इस उन्माद को कोई रोकता क्यों नहीं?

February 1990

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समुद्र-मंथन से अमृत भी निकला था और विष-वारुणी भी। देवताओं ने अमृत की उपयोगिता समझी और उसे आग्रहपूर्वक पिया। सृष्टि को महाविनाश से बचाने के लिए विष तो महाशिव ने कंठ में धारण कर लिया, पर दैत्यों को मदिरा का स्वाद सुहाया और उनने उसे छककर पिया। उन्माद चढ़ना ही था, सो वे खुमारी का दौर आने पर भ्रष्ट चिंतन और आचरण में निरत हो गए। प्रतिफल जो होना था, वही हुआ। देवता स्वर्गीय वातावरण का आनंद लेते रहे और दैत्यों ने अपना ही नहीं, अपनी पकड़ में आने वालों, संपर्क-साधने वालों का अहित-ही-अहित किया। स्वयं भर्त्सना के भाजन बनते और दुर्गति के गर्त में गिरते रहे। इतना ही नहीं, जो भी संपर्क में आया, उसे पतन के गर्त में गिराया। अमृत को अपना प्रतिफल मिला था और अपेय पीने वाले भी दुर्गति से न बच सके। छूत लगने की बात प्रसिद्ध है। देवत्व भी बढ़ा; पर उसकी गति मंद रही।

वारुणी का उन्माद जितने बड़े क्षेत्र में, जितना प्रभाव छोड़ता है; उसे भी सभी जानते हैं। बहुमत दैत्यों का रहा और तत्त्वदर्शियों को उस प्रतिक्रिया को देखते हुए कहना पड़ा— “पीत्वा मोहमयी मदिरा उन्मत्त भूत्वा जगत।” जगत शब्द से उनका अभिप्राय बहुसंख्य लोगों से रहा है। माचिस की तीली देखते-देखते बड़े क्षेत्र को भस्मीभूत कर देती है, जबकि पानी का छिड़काव उपयोगी होते हुए भी धीमी गति से अपना प्रभाव छोड़ता है। अमृत का प्रभाव-क्षेत्र घटता-सिकुड़ता गया; पर मदिराजन्य उन्माद ने तो सर्वत्र कुहराम ही मचा दिया। वह प्रक्रिया दावानल की तरह बढ़ती और बढ़ती गई।

मनुष्यों पर आज एक उन्माद बुरी तरह छाया दीखता है। वे वासना, तृष्णा और अहंता की ललक बुझाने के लिए बेतरह आकुल-व्याकुल दिखते हैं। जो कुछ सोचते और करते हैं, वह उन्हीं प्रयोजनों के लिए होता है। कुछ समेटते-बटोरते भी हैं। इस प्रकार स्वाभाविक रूप से उस वर्ग की अभिवृद्धि असाधारण रूप से होती है।

लगता है, समुद्र-मंथनकाल से लेकर अब तक दैत्य परंपरा ही उगती, बढ़ती और फैलती चली आई है। उसकी गति में विराम भी लगा नहीं है। वासना, तृष्णा और अहंता का उन्माद जन-जन पर चढ़ा दिखता है। उसकी खुमारी इतनी गहरी है कि 'और-और' ,'अधिक-अधिक' की रट उभरती ही आती है। कितनी ही पी लेने पर तृप्ति का अनुभव होता ही नहीं। विद्रूपता बढ़ती ही जाती है। लगता है, यह उन्माद समूची मनुष्य जाति को न घेर ले और असुरता का सर्वव्यापी साम्राज्य कहीं समूची मनुष्य जाति को अपने शिकंजे में न कस ले।

इस दावानल के विस्तार को हमें मूकदर्शक की तरह बैठे हुए देखते नहीं रहना चाहिए। अग्निकांड के अवसर पर जो निष्ठुरता अपनाए रहता है, अपने पानी के घड़े में से एक बूँद भी उसके समाधान के लिए खर्चने में कृपणता बरतता है, बुझाने की दौड़-धूप के लिए पसीने की एक बूँद भी नहीं बहाना चाहता, उसे भी भर्त्सना का भाजन बनना पड़ता है, भले ही अग्निकांड प्रस्तुत करने में उसका कोई हाथ न रहा हो। दुर्घटनाग्रस्त घायल को सड़क पर पड़ा देखकर, जो मुँह बिचकाकर आगे बढ़ जाता है, उसे आत्मा, परमात्मा और लोक-चेतना की दृष्टि में अपराधी बनना पड़ता है, भले ही उस दुर्घटना में उसका कोई हाथ न रहा हो।

मनुष्य प्राणी-जगत में सामान्य नहीं, वरन असामान्य है। उसकी शारीरिक-मानसिक संरचना अपने ढंग की अनोखी है, उसे विशिष्ट और वरिष्ठ बनाया गया है। साथ ही, एक अतिरिक्त उत्तरदायित्व सौंपा गया है कि वह ईश्वरीय उद्यान की, इस सुगढ़ संसार की, न केवल रखवाली करे; वरन उसे खाद-पानी देने और बढ़ाने, संभालने में भी समुचित तत्परता और सतर्कता निबाहे। इस ओर से मुँह मोड़ लेने पर वह अपराधियों की श्रेणी में गिना जाता है। दायित्वों की उपेक्षा हेय प्राणियों के लिए क्षम्य हो सकती है, पर सेनापति जैसे उच्चपदासीन के लिए तो इतना प्रमाद भी अक्षम्य हो जाता है एवं उसे कोर्ट मार्शल के कटघरे में मृत्युदंड पाने के लिए खड़ा होना पड़ता है।

दैत्य-परंपरा इसलिए बढ़ती चली गई है कि उसकी रोक-थाम करने के लिए देव परिवार आगे नहीं आया। उसने अनर्थ को होते अपनी आँखों से देखा और जब रोक-थाम की गुहार सर्वत्र उठ रही थी, तो उसने यह कहकर मुँह मोड़ लिया कि वह अपनी स्वर्गमुक्ति के लिए किन्हीं पूजा-पाठों में लगा रहता है। उसने मोह-माया के साथ-साथ कर्त्तव्यपालन से भी निवृत्ति ले ली है।

सेना मोर्चे पर अड़ी रहे, तो कोई कमजोर शत्रु भी देश पर हमला कर सकता है और उस पर अधिकार जमा लेता है। खरपतवारों को उखाड़ा न जाए तो बहुमूल्य फसलें भी उन्हीं झाड़-झंखाड़ों में दबकर रह जाएँगी। मच्छर-मक्खियों की रोक-थाम न की जाए तो उनकी अभिवृद्धि, अपने प्रभाव-क्षेत्र में मलेरिया जैसे कितने ही रोगों से वहाँ के निवासियों को ग्रसित कर लेगी। मल-मूत्र की गंदगी को हटाने का प्रयत्न न किया जाए तो उस लापरवाही को बरतने वाले हैजे जैसे बीमारियों से ग्रसित होकर रहेंगे, साथ ही उस उदासीनता के अपराध से लोक-भर्त्सना और आत्मप्रताड़ना के भाजन भी बनेंगे।

जनमानस पर असुरता का उन्माद बुरी तरह चढ़ रहा है। पैसा बटोरने, मजाक उड़ाने और बड़प्पन जताने की खुमारी महामारी की तरह फैल रही है। यद्यपि इन तीनों का एक से एक बढ़ा-चढ़ा अनर्थ है। शांति और प्रगति का वातावरण इन्हीं तीनों के कारण बुरी तरह बरबाद हो रहा है। नशेबाजों की मंडली विस्तार पकड़ गई और दिन-दिन अपना परिवार बढ़ाती चली जा रही है। यह हो रहा है, सो तो है ही; पर उन देवमानवों को क्या हुआ? जो अपने को प्रहरी होने का दावा करते रहे, अवांछनीयता को निरस्त करने की जिम्मेदारियाँ उठाने की घोषणा करते रहे हैं?

जिन्होंने घोषणा कर रखी है कि “वयं राष्ट्रे जागृयामः पुरोहिताः।” हम पुरोहित राष्ट्र को जाग्रत और जीवंत बनाए रखेंगे, वे ही यदि अपनी प्रतिभा को भुला बैठें, चुनौती सामने आने पर हथियार डाल दें और असमर्थतासूचक मिमियाने के स्वर में विवशता प्रदर्शित करने लगें तो विचारशीलता मात्र असुरता के बढ़ने पर ही आक्रोश व्यक्त नहीं करेगी, वरन प्रहरियों को भी अपराधी ठहराएगी, जो कर्त्तव्यपालन में समर्थ होते हुए भी असमर्थता का लबादा ओढ़ मैदान छोड़कर भाग खड़े होने की कायरता दिखाते हैं।



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