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प्रगति की आकाँक्षा मनुष्य का एक स्वाभाविक गुण है। चेतना सम्पन्न तो अन्य प्राणी भी पाये जाते हैं परन्तु यह विशिष्टता मात्र मानव के साथ ही जुड़ी है। यह आकाँक्षा ही महत्वाकाँक्षा बनती और मनुष्य को भौतिक अथवा आध्यात्मिक क्षेत्र में क्रमशः ऊँचे सोपानों पर पहुँचाती देखी जाती है। महत्वाकाँक्षा से रहित दो ही श्रेणी के व्यक्ति हो सकते हैं। मूढ़मति-जड़ता से विभूषित मनुष्य अथवा स्थित प्रज्ञ-परमहंस। मूढ अपनी जड़तावश एवं ब्रह्म ज्ञानी अपनी दिव्य चेतनावश साँसारिक महत्वाकांक्षाओं से बचे रहते हैं और सन्तोष के साथ स्वल्प साधनों में गुजारा करते देखे जाते हैं।
मूढ़मति जिन्हें कभी जगद्गति से कोई नाता नहीं रहता एवं इन्द्रिय लिप्सा में निमग्न प्राणियों में कोई विशेष अन्तर नहीं। ढर्रे की जिन्दगी जोते इन प्राणियों को निम्नतम श्रेणी में रखा जा सकता है। इससे ऊँचा स्तर अहंता- यश लिप्सा प्रधान भौतिकवादी दृष्टिकोण वाले मनुष्यों का होता है। चर्चा का विषय बनने के आकाँक्षी इस समूह की बहुलता सामान्य जन समुदाय में चारों ओर देखी जा सकती है। लोभ एवं अहंकार की पूर्ति की यह व्यग्रता तृष्णा कहलाती है और न्यूनाधिक रूप में बहुसंख्य में पायी जाती है। इससे भी ऊँची परत अध्यात्म प्रधान है। उत्कृष्ट आदर्शवादिता से भरी-पूरी सद्भाव सम्पन्न आकाँक्षाएँ ही आत्मिक प्रगति का माध्यम बनती हैं। महत्वाकांक्षाओं का यह मोड़ ही जीवन का काया-कल्प करता है। गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता के समावेश तथा लोकमंगल की कामना से जिया गया जीवन ही मनुष्य को अभीष्ट है इसी के लिये उसका जन्म हुआ है। कौन, कब, कितना अपनी आकाँक्षाओं का स्तर मोड़ पाता- ऊँचा उठा पाता है, इसी पर निर्भर है मनुष्य की वास्तविक प्रगति।