संत, सुधारक और शहीद

March 1996

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अवतार केवल उन्हीं को नहीं कहते जिनके बारे में जन प्रचलित मान्यताएं है मिथक या शास्त्र जिनका वर्णन करते आए हैं परब्रह्म की अवांतर चेतना मानवी सत्ता से भी यह कार्य करा लेती है विशेषतः उनसे जिनमें दैवी तत्वों का चिरसंचित बाहुल्य पाया जाता है ऐसे अवांतर तीन रूपों में दृष्टिगोचर होते हैं संत सुधारक और शहीद ये तीन अवांतर चेतना के ऐसे स्वरूप है जिन्हें देखकर उनकी सृजन प्रयोजनों में नियोजित तत्परता के माध्यम से मानवी काया में परमात्मा की चेतना का दिग्दर्शन किया जा सकता है।

‘सन्त’ उन्हें कहते हैं जो अपने उपदेशों से नहीं अपने चरित्र एवं व्यक्तित्व के आधार सुसंस्कृत जीवन का शिक्षण देते हैं। जो अपनी निज की वासना पर नियंत्रण कर अपने आपे को सुधार कर मानव जीवन के एक-एक पल सदुपयोग करने का शिक्षण दे वह संत की परिभाषा में आता है। संत मनः स्थिति को नियंत्रित रखने विचारों की अनगढ़ता को ठीक कर आदर्श वादी उत्कृष्टता को जीवन में उतारे जाने की प्रयोगशाला स्वयं को बना कर अपना उदाहरण सबके समक्ष प्रस्तुत करते हैं। वे जन- मानस को यह साहस प्रदान करते हैं कि मनः ऊँची रहने पर विषम परिस्थितियों में भी मानवी गरिमा अक्षुण्ण रखी जा सकती है।

अवांतर का दूसरा स्तर ‘सुधारक’का है जो न केवल वासना पर अपितु तृष्णा पर भी नियंत्रण कर आत्म निर्माण के साथ दूसरों को बदलने योग्य पराक्रम करने की सामर्थ्य रखते हैं। आत्म-सुधार अपने हाथ की बात है इसलिए संत का कार्य-क्षेत्र सीमित और सरल है। किन्तु सुधारक को अन्यों को भी बदलना पड़ता है। संत का ‘ब्राह्मण’ होना पर्याप्त है किन्तु सुधारक को ‘साधु’ भी बनना होता है जो एक हाथ में शास्त्र और दूसरों शस्त्र रखता है। अधिक प्राणशक्ति के लिए तृष्णा-लिप्सा और अधिक पाने की महत्वाकांक्षा पर नियंत्रण आवश्यक है। चरित्र अधिक ऊंचा साहस अधिक प्रखर और पुरुषार्थ अधिक प्रबल हो तभी दूसरों को अभ्यस्त अनाचार से विरत रहने और सदाशयता अपनाने के लिए सहमत एवं विवश करना सम्भव है। सुधारक दो मोर्चों को सम्भाल कर व्यापक परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाने वाली अवतारी सत्ता के अंतर्गत आते हैं।

अवतार का तीसरा स्तर ‘शहीद’ का है। शहीद का अर्थ है जो वासना तृष्णा से मुक्त है ही अहंता से भी मुक्ति पा चुका है। ‘स्व’का “पर” के लिए समग्र समर्पण-समर्पण शरणागति परमसत्ता के विराट उद्यान को सुन्दर बनाने के लिए अपने आपको विसर्जित कर देना-यह सच्ची शहादत है। संकीर्ण स्वार्थपरता का अन्त करके परमार्थ को ही अपनी महत्वाकाँक्षाओं का केन्द्र बना लेना उसी में रस लेना उसी चिन्तन में सतत् तन्मय रहना ही शहीद की वास्तविक परिभाषा है। जिसने अहं को अपनी क्षुद्र महत्वाकांक्षाओं को गला दिया. वही सच्चा शहीद जिन्हें अवतार के प्रत्यक्ष दर्शन करने हों वे ऊपर बताए तीन वर्गों का विस्तार एवं स्तर उभरता देखकर युगपरिवर्तन की प्रक्रिया का अनुमान लगा सकते हैं।


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