वासना या विवेक दो में से एक का चुनाव करना ही पड़ता है। जिन्दगी या तो वासना के पीछे भागती है, अथवा फिर विवेक का अनुसरण करती है। वासना तृप्ति का भरोसा दिलाती है, लेकिन अतृप्ति को और अधिक गहरा करती है। इसलिए वासना के पीछे भागने के लिए आँखों का बन्द होना जरूरी है। जो आँखें खोलकर चलने का साहस करते हैं, वे अपने ही आप विवेक को पा जाते हैं और विवेक की आग में सारी अतृप्ति वैसे ही भाप बनकर उड़ जाती है, जैसे सूरज की तपन में ओस कण।
प्राणिविज्ञानी लिबमैन ने एक खास तरह के कीड़ों का जिक्र किया है। ये कीड़े हमेशा ही अपने नेता कीड़े के पीछे चलते हैं। लिबमैन ने एक बार इन कीड़ों को एक गोल थाली में रख दिया। उन सबने चलना शुरू किया और फिर चलते गये। इस गोल रास्ते का कोई अन्त तो था नहीं, लेकिन उन्हें भला इसका क्या पता था? वे तो बस चल रहे थे, चलते जा रहे थे। आखिरकार वे उस समय तक चलते रहे, जब तक कि थक कर गिर नहीं गये और गिर कर मर नहीं गये।
वासनाओं के पीछे भागते हुए व्यक्तियों की दशा भी कुछ इसी तरह की है। मौत से पहले वे कभी नहीं जान पाते कि जिस मार्ग पर वे हैं, वह मार्ग नहीं, चक्कर है। मार्ग की कोई मञ्जिल होती है। यह कहीं पहुँचाता है। लेकिन चक्कर तो बस गोल-गोल घुमाता है, पहुँचाता कहीं भी नहीं। जो वासनाओं के पीछे दौड़ रहे हैं, वे भी बस चलते जाते हैं। वे यह भी विचार नहीं कर पाते कि जिस राह पर वे हैं, वह कहीं कोल्हू का चक्कर तो नहीं? वासनाओं की राह गोल है। घूम-फिर कर हम वहीं उन्हीं वासनाओं पर अटक जाते हैं।
दुष्पुर वासनाओं के पीछे चलकर भला कब, कौन, कहाँ पहुँचा है। इस राह पर न तो तृप्ति है, न तुष्टि और न ही शान्ति। कम ही ऐसे भाग्यशाली होते हैं जो अपनी मौत से पहले इस अज्ञानपूर्ण अन्ध भटकन से उबर कर विवेक का अनुसरण करने लगते हैं। विवेक उन्हें एक साथ सब कुछ दे देता है। महर्षि रमण कहते थे, जो वासनाओं की अन्धकार पर हैं, उनके लिए मेरे हृदय में आँसू भर आते हैं, क्योंकि उन्हें अतृप्ति, असंतुष्टि और अशान्ति के सिवा कुछ नहीं मिलेगा। उस आदमी से बढ़कर रास्ते से भटका हुआ कौन है, जो कि वासनाओं के पीछे चलता है। इसलिए जीवन का यही एक संदेश है, वासना नहीं केवल विवेक।