राष्ट्र-भाषा के अमर शिल्पी—महावीर प्रसाद द्विवेदी

August 1964

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हिन्दी आज जिस परिष्कृत रूप में बोली और लिखी जाती है उसका बहुत कुछ श्रेय श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी को है। उनके समय से पूर्व हिन्दी का प्रचलन तो हो चला था और कई मनीषी गद्य और पद्य द्वारा उसे सुविकसित करने के लिए प्रयत्न भी कर रहे थे, पर जिन्होंने भारत की भावी राष्ट्रभाषा को सर्वांगपूर्ण बनाने के लिए अपना जीवन ही खपा दिया हो ऐसे मनीषी उस समय तक ढूँढ़े नहीं मिल रहे थे।

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी युगदृष्टा थे। वे जानते थे कि कोई देश एक राष्ट्र भाषा के बिना न तो भावनात्मक एकता प्राप्त कर सकता है और न शिक्षा तथा संस्कृति की दृष्टि से सुसम्पन्न ही बन सकता है। उन दिनों भारत की अनेक भाषाओं की तरह हिन्दी भी एक भाषा थी, उसमें राष्ट्रीय भाषा के उपयुक्त प्रखरता उत्पन्न न हो पाई थी। इस कमी को पूरा करना आवश्यक था। राजनैतिक स्वतन्त्रता उन दिनों नहीं थी, अँग्रेजी शासन अपना पंजा मजबूती के साथ जमाये हुए था। पर आशा की ऊषा अपना आभास प्रकट करने लगी थी और यह बात दिन-दिन स्पष्ट होती जा रही थी कि भारत आज नहीं तो कल राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करेगा। तब सबसे पहली आवश्यकता एक समृद्ध राष्ट्रभाषा की पड़ेगी, यह गुण केवल हिन्दी में था। पर उसके प्रखरता प्राप्त करने में अभी लम्बी मंजिल पार करनी थी। द्विवेदी जी राष्ट्र की इस महत्वपूर्ण आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए एक चतुर शिल्पी तरह की लगे और आजीवन उसी व्रत को पूरा करने में एक कर्मठ आदर्शवादी की तरह अविचल श्रद्धा और परिपूर्ण उत्साह के साथ संलग्न रहे।

उत्तर प्रदेश में राय बरेली जिले के दौलतपुर ग्राम में वे संवत् 1961 में जन्मे। उनके पिता दस रुपया मासिक की एक छोटी नौकरी करते थे। पढ़ने का कोई ठीक प्रबन्ध गाँव में न था। आटा, दाल पीठ पर लाद कर दूर के जिन गाँवों में स्कूल थे वहाँ पढ़ने जाते । 13 वर्ष की आयु में रोटी बनाना सीख न पाये थे सो पकती दाल में आटे की टिकिया पकाकर उससे भूख शाँत करते, और शिक्षा की साधना में लगे रहते। इस प्रकार पुरवा, फतेहपुर, उन्नाद के स्कूलों में उन्होंने चार वर्ष काटे । घर की आर्थिक दुरवस्था ने आगे पढ़ने की सम्भावना नष्ट कर दी। स्कूली शिक्षा यहीं समाप्त हो गई।

गुजारे के लिए उन्हें नौकरी करनी पड़ी । रेलवे में उन्हें जगह मिल गई । अपने परिश्रम और अध्यवसाय से उन्होंने अपनी योग्यता बढ़ाई । प्रतिभा के साथ-साथ उनका वेतन और पद भी बढ़ता गया। सिगनेलर, टिकट बाबू, मालबाबू, स्टेशन मास्टर, प्लेटियर, टेलीग्राम इन्सपेक्टर, चीफ क्लर्क ये छोटे बड़े पदों पर उन्होंने संवत् 1903 तक काम किया। इस अवधि में उनका अन्तःकरण यही कहता रहा कि उन्हें पेट भरने मात्र से सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिए। समाज के लिए कुछ रचनात्मक काम किए बिना कोई प्रगतिशील आत्मा सन्तुष्ट नहीं हो सकती। उनकी आत्मा इस प्रकार दिन काटने के विरुद्ध विद्रोह करती रही और उस अन्तर्द्वन्द्व ने एक दिन उन्हें नौकरी छोड़कर रचनात्मक काम करने के लिये विवश कर दिया।

आठ घण्टे नौकरी ओर आहार निद्रा आदि नित्य कर्म के दस घण्टे निकल कर 6 घण्टे आसानी से बच जाते हैं। बुद्धिमान लोग उस समय का ठीक उपयोग करते और अपनी विशेषताओं को बढ़ाते रहते हैं। आलसी और प्रमादी उसे बर्बाद करके जहाँ के तहाँ पड़े दिन गुजारते रहते हैं। द्विवेदी जी न तो आलसी थे और न प्रमादी । उन्होंने बुद्धिमानों की तरह अपना जीवन क्रम बनाए रक्खा। बचे हुए समय में साहित्य साधना करते रहे। उन्होंने विशाल ज्ञान राशि इकट्ठी कर ली। नौकरी के दिनों में ही उनकी संचित साहित्यिक विद्वता का परिचय लोगों को मिलने लगा था रेलवे की नौकरी छोड़ने पर उन्हें नया काम मिलने में देर न लगी। मातृ-भाषा की सेवा करना चाहते थे। हर सच्चे मन से चाहने वाले की तरह उन्हें भी उनका अभीष्ट माध्यम मिल गया। वे इलाहाबाद की सुप्रसिद्ध मासिक पत्रिका ‘सरस्वती’ का सम्पादन करने लगे।

सरस्वती के सम्पादन कार्य में उन्हें हर महीने 20) वेतन और 3) डाक खर्च कुल 23) मिलते थे। रेलवे की नौकरी में उन्हें ऊँचा वेतन मिलता था। आमदनी एक दम घट जाने का उन्हें तनिक भी दुःख न हुआ। वे कहा करते मैंने रेलवे की नौकरी 15) मासिक से शुरू की थी। अब तो 23) अर्थात् ड्योढ़े मिलते हैं। मुझ जैसे मितव्ययी देहाती के लिए यह भी क्या कम है।

अधिक आमदनी और अधिक खर्च के कुचक्र में फँसे हुए लोगों के पास न तो महान कार्यों के उपयुक्त समय रहता है और न मन। उन्हें इसी गोरखधन्धे को सुलझाने से फुरसत नहीं मिलती, फिर कोई बड़ा काम वे कर ही कहाँ से पावें? आवश्यकताएँ घटा कर ब्राह्मण जीवन जीने वाला व्यक्ति ही आदर्शवाद के लिए कुछ ठोस कदम उठा सकने में समर्थ हो सकता है। द्विवेदी जी बड़े थे, बड़ा काम करना चाहते थे, इसलिए उन्हें बड़प्पन की कसौटी पर खरा भी उतरना ही था, व्यक्तिगत जीवन में संयम और सादगी अपनाते हुए बची हुई शक्तियों को लोकहित में समर्पित करना यही तो किसी श्रेष्ठ पुरुष की जीवन पद्धति हो सकती है। प्राचीन काल के ऋषियों की तरह प्रसन्नता-पूर्वक उन्होंने इस आदर्श को शिरोधार्य किया और गरीबी का जीवन बिताते हुए लोक मंगल के लिए सच्ची तपश्चर्या करने में लग गए। कमण्डल त्रिपुण्ड भले ही उन्होंने धारण न किया हो पर जिस निस्पृहता का जीवन वे जी रहे थे उसे देखते हुए उन्हें त्यागी ही कहा जा सकता है। उपलों की आग जलाकर वे तथाकथित तपस्या भले ही न करते हों, पर राष्ट्र-भाषा का भविष्य उज्ज्वल करने के लिए जिस निष्ठा के साथ वे तत्पर हो रहे थे उसे देखते हुए उन्हें तपस्वी कहने में कोई अत्युक्ति न मानी जायगी।

अन्य सम्पादकों की तरह इधर-उधर के लेखों को छाँटकर अखबार के पन्ने भर देने की बेगार टाल देने वाले द्विवेदी जी न थे। पत्रिका में छपने के लिए आये हुए लेखों के एक-एक शब्द को वे ध्यानपूर्वक देखते और अपने हाथों उसे दुबारा लिखते। इस प्रकार उनकी लेखनी की खराद पर चढ़कर निखरा हुआ प्रत्येक लेख भाषा और भाव की दृष्टि से राष्ट्र-भाषा के गौरव के उपयुक्त ही बन जाता। सरस्वती में छपी प्रत्येक रचना, साहित्यिक दृष्टि से सब प्रकार खरी और परिष्कृत मानी जाती थी।

उन्होंने स्वयं बहुत कुछ किया है। दूसरों के लिखे को मनोचित और परिष्कृत किया है। साथ ही सबसे बड़ा काम यह किया है कि अगणित नवोदित लेखकों को मार्ग दर्शन एवं प्रोत्साहन देकर उन्हें नौसिखिये से आगे बढ़ते हुए महान साहित्यकार बनाया। पारस को छूकर लोहा सोना बनता है पर द्विवेदी जी ऐसे पारस थे कि उनके संपर्क में जो आया वह भी पारस बन गया। पदुमलाल पुन्नालन बक्शी ने अपनी पुस्तक विश्व साहित्य में लिखा है—यदि कोई मुझसे पूछे कि द्विवेदी जी ने क्या किया, तो मैं उसे समग्र आधुनिक साहित्य दिखलाकर कह सकता हूँ कि यह सब उन्हीं की सेवा का फल है। कुछ लेखक ऐसे होते हैं जिनकी रचना पर ही उनकी महत्ता निर्भर है। कुछ ऐसे होते हैं जिनकी महत्ता उनकी रचनाओं से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होती है। द्विवेदी जी की साहित्य सेवा उनकी रचनाओं से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। उनके व्यक्तित्व का प्रभाव समग्र साहित्य पर पड़ा है। मेघ की तरह विश्व से ज्ञान राशि संचित करके और उसकी वर्षा करके उन्होंने समग्र साहित्योद्यान को हरा भरा कर दिया। वर्तमान साहित्य उन्हीं की साधना का सुफल है।”

उन्होंने लगातार अठारह वर्ष तक सरस्वती का सम्पादन किया। अवकाश ग्रहण करने के बाद भी वे सात-आठ वर्षों तक नियमित रूप से लेखन-कार्य करते रहे। अपनी निज की रचनायें लिखने की अपेक्षा उनका प्रधान कार्य दूसरों की कृतियों को परिष्कृत कर उन्हें उपेक्षित से उत्कृष्ट बनाना रहता था। रद्दी में डाले जा सकने वाले लेखों को अपनी कलम से दुबारा लिखकर उन्हें साहित्य में ऊँचा स्थान मिलने योग्य बनाया करते और उनके लेखकों को व्यावहारिक रूप से यह बताया करते थे कि उनसे कहाँ भूल हुई, क्या कमी रही, ओर किन बातों का समावेश आवश्यक था। इस प्रकार वे बिना विद्यालय खोले हुए भी ‘सरस्वती’ के दफ्तर में बैठ कर सहस्रों नव-युवकों को राष्ट्र के भावी साहित्य निर्माता बनाने में लगे रहे। उनकी यह देन इतनी बड़ी है कि भारत का साहित्य जगत उसे कभी भी भुला न सकेगा।

उनकी सेवाओं के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा को भी संस्थाओं के माध्यम से जनता ने समय-समय पर प्रकट किया गया है। काशी नागरी प्रचारणी सभा ने उन्हें हिन्दी के सर्वप्रथम ‘आचार्य’ की उपाधि से विभूषित किया। और इसके दो वर्ष बाद ही उन्हें अपूर्व ‘द्विवेदी अभिनन्दन ग्रंथ’ भेंट किया गया सन् 1933 में डॉ. गंगानाथ की अध्यक्षता में प्रयाग में ‘द्विवेदी मेला’ का आयोजन हुआ। उनके कर्त्तव्य और व्यक्तित्व पर “महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनका युग“ शीर्षक थीसिस लिखकर डॉ. उदयभानसिंहजी ने पी. एच. डी. प्राप्त की। संक्षिप्त में यों भी कहा जा सकता है कि द्विवेदी जी के समान सम्मान भारत के और किसी साहित्यकार का अभी तक नहीं हुआ। गद्य लेखकों की तरह ही उन्होंने पद्य रचयिता कवियों का भी महत्वपूर्ण मार्गदर्शन किया यों वे कवियों में गिने नहीं जाते पर कविताओं के संशोधन में उनकी क्षमता गद्य संशोधन से किसी प्रकार कम न थी। उन्होंने अनेक कवियों को रचनात्मक कवितायें लिखने के लिए प्रबल प्रेरणा दी। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत-भारती’ उन्हीं की प्रेरणा का फल है।

मध्य-युग की परम्परा का अनुसरण करते हुये उन दिनों भी श्रंगारी कविताओं और कवियों का बाहुल्य था ऐसे लोगों का वे सदा निरुत्साहित करते रहे और उस प्रवृत्ति को राष्ट्र-निर्माण के लिये अनुपयुक्त बताकर उससे दूर रहने की शिक्षा देते रहे। उन्होंने इन कवियों से पूछा है “चींटी से लेकर हाथी पर्यन्त पशु, भिक्षुक से लेकर राजा तक मनुष्य, बिन्दु से लेकर समुद्र पर्यन्त, अनन्त आकाश, अनन्त पृथ्वी, अनन्त पर्वत सभी पर कवितायें हो सकती हैं। सभी से उपदेश मिल सकता है। फिर क्या कारण है कि इन विषयों को छोड़कर कोई कवि स्त्रियों की चेष्टाओं का वर्णन करना ही कविता समझे?”

प्रश्न मार्मिक है। जिनने निम्न स्तर की मलीन प्रवृत्तियों को ही कुरेदने को ‘कला’ नहीं समझा है उन्हें उपरोक्त प्रश्न के उत्तर में अपनी कविताओं को रचनात्मक दिशा निर्धारित करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं रह जाता।

राष्ट्र-भाषा के अमर शिल्पी—द्विवेदी जी ने—21 दिसम्बर 1639 को महाप्रयाण किया पर उनकी श्रद्धा और तत्परता त्याग और तपस्या ने हिन्दी साहित्य का जो गौरव बढ़ाया उसे देखते हुए उन्हें अजर-अमर ही माना जाता रहेगा।


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