समर्थ के अवलम्बन से ही आत्मिक प्रगति

July 1996

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भारतीय संस्कृति में अनेकानेक विशेषताएँ हैं, किन्तु एक सबसे बड़ी विशेषता है जो हम उसमें पाते हैं वह है- गुरु शिष्य परंपरा । गुरु माँ की तरह अपनी प्राण ऊर्जा से शिष्य के अन्तःकरण को ओतप्रोत कर उसमें नई शक्ति का संचार करता है, उसे नया जीवन देता है। शिष्य का समर्पण और गुरु द्वारा अपना सर्वस्व उसको अर्पण, इसकी मिसाल और कहीं भी देखने को नहीं मिलती। गुरु का सहयोग लिये बिना शिष्य की आत्मिक प्रगति संभव नहीं। अज्ञान के अंधकार में फँसे मानव को बाहर निकालने के लिए गुरु अपनी विशिष्ट ज्ञान की शलाका से उसकी आँखों में वो अंजन लगाता है कि उसे जीवन का वास्तविक उद्देश्य और अपनी भावी भूमिका स्पष्ट नजर आने लगती है। जिस किसी के जीवन में गुरु का पदार्पण हुआ है, उसे मानकर चलना चाहिए कि उसके उच्चस्तरीय आत्मोत्थान का पथ प्रशस्त हो गया।

आज के आधुनिक युग में जब आदमी को आदमी पर विश्वास नहीं है तब शिष्य कैसे विश्वास करे- कौन सा गुरु उसके लिए सच्चा है ? शास्त्रों का मार्गदर्शन है- धूर्तों के मायाजाल से बचने के लिए लोभ-लालच में फँसाकर अपना उल्लू साधने वाले तथाकथित बाबाजियों के चंगुल में आने से बचने के लिए शिष्य को अपने अंदर के नेत्र खुले रखने चाहिए। यह एक समयसाध्य प्रक्रिया है, परन्तु क्रमशः समझ में आने लगता है- कौन सही है? और कौन गलत ? आत्मिक प्रगति के इच्छुक साधक आज के इस मायाजाल से घिरे संसार में निश्छल स्वभाव वाले, संवेदना से अभिपूरित, तार्किक नहीं बल्कि वास्तविक ज्ञान से भरे−पूरे गुरु को पहचानने में देर नहीं करते। गुरु की पहचान के पश्चात् अपनी आत्म सत्ता का परिपूर्ण समर्पण , अहंकार का विगलन और अपनी इच्छाओं का गुरु की इच्छाओं में विलय- बस इतना ही शेष रह जाता है। समर्पण यदि सर्वोच्च स्तर का हुआ तो बदले में उतना ही मिलता हुआ चला जाता है। वंशी स्वयं को पोला कर लेती है और मुँह से लगने के पश्चात् वही स्वर बजने देती है जो बजाने वाला चाहता है। शिष्य भी यदि स्वयं को खाली कर दे और अपनी इच्छायें गुरु को दे दे, तो गुरुदीक्षा सम्पूर्ण हो जाती है। गुरुसत्ता अपनी प्राण ऊर्जा की कलम शिष्य के व्यक्तित्व में आरोपित कर उसे विशिष्टता से सम्पन्न बना देती है। समर्थ गुरु का अवलम्बन के सौभाग्य है। जिसे यह मिल गया मानो उसकी मुक्ति का द्वार खुल गया।


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