दीया धरती का, ज्योति आकाश की

November 2002

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दीपावली पर दीये जलाते समय दीये के सच को समझना निहायत जरूरी है। अन्यथा दीपावली की प्रकाशपूर्ण रात्रि के बाद केवल बुझे हुए मिट्टी के दीये हाथों में रह जाएँगे। आकाशीय-अमृत ज्योति खो जाएगी। अन्धेरा फिर से सघन होकर घेर लेगा। जिन्दगी की घुटन और छटपटाहट फिर से तीव्र और घनी हो जाएगी। दीये के सच की अनुभूति को पाए बिना जीवन के अवसाद और अन्धेरे को सदा-सर्वदा के लिए दूर कर पाना कठिन ही नहीं नामुमकिन भी है।

दीये का सच दीये के स्वरूप में है। दीया भले ही मरणशील मिट्टी का हो, परन्तु ज्योति तो अमृतमय आकाश की है। जो धरती का है, वह धरती पर ठहरा है, लेकिन ज्योति तो निरन्तर आकाश की ओर भागी जा रही है। ठीक दीये की ही भाँति मनुष्य की देह भी मिट्टी ही है, किन्तु उसकी आत्मा मिट्टी की नहीं है। वह तो इस मिट्टी के दीये में जलने वाली अमृत ज्योति है। हालाँकि अहंकार के कारण वह इस मिट्टी के देह से ऊपर नहीं उठ पाती है।

मिट्टी के दीये में मनुष्य की जिन्दगी का बुनियादी सच समाया है। ‘अप्प दीपो भव’ कहकर भगवान् बुद्ध ने इसी को उजागर किया है। दीये की माटी अस्तित्त्व की प्रतीक है, तो ज्योति चेतना की। परम चेतना परमात्मा की करुणा ही स्नेह बनकर वाणी की बातों को सिक्त किए रहती है। चैतन्य ही प्रकाश है, जो समूचे अस्तित्त्व को प्रभु की करुणा के सहारे सार्थक करता है।

मिट्टी सब जगह सहज सुलभ और सबकी है। किन्तु ज्योति हर एक की अपनी और निजी है। केवल मिट्टी भर होने से कुछ नहीं होता। इसे कुम्भकार गुरु के चाक पर घूमना पड़ता है। उसके अनुशासन के अवे में तपना पड़ता है। तब जाकर कहीं वह सद्गुरु की कृपा से परमात्मा की स्नेह रूपी करुणा का पात्र बनकर दीये का रूप ले लेती है। ऐसा दीया, जिसमें आत्म ज्योति प्रकाशित होती है। दीपावली पर दीये तो हजारों-लाखों जलाये जाते हैं, पर इस एक दीये के बिना अन्धेरा हटता तो है, पर मिटता नहीं। अच्छा हो कि इस दीपावली में दीये के सच की इस अनुभूति के साथ यह एक दीया और जलाएँ, ताकि इस मिट्टी के देह दीप में आत्मा की ज्योति मुस्करा सके।


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