मत्रेतु दक्षिणें कर्णे, पुरीषे बाम कर्णके।
उपवीतं सदाघार्य मैथुने तूपवीतिवत्॥
अन्हिक कारिका-
मूत्र त्यागने के समय दाहिने कान पर यज्ञोपवीत को चढ़ा लें और शौच के समय बाँये कान पर रखे तथा मैथुन के समय सदा पहनता है वैसा ही पहने रहे।
मल मूत्र त्याग में अशुद्ध वायु का अशुद्ध जल, अशुद्ध पदार्थ एवं अशुद्ध अंगों से यज्ञोपवीत का स्पर्श हो जाने की आशंका रहती है। किन्तु यज्ञोपवीत की पवित्रता को सदा कायम रखना आवश्यक है इसलिये मल मूत्र त्याग के समय कान पर चढ़ाने का विधान है। कान पर लपेट लेने से यज्ञोपवीत ऊंचा हो जाता है, कमर से ऊपर आ जाता है और उसके अपवित्र हो जाने की संभावना नहीं रहती।
ऐसा भी कहा जाता है कि कान के मूल में जो नाड़ियाँ हैं उनका मूत्राशय और गुदा से संबंध है। दाहिने कान की नाड़ी मूत्राशय के लिए गई है और बाएँ कान की नाड़ी गुदा से संबंध है। मूत्र त्याग करते समय दाहिने कान को लपेटने से उन नाड़ियों पर दबाव पड़ता है फल स्वरूप मूत्राशय की नाड़ियाँ भी कड़ी रहती हैं। तदनुसार, बहुमूत्र, मधुमेह, प्रमेह आदि रोग नहीं होते। इसी प्रकार दाहिने कान की नाड़ियाँ दबने से काँच, भगन्दर, बवासीर आदि गुदा के रोग नहीं होते। कई सज्जन शौच जाते समय दोनों कानों पर यज्ञोपवीत चढ़ाते हैं उनका तर्क यह है कि मल त्याग के समय मूत्र विसर्जन भी होता है इसलिए दोनों कानों पर उपवीत को बढ़ाना चाहिए। मैथुन के समय कान पर भले ही चढ़ाया जाय पर अशुद्ध अंगों से ऊंचा अवश्य कर लेना चाहिये।
क्षुते निष्ठीवने चैव दन्तेच्छिप्टे तथान्नृते।
पतितानाँ चसम्भायें दक्षिणं श्रवण स्पृष्येत।
पाराशर स्मृति 7। 38
अर्थात्- छींकने पर, थूकने पर, दाँतों से किसी अंग के उच्छिष्ट हो जाने पर झूठ बोलने और पाठकों के साथ संभाषण करने पर अपने दाहिने कान का स्पर्श करें।
छोटी-मोटी अशुद्धताएं कान का स्पर्श करने मात्र से दूर हो जाती हैं। कान को छूने पकड़ने या दबाने से भूल सुधारने का प्रायश्चित होने का सम्बन्ध है। बालक के कान पकड़ने का अध्यापकों का यही प्रयोजन होता है कि उसे देवत्व का और मनोबल का विकास हो। कान पर यज्ञोपवीत चढ़ाने से भी सूक्ष्म रूप से वही प्रयोजन सिद्ध होता है। इसलिए भी मलमूत्र के समय उसके कान पर चढ़ाने का विधान है।
आदित्यावसवो रुद्रा वायुरग्निश्व धर्मराट्।
विप्रस्य दक्षिणे कर्णे नित्यं निष्ठन्ति देवताः॥
शंख्यायन-
अग्निरापश्च वेदाश्च सोमः सूर्योऽनिलस्तथा।
सर्वे देवास्तु विप्रस्य कर्णे तिष्ठन्ति दक्षिणें॥
आचार मयूख-
प्रभासादीनि तीर्थानि गंगाद्या सरितस्तथा।
विप्रस्य दक्षिणे कर्णे वसन्ति मुनिरब्रवीत॥
परराशरः
उपरोक्त तीन श्लोकों में दाहिने कान का पवित्रता का वर्णन है। शांख्यायन का मत है कि आदित्य, वसु, रुद्र, वायु और अग्नि देवता विप्र-के दाहिने कान में सदा रहते हैं। आचार्य मयूखकार का कथन है अग्नि, जल, वेद, सोम, सूर्य, अनिल तथा सब देवता ब्राह्मण के दाहिने कान में निवास करते हैं। पराशर का मत है कि गंगा आदि सरिताएं तीर्थ गण दाहिने कान में निवास करते हैं। इसलिए ऐसे पवित्र अंग पर मलमूत्र त्यागते समय यज्ञोपवीत को चढ़ा लेते हैं जिससे वह अपवित्र न होने पावे।