवन में बनावट लाने की लोगों को जरूरत ही न पड़ती थी । धीरे-धीरे साँसारिक सुखों में बढ़ोतरी हुई। यद्यपि वे अल्पकालिक थे किन्तु अत्यधिक आकर्षण के कारण यह लोग अपनी आवश्यकताएं बढ़ाने लगे। तब जीवन में कृत्रिमता भी आई । हानि से बचने और अपने लिये अधिक से अधिक सुखोपभोग करने के लिये असत्य का प्रयोग करने लगे।

तब विचारवान लोग प्रजापति के पास जाकर बोले- आदि पुरुष! सत्य की रक्षा कैसे हो? तब प्रजापति ने यह व्यवस्था कर दी कि भविष्य में जो सत्य का पालन करेगा उसे ही ऐश्वर्य प्राप्त होंगे अन्य को नहीं। यह नियम यथावत चल रहा है। सच्चा ऐश्वर्य सुख केवल सत्यशील को ही मिलता है।

आत्मा स्वयं शाश्वत सत्य है। असत्य होना तो असत्यवादी भी पसंद नहीं करता। झूठ बोलने वाले को कह दो “आप झूठ बोलते हैं” तो वह जल कर खाक हो जाता है और प्रतिशोध तक के लिये तत्पर हो जाता है। खेद है कि फिर भी लोग जीवन को असत्य के आचरण से कलुषित बनाते हैं और अपनी आत्मैश्वर्य को कमजोर बनाते हैं। सच्ची बात न कहने वाले और सच्ची बात छुपाने वाले दोनों ही इस अधिकार से वंचित होते हैं और धार्मिक जीवन की पवित्रता और दिव्य आनन्द से विमुख बने रहते हैं।

सत्य सरल भी है और स्वाभाविक भी। यदि तुच्छ अहंकार और स्वार्थमयता को प्रमुख न बनाया जाय तो सत्य छिपाने की आवश्यकता ही न पड़े । जो कुछ सत्य है उसी की अभिव्यक्ति हो फिर जीवन में जटिलता का समावेश हो ही नहीं। न विवादास्पद परिस्थितियाँ बने। सीधे सरल अवसर का लाभ स्वार्थपूर्ति के लिए करना ही धूर्तता है। इससे मनुष्य का सारा श्रेय और बड़प्पन गिर जाता है। छोटे व्यक्ति भी अपनी स्वाभाविक सरलता के कारण सामाजिक सम्मान और प्रतिष्ठा के पात्र बनते हैं। जब कि तथाकथित बड़े कहे जाने वाले लोग भी सत्य विमुख हो जाने से विश्वास खो देते हैं।

इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि सत्य विमुख होने पर युधिष्ठिर जैसे धर्मात्मा, कुमारिल भट्ट जैसे विद्वान और आचार्य पिंगल ऋषि को भी अधःपतित लोकों में जाना पड़ा और हरिश्चन्द्र जैसे राजसी प्रकृति वाले व्यक्ति ने सत्य के बल पर ही उस शाश्वत आनन्द को पा लिया है। “साँच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप” वाली कहावत भी जगत प्रसिद्ध है।

जीवन की पवित्रता और लक्ष्य सत्य-विच्युतों को यों नहीं मिला करते कि उनका सारा ध्यान असत्य बोलने से उत्पन्न हुई स्थिति को संभालने में ही लग जाता है। जिस किसान के खेत सींचने वाली नाली कमजोर होती है उसका अधिकाँश पानी इधर उधर ही फैल जात है। उसका बहुत समय केवल उसी सुधार में लग जाता है। और सिंचाई का महत्वपूर्ण प्रयोजन अधूरा ही रह जाता है। असत्य बोल कर धन कमाया जा सकता है पर जीवन का आनंद पवित्रता और लक्ष्य नहीं प्राप्त किया जा सकता है। एक झूठ को छिपाने के लिये सौ झूठ और बोलने पड़ते हैं। फिर उन सौ झूठों के लिए हजार बहाने ढूंढ़ने पड़ते हैं। ऐसे व्यक्ति को आत्मा या ईश्वर चिन्तन के लिए समय ही कहाँ मिलेगा ?

आत्मा के ऐश्वर्य और सत्य के शाश्वत स्वरूप को शाश्वत बनाए रखने के लिए सत्य बोलना, विचार करना और तदनुसार आचरण यह ‘सत्य देवता’ जिन्हें सिद्ध हो जाता है उन्हें परमात्मा को ढूंढ़ने के लिए और कहीं जाने की आवश्यकता नहीं। वह क्रमशः विश्व की परिस्थितियों का यथार्थ ज्ञान, आत्म साक्षात्कार करता हुआ, आत्मा में ही ईश्वरीय दर्शन का आनन्द लेता है। सत्य जीवन की मधुरता है और उसकी पूर्ण परिपक्वता जीवन लक्ष्य की प्राप्ति।

सत्य की प्रतिष्ठा होते हुए भी उसे छुपाने के अनेक प्रयत्न किये जाते हैं। सुख सौभाग्यों में पराजय और सामाजिक संघर्ष का यह बहुत बड़ा कारण है। इतना होते हुये भी मनुष्य की अन्तरात्मा सत्य की ओर झुकी रहती है। उसी सत्य को प्रमाणित करने के लिए उपनिषद् प्रार्थना करते हैं-

हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।

तत्वं पृषणं अपावृणतु सत्य धर्माय दृष्टये ॥

‘हे परमात्मन्! मनुष्य की आत्मा सत्य को प्रकाश में लाना चाहती है। किन्तु मन के प्रलोभन उस पात्र को ढके हुए हैं। हमें सत्य को ही देखने की दृष्टि दो।

यह प्रार्थना जीवन में चरितार्थ होती है तो भावनामय संसार का सत्य स्वरूप प्रकट हो जाता है। ऐसी दिव्य दृष्टि प्राप्ति होती है। जिससे सम्पूर्ण अन्तर्द्वन्द्वों से छूट कर जीव आत्मश्रद्धा का सुखोपभोग करता है। इसलिये हम जीवन में सदैव सत्य बोलें सत्य सुनें और ग्रहण करें।


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