जीवन की मूल प्रेरणा है परमार्थ

February 1997

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संसार को आलोकित करने के लिए सूर्यदेव निरन्तर तपा करते हैं। अपने अविराम तप की ज्वाला में हर-हमेशा जलते रहकर ही वे धरती के दोनों गोलार्द्धों में प्राण और ऊर्जा का संचार करते हैं। मेघों का अभाव कहीं जीवन ही न सुखा डाले, इसके लिए सागर सतत् बड़वानल में जला करते हैं। अपने इस अनवरत अन्तर्दाह को सहकर वे उस सरंजाम को जुटाने में संलग्न रहते हैं, जो तपते-झुलसते जीवन को वर्षा की शीतल फुहार से शान्ति दे सके। सितारे हर रोज चमकते हैं, ताकि मनुष्य अपनी अहंता में ही न पड़ा रहकर विराट ब्रह्म की प्रेरणाओं से पूरित बना रहे। अपनी हर श्वास के साथ संसार भर का जहर पीने और बदले में अमृत उड़ेलने का पुण्य-पुरुषार्थ वृक्षों ने कभी बन्द नहीं किया। कर्म का परोपकार में अर्पण, सृष्टि की मूल प्रेरणा है। जिस दिन यह प्रक्रिया बन्द हो जय, उस दिन विनाश ही विनाश, शून्य ही शून्य, अन्धकार ही अन्धकार के अलावा और कुछ भी नहीं रह जाएगा।

परोपकार की इस पुण्य-प्रक्रिया को जारी रखने के लिए ही नदियाँ राह में पड़ने वाले पत्थरों की ठोकरें सहकर भी सबको जल दान करती रहती हैं। पवन जमाने भर की दुर्गन्ध का बोझ भी सहकर नित्य चलती रहती हैं और प्राण दीपों को प्रज्वलित रचाने को कर्तव्य पाल करती रहती हैं। फूल हँसते और मुस्कुराकर कहते हैं, काँटों की चुभन की परवाह न करके संसार में सुगन्ध भरने और सौंदर्य बढ़ाते रहने में ही जीवन की शोभा है। कोयल कूकती है तो पीछे जो आभा प्रतिध्वनित होती है, उसमें कोलाहलपूर्ण संसार में माधुर्य बनाए रखने का शान्त सरगम गूँजता प्रतीत होता है। अपने नन्हें से बच्चे को चोंच में दाना डालकर चिड़िया अपने वंश का पोषण ही नहीं करती, अपितु असमर्थ और अनाश्रितों को आश्रय देने की परम्परा पर भी प्रकाश डालती है।

जीवन की मूल प्रेरणा है,परमार्थ और लोक-कल्याण के लिए भावभरा आत्मार्पण। ठीक-ठीक आत्मार्पण किए बिना परमार्थ साधना पूरी नहीं होती। आत्माहुति जितनी सम्पूर्ण होगी, परमार्थ की ज्वाला उतनी ऊँची उठेगी। दीप जितना अधिक अपने को जलाता है, ज्योति उतनी ही अधिक प्रखर होती है। जड़े अपने को जितनी अधिक गहराई में दबाई रखती हैं, वृक्ष उतने ही अधिक मजबूत होते और ऊँचे उठते हैं। जीवन को आधार और ऊर्जा प्रदान करने वाला प्रत्येक घटक इसी पुण्य-परम्परा में संलग्न है। सृष्टि में सन्तुलन बनाए रखने के लिए इसके निर्जीव कण तक इस पुण्य-प्रक्रिया को जारी रखने में जुटे हैं। ऐसे में स्वयं को जीवित ही नहीं समझदार भी समझने वाला मनुष्य अपने समाज की उपेक्षा कर दे, परमार्थ से मुँह मोड़ ले, उसकी श्रीवृद्धि और सौंदर्य निखारने का प्रयत्न न करे इससे बढ़कर लज्जा और आपत्ति की बात उसके लिए और क्या हो सकती है।


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