कभी -कभी मन सोचने पर विवश हो जाता है कि उपासनागृहों की संख्या व उनमें जाने वालों की तादाद बढ़ते चले जाने के बावजूद नास्तिकता क्यों तेजी से बढ़ रही है? क्यों व्यक्ति परमसत्ता के अनुशासन की उपेक्षा कर कर्मकाण्डों के आडम्बरों में उलझा निजी जीवन में अनैतिक आचरण करता देखा जाता है? क्यों वह यह समझ नहीं पता कि मात्र बाह्योपचार करते चलने से न उसकी आत्मिक प्रगति ही सध पाएगी न उसकी भौतिक महत्वाकांक्षाएँ ही पूरी होगी? संभवतः इसके मूल में नासमझी हो, गहराई तक घुसा अज्ञान हो, विचार संस्थान में संव्याप्त भ्रान्तियाँ हो, जिन से वह उबरना न चाहता हो।
आज की सबसे बड़ी आवश्यकता इन प्रच्छन्न नास्तिकों के चिन्तन में आमूलचूल हेरफेर की है। व्यक्ति बहिरंग जीवन में धार्मिक आचरण करे, न करे किन्तु उसके मानस का परिष्कार तो होना ही चाहिए। उसे यह समझना जरूरी है कि बिना भावनात्मक कायाकल्प के सारे बाह्योपचार निरर्थक है। यह तभी संभव हो सकेगा , जब अध्यात्मधर्म के संबंध में, उपासना सिद्धि के संबंध में छाई तमाम भ्रान्तियों का निवारण उसे विज्ञानसम्मत बना कर किया जाय । विज्ञानसम्मत से अर्थ है तर्क, तथ्य, प्रमाण लॉजिक की कसौटी पर कसते हुए । आज समाज में छाई अनास्था स्वयं को नास्तिक कहने वालों की वजह से नहीं है अपितु उन आस्तिकों की वजह से है जो स्वयं का वैसा कहते हैं, बाहर वैसा ही आडम्बर रचते हैं पर उनके जीवन में वह कहीं भी लेशमात्र भी नजर नहीं आता । प्रगतिशील अध्यात्म की जितनी आवश्यकता आज है, उतनी पहले कभी नहीं रही।