उत्तिष्ठ,जागृत प्राप्य वरानिबोधत्त

June 1982

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हनुमान आरम्भ में सामान्य बानर थे। सुग्रीव के साधारण सेवक। वे अपने मालिक की श्रमजन्य सारी गृहस्थी को वापस दिला सकना उनके बलबूते सम्पदा की बात नहीं थी। राम–लक्ष्मण जब ऋष्यूक पर पहुँचे तो सुग्रीव को आशंका यह हुई कि यह कोई बालि के भेजे हुए आक्रमणकारी हैं। भेद लेने के लिए हनुमान को भेजा गया। सुग्रीव की तरह हनुमान भी अपनी प्राण रक्षा के सम्बन्ध में भयभीत थे। उन्होंने आक्रमणकारी होने पर प्रथम आघात से बचने की दृष्टि से वेश बदलने की छल नीति अपनाई। ब्राह्मण परिधान पहने और नमन प्रणपात करते हुए उनका परिचय पूछने लगे।

इस प्रसंग में हनुमान में जन्मजात विशिष्टता होने का कहीं अता−पता नहीं लगता। यदि वैसा कुछ रहा होता तो अपने मालिक की धनधरणी इस प्रकार अपहरण न सहते। प्रतिकार करते। इसी प्रकार भेद लेने के लिए न तो ब्राह्मण वेश बनाने का छल करते और न फिर उस वेश की मर्यादा गिराकर नमन प्रणपात अपनी ओर से आरम्भ करते।

इसके बाद भी वे सुग्रीव के साथ हुए राम के समझौते के आधार पर सीता को खोजने के लिए एक गुप्त चर के रूप में ही अपनी छोटी मण्डली समेत बाहर भेजे गये थे। उसी कार्य में निरत भी रहे। यह साधारण भूमिका ही थी। यहाँ तक उनकी महानता का परिचय नहीं मिलता। बात आगे तक बढ़ जाती है। सीता खोजने के संदर्भ में समुद्र पार करके लंका पहुँचने का प्रसंग सामने आता है। समुद्र पार करना इसके लिए आवश्यक था। हनुमान मण्डली में बलिष्ठ थे। उनसे पूछा गया तो वे चुप बैठे रहे। अपने पराक्रम पर विश्वस्त नहीं थे। वे इतना बड़ा काम कैसे कर सकेंगे, यह आत्म विश्वास था नहीं। फिर जान किसे प्यारी कौन डाले? आदर्शवाद के नाम पर अपनी जान कौन गँवाए? हनुमान को समुद्र तैरने या लाँघने में कोई उत्साह नहीं उठा और वे भी दूसरों की तरह चुपचाप, सिर नवाये, मुँह लटकाये बैठे रहे।

उदासी और हीनता को तोड़ते हुए बूढ़े जामवन्त ने उन्हें ‘आत्मबोध’ कराया। कहा−उनमें सामर्थ्य की कमी नहीं,मात्र आत्म विश्वास घट रहा है। वे महान कार्य कर सकते हैं पर इसके लिए उन्हें आत्मविश्वास उभारना होगा। अपना स्वरूप समझना होगा। ऐसा बन पड़े तो आदर्शों के ऊपर सामान्य सुविधाओं को निछावर करने में कुछ भी कठिनाई नहीं रहेगी वरन् यह एक लाभदायक सौदा प्रतीत होगा। ऐसा ही परामर्श अपने शब्दों में जामवंत ने हनुमान को दिया। व्यामोह के कुचक्र में फँसे हुए−भव−बन्धनों में जकड़े हुए अन्य प्राणियों की तरह हनुमान की मनःस्थिति भी वैसी बनी रहती तो वे जामवंत के परामर्श पर ध्यान नहीं देते और संपर्क क्षेत्र के अन्यान्य लोगों की तरह अपने मतलब से मतलब रखने की नीति पर ही चलते रहते। किन्तु आत्मबोध की शक्ति सामर्थ्य के भी कुछ चमत्कार हैं। वह जिस सौभाग्यशाली के हाथ लगता है वह ‘अतुलित बलधाँम रामदूतं नमामि’ का श्रेयाधिकारी बनता है। हुआ भी ऐसा ही। जामवन्त ने हनुमान को आत्मबोध करा दिया। उनका वास्तविक स्वरूप समझा सकने में सफलता प्राप्त करली। फलतः वे व्यामोह मुक्त हुए। तथ्य तक पहुँचे, जीवन की सार्थकता आदर्शों के परिपालन में अनुभव करने लगे। साहस उभरा और हेय हीनता का मकड़ जंजाल टूट गया। वे आदर्शों के लिए जोखिम उठाने कुछ क्षणों तक घाटा समझते हैं, पर अब बदली स्थिति में लाभ अनुभव करने लगे और रामकाज करने के लिए आदर्शों पर अपने निछावर करने के लिए कटिबद्ध हो गये यही है हनुमान काया−कल्प। इसी क्षण से वे बजरंगी बन गये। समुद्र छलाँगने। पर्वत उखाड़ने, भारत के तीर से भी अधिक वेगवान सिद्ध होने, दस लाख असुरों के बीच अकेले जा जूझने, सोने की लंका का जलाने में समर्थ बन सके। लंका विजय− सीता की वापसी से लेकर रामराज्य की स्थापना जैसे महान कार्यों में उनका अविस्मरणीय योगदान रहा। यह सब कैसे सम्भव हुआ? आरम्भ के सामान्य हनुमान और बाद में महान हनुमान में जो अद्भुत परिवर्तन दीखता है वह कैसे बन पड़ा? इसके लिए किसी चमत्कार वरदान को खोजने की आवश्यकता नहीं। आत्म सत्ता का स्वरूप, लक्ष्य, सदुपयोग समझा जा सके तो दृष्टिकोण बदलेगा ही। फिर अन्धी भेड़ों का अनुमान करते हुए गर्त में गिरते चलने बादले समुदाय में अलग हटकर अपना नया रास्ता बनाना होगा और उस पर बिना साथियों को सहयोग खोजे एक की चल पड़ने का साहस जुटाना पड़ेगा। इतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि कृतकृत्य होने वाला भाग्योदय हो चला, तमिस्रा, मोह निद्रा के बीच ब्रह्ममुहूर्त आया और अरुणोदय मुस्काया।

हनुमान की उपरोक्त गाथा अखण्ड ज्योति के प्रिय परिजनों को इसलिए सुनाई जा रही है कि वे उस प्रसंग के साथ अपना तुलनात्मक अध्ययन करें और देखें कि उनकी जीवनचर्या में क्या किसी बड़े सौभाग्योदय की सम्भावना है? अब तक महान सम्भावना के बीच यदि प्रत्यावर्तन सम्भव हो सके तो समझना चाहिए वैसा सुयोग अपने पल्ले भी बँधा था जैसा कि महावीर को उपलब्ध हुआ।

महान परिवर्तन का ध्रुव केन्द्र आत्मबोध है। भगवान बुद्ध का आरम्भिक और उपरान्त के जीवन क्रम में जो आश्चर्यजनक परिवर्तन दीखता है उसका एकमात्र कारण वह आत्मबोध था जो उन्हें बोधि वृक्ष के नीचे प्राप्त हुआ। यह उपलब्धि अनायास ही नहीं हुई। उनने आत्म सत्ता का पर्यवेक्षण परिशोध और परिष्कार की तप साधना की। फलतः वह सिद्धि उनके हाथ लगी जिसे आत्मज्ञान कहते है−पोथी के बेंगनों वाला पढ़ने सुनने तक सीमित रहने वाला बुद्धि विलास नहीं वरन् वह सुनिश्चित निर्धारण जो विश्वास ही नहीं साहस से भी भरा रहता है। जिसके कारण दृष्टिकोण बदलता है और कार्यपद्धति का प्रवाह ही उलट जाता है। सामान्य राजकुमार सिद्धार्थ को भगवान बुद्ध बना देने का चमत्कार कैसे उत्पन्न हुआ इसका उत्तर एक शब्द में देना हो तो उसे आत्म बोध कहा जा सकता है।

अखण्ड−ज्योति परिजनों को सुनिश्चित तथ्यों पर विश्वास करना चाहिए। वे असाधारण हैँ। उनकी चेतना में संचित सुसंस्कारिता के बीज हैं। इसके अनेक प्रमाणों में से एक यह है कि वे अखण्ड−ज्योति की विचार धारा के साथ भावनात्मक घनिष्ठता निरन्तर बढ़ाते ही चले आ रहे हैं। यह साहित्यिक रुचि का परिणाम नहीं है। बुद्धि विलास के लिए पढ़ते रहने का व्यसन अनेकों को होता है। ऐसे लोग अपना विनोद तो करते हैं पर किसी विचार धारा के साथ उनके संचालक सूत्र के साथ घनिष्ठता स्थापित नहीं करते। पतनोन्मुख प्रवृत्तियों में तो सहज आकर्षण भी होता है किन्तु आदर्शों के प्रति आमतौर से उपेक्षा ही बनी रहती है। यदि वैसा न हो तो उस दिशा में अभिरुचि बढ़े। घनिष्ठता उमंगे और आत्मीयता तादात्म्यता तक जा पहुँचे तो समझना चाहिए कि कोई अतिरिक्त −असामान्य बात है। अखण्ड ज्योति की विचार धारा को एक शब्द में युगान्तरीय चेतना की विचार धारा को एक शब्द में युगान्तरीय चेतना कहा जा सकता है। समय प्रवाह के यह सर्वथा प्रतिकूल पड़ती है ऐसी दशा में जिनका रुझान उस दिशाधारा के साथ साथ बहने लगा उनके सम्बन्ध में यही सोचा जा सकता है कि प्रवाह को चीरती हुई उलटी दिशा में चलने जैसी कोई विशेषता यहाँ विद्यमान है। हर अखण्ड−ज्योति परिजन को अपने सम्बन्ध में यह मान्यता बना ही लेनी चाहिए कि वे असामान्य है और यदि सुयोग मिले तो वे निश्चित रूप से असामान्य भूमिका निभा सकने में समर्थ हैं। हनुमान और बुद्ध के उपरोक्त उदाहरण उन पूरी तरह चरितार्थ हो सकते हैं। सम्भावों में कोई कमी नहीं। प्रवाह मुड़ने, दृष्टिकोण बदलने, साहस जुटने और पुरुषार्थ उभरने भर की देर है।

नारद का काम एक ही था। वे निरन्तर परिभ्रमण करते थे। भक्ति चर्चा तो रास्ता चलतों से भी करते थे पर विशेष रूप से घनिष्ठता उनसे स्थापित करते थे जिनमें पूर्व संचित सुसंस्कारिता की अतिरिक्त मात्रा दृष्टिगोचर होती थी। आज की स्थिति प्रतिकूल होने पर भी यदि संचित सुसंस्कारों की सम्पदा विद्यमान है तो परिष्कार परिवर्तन में बहुत देर नहीं लगती। इसलिए देवर्षि बादलों की तरह बरसते तो सर्वत्र थे पर निहाल उन्हीं सरिता सरोवरों को करते थे जिनमें पहले से ही गहराई बनी होती थी। उन्होंने वाल्मीकि, ध्रुव, प्रहलाद, पार्वती, सावित्री आदि के कान में गुरुमन्त्र दिया। वह अंकुरित हुआ और फला फूला। कितने ही उस अनुग्रह से कृतकृत्य हो गये। किन्तु सब नहीं। बहुतों को छप्पर के नीचे बैठे−बैठे, बिना भीगे मेघमाला के आवागमन जितना ही दृश्य लाभ हो सका। जबकि कुछ निहाल हो गये।

अखण्ड−ज्योति को नारद माना जाय तो इसमें अत्युक्ति न होगी। इसने लम्बी अवधि में व्यापक परिभ्रमण किया है। अनेकों को सत्परामर्श दिया है किन्तु उनमें कुछ ही ऐसे हैं जिन्होंने इस विचारणा को हृदयंगम किया है जिनका तादात्म्य जुड़ा है, जो परिजन स्तर तक पहुँच हैं, उनकी संख्या बहुत बड़ी नहीं है। पाठ अगणित बनते और छूटते बिखरते रहते है पर परिजन शब्द तो घनिष्ठता आत्मीयता का बोधक है। वैसे लोग एक समुदाय बनाते हैं और ‘पव जल सरिस विकाहि’ का उदाहरण बनते हैं। स्वाति नक्षत्र सर्वत्र बरसता है, पर उससे लाभ कुछ ही लेते हैं। कुछ ही सौंपे उसके लिए मुँह खोलती हैं, कुछ ही केले कपूर पाने और कुछ बाँस बंसलोचन उगाने का सौभाग्य लाभ लेते हैं। अखण्ड ज्योति की युगान्तरीय चेतना के साथ जो क्रमशः तादात्म्य स्थापित करते आये हैं, उन्हें अखण्ड ज्योति परिजन कहा जाता रहा है। अब ‘प्रज्ञा परिजन’ का जाएगा।

ऐसा क्यों? इसका एक ही उत्तर है। प्रज्ञा युग आ पहुँचना। अदृश्य से महान परिवर्तन की संभावना प्रेरणा बन कर बरस रही है। युग सन्धि की बेला में महाकाल की गलाई और ढलाई वाला कारखाना क्रमशः अधिक गरम होता और अधिक गतिशील बनता जा रहा है। इस प्रसंग में अखण्ड ज्योति की छत्र छाया में एकत्रित हुए समुदाय की उस परिवर्तन प्रवाह में अग्रदूतों की भूमिका निभानी होगी। प्रभातकाल की किरणें सर्वप्रथम पर्वत के उच्च शिखरों पर ही दीख पड़ती है। दूध गरम करने पर मलाई तैर कर ऊपर आती है। ब्रह्ममुहूर्त में प्राची में ही ऊषा काल की लालिमा दृष्टिगोचर होती है। प्रभात परिवर्तन की पूर्व सूचना कुक्कुट की लम्बी बाँग ही देती है। प्रज्ञा परिजनों को प्रज्ञा युग के अनुरूप अपनी भूमिका में परिवर्तन करना होगा। यही अखण्ड ज्योति और उसके परिकर के मध्य चल रही घनिष्ठ आत्मीयता की वह ऐतिहासिक परिणति। जिसके सम्मुख भावी पीढ़ी अनंतकाल तक भावभरी स्मरण गाथा कहती सुनती और यश गाथा से प्रेरणा ग्रहण करती रहेगी। यह संपर्क सान्निध्य इसी रूप में सार्थक एवं कृतकृत्य होने जा रहा है।

इन दिनों बहुत कुछ बदल रहा है। आवश्यक नहीं कि परिवर्तनों की पूर्व भूमिका सर्वसाधारण पर प्रकट होती ही रहे। गर्भस्थ बालक को आँख से देखने और गोदी में खिलाने की बात कहाँ बनती है। वैसा प्रसव प्रजनन के उपरान्त ही सम्भव होता है। नव युग का शिशु इन दिनों ‘गर्भस्थ’ स्थिति में भ्रूण बन कर रह रहा है पर कल उसका प्रत्यक्ष होना एक सच्चाई है। उस प्रभात बेला में जागृत आत्माएँ अपनी भूमिका निभाये बिना नहीं रह सकती। अरुणोदय होते ही चिड़िया घोंसले छोड़कर बाहर निकल आती है। कलियाँ अनायास ही मुस्कराने लगती हैं। पवन सौरभ दिखने लगता है फिर कोई कारण नहीं कि परिवर्तन की महान वेला में प्रज्ञा परिजन अपने में कुछ परिवर्तन प्रस्तुत न करें। यथावत् जड़ता अपनाये रहें।

मदालसा ने अपने सभी बच्चों को आत्मबोध कराया और महान बनाया था। वे सदा एक ही बात कहती थीं। “शुद्धोसि, बुद्धोसि, निरंजनोसि” तुम शुद्ध बुद्ध और निरंजन हो। अपने को पहचानो और अपने गौरव के अनुरूप मार्ग चुनो। सभी बालक महान बने। अखण्ड ज्योति का प्रयास भी मदालसा जैसा ही रहा है। माता मूर्ति ने नर−नारायण को—कुन्ती ने अपने लाड़लों को जो ज्ञान दिया, उसी प्रवाह को युगान्तरीय चेतना के अंतर्गत भी बहाया गया है। भर्तृहरि शिष्य गोपीचन्द को ब्रह्मज्ञानी उनकी माता ने ही बनाया था। शिवाजी,नेपोलियन आदि को महानता के पथ पर धकेलने में उनकी माताओं का ही हाथ रहा है। अखण्ड ज्योति की बौद्धिक सामग्री संग्रह करने वाली हलवाई की दुकान से नहीं−उस मेघमाला से तुलना की जानी चाहिए जो जहाँ जाती है वहीं नव जीवन उभारती है।

प्रज्ञा परिजन अपना स्वरूप समझें। उनके भीतर दूसरों की तुलना में कहीं अधिक संस्कारिता −आध्यात्मिकता की ऊर्जा विद्यमान है। इस ऊर्जा के सदुपयोग का ठीक यही मौसम है। समय चूक जाने पर पछताना ही शेष रह जाता है। गाड़ी चूक जाने पर यात्री पछताते और दूसरी गाड़ी के लिए प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं। जो गाड़ी इन दिनों प्लेटफार्म पर है वह चली गई तो फिर दूसरी आने के लिए कितनी लम्बी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी? और तब तक कौन सौभाग्यशाली अपनी वर्तमान स्थिति बनाये रहेगा? इस सम्बन्ध में कुछ कह सकना कठिन है।

इस पंक्तियों में सामयिक उद्बोधन इतना ही है कि प्रज्ञा परिजन अपनी विशिष्ट उत्कृष्टता पर बार बार विचार करें। अपना स्वरूप लक्ष्य समझें और युग धर्म की चुनौती स्वीकार करने में आनाकानी न करें। हनुमान और बुद्ध की तरह बीजाँकुर मौजूद हैं मात्र इन्हें उभरने का अवसर मिलने भर की कमी है। इसके लिए ठीक यही समय है। आत्म कल्याण और विश्व कल्याण की दुहरा सुयोग सामने है। मात्र इतना भर करना शेष है कि अपने को−समय को−पहचाना जाय और तद्नुरूप दिशाधारा निर्धारित करने में प्रमाद न बरता जाय।

सुसंस्कारों की− सुसंस्कारी विचारशीलों के लिए युग चुनौती ऋषि परम्परा के स्वर में कार मिलाकर इन दिनों नेय सिरे से प्रखर हो रही है। उसका उद्बोधन हैं−

“उत्तिष्छठ जागृत प्राप्त वरान्निबोधत।” “उठो जागो और श्रेय प्राप्तकरो”

लिए आवश्यक है कि − आदर्शों को चिन्तन तक सीमित न रखकर उसे व्यवहार में −तनाव में− प्रवेश होने दिया जाय। आदर्शवादिता पढ़ने, सुनने मात्र से नहीं निभती उसका चमत्कार तभी देखा जा सकता है जब उसे आचरण में उतारा जाय−जीवनचर्या का अंग बनाया जाय।

प्रज्ञा परिजनों को अपनी संचित विशिष्टताओं को उभारने के लिए वर्तमान समय की गरिमा को समझना चाहिए और अवसर नहीं ही चूकना चाहिए। युग धर्म को पहचानने और तदनुरूप साहस दिखाने वाले ही हनुमान, अर्जुन, नेहरू−विवेकानन्द बने हैं। समय चूक गये होते −बाद में होते तो उनकी सदाशयता सामान्य बनकर रह जाती और”का वर्षा जब कृषि सुखाने” की तरह हाथ मलती रह जाती।

प्रज्ञा परिजन इन दिनों अपने जीवन क्रम में युग धर्म का समावेश करें। भले ही यह न्यूनतम क्यों न हो। ऊपर दीक्षार्थी बहेलिये का उदाहरण इसी हेतु प्रस्तुत किया गया है। बड़ा पराक्रम न बन पड़े तो छोटा करना चाहिए।

एक व्यक्ति चारपाई पर बैठा भजन कर रहा था। देखने वाले किसी सज्जन ने आपत्ति उठाई और चारपाई पर बैठकर भजन करने को अश्रद्धा बताया और उस मूर्ख बताया। चारपाई पर बैठे कर भजन करने वाले ने भर्त्सना करने वाले से उलटकर पूछा− आप कहाँ बैठकर किस प्रकार भजन करते हैं। इस पर वह सकपका गया और कहा−हमें तो अवकाश ही नहीं मिलता इसलिए कहीं भी नहीं कर पाते। इस पर पहला व्यक्ति हँसा और बोला−फिर आप से हमें हैं? कुछ भी न करने से कुछ करना अच्छा। यही बात उनके लिए भी लागू होती है जो मनःस्थिति अथवा परिस्थिति की अनुकूलता के कारण आत्म निर्माण एवं लोक− निर्माण की सामयिक आवश्यकता को पूर्ण करने में कोई बढ़ा चढ़ा योगदान नहीं दे सकते। इतने पर भी यह निश्चित है कि हर कोई आज की तुलना में कल को अधिक अच्छा बनाने के लिए प्रयत्नशील रहता है− रहना चाहिए। भौतिक के क्षेत्र में हर किसी का मन इस प्रकार का रहता है। जिससे जो बनता है वह उसके लिए सचेष्ट भी रहता है। फलतः अधिकाँश लोगों का प्रयास किसी सीमा तक सफल भी होता है। यही प्रयत्न आत्मिक प्रगति की दिशा में भी चल पड़े तो सफलता का आधार उस क्षेत्र में भी बनेगा। प्रयासों का शुभारम्भ ही न हो − अथवा उसका सही तरीका ही विदित न हो तो दूसरी बात है। परिजनों को कहा यह जा रहा है कि मात्र भौतिक प्रगति की बात ही न सोचते रहें। आत्मिक उत्कर्ष का महत्व भी समझें और उसके लिये भी नये सिरे से प्रयास आरम्भ करें। व्यक्ति और समाज के सामने जो अगणित कठिनाइयाँ हैं उनका कारण साधनों का अभाव और परिस्थितियों का विग्रह उतना बड़ा कारण नहीं जितना कि चिन्तन और चरित्र में आदर्शों का अनुपात घट जाना। आस्था संकट ही आज की अगणित कठिनाइयों का एक मात्र कारण है। पारस्परिक स्नेह,सहयोग अपनाने की अपेक्षा जब लोग स्वार्थान्ध होकर अनीति और आक्रमण को अपनाते हैं, तो उसकी प्रतिक्रिया अपने तथा दूसरों के लिए घातक होती है। यही बात है वह विग्रह जो असंख्य चिनगारियों के रूप में उभरता और स्थान स्थान पर विस्फोटों का हाहाकार करता दीखता है।

युग अवतरण का एक ही स्वरूप है लोक−मानस का परिष्कार। इसी आधार पर सत्प्रवृत्तियाँ पनपेंगी और आत्मघाती विपन्नताओं का परिवर्तन उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना में हो सकेगा। इसके लिए ‘हम बदलेंगे−युग बदलेगा’ का उद्घोष रोग का सही निदान और उपचार प्रस्तुत करता है। व्यक्ति यों का समुदाय ही समाज है व्यक्ति सुधर तो समाज सुधार। निजी जीवन में शालीनता को स्थान मिले तो प्रचलन परम्पराओं में भी उसी स्तर की उत्कृष्टता उभरे। व्यक्तिगत उत्कृष्टता का संवर्धन ही वह उपाय है जिसके आधार पर सामान्य साधनों एवं सामान्य परिस्थितियों के रहते हुए भी मनुष्य सुखों समुन्नत जीवन जी सकता है। समाज को समुन्नत सुसंस्कृत बनाने में योगदान दे सकता है।

स्वार्थ और परमार्थ का समन्वय एक केन्द्र पर आकर गंगा यमुना की तरह मिलता है कि ‘अपना सुधार सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा’ वाले सूत्र को योजनाबद्ध रूप से व्यवहार में उतारा और संकल्प साहस के साथ कार्यान्वित किया जाय। संसार बहुत बड़ा है। इसके समग्र स्वरूप की सेवा कर सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं। समय कमी, योग्यता की सीमा, दूरी को लांघना, भाषा सम्बन्धी कठिनाई, साधनों की न्यूनता जैसे कारणों से कोई भी समस्त संसार की सेवा नहीं कर सकता। अपने संपर्क एवं प्रभाव क्षेत्र में ही कुछ करते धरते बन पड़ सकता है। यदि यह साधना व्यापक क्षेत्र भी इसके लिए चुना जा सकता है। इसकी न्यूनतम परिधि अपने आपकी सुधार सेवा तक भी सीमित हो से सकती है। संसार को हजार मन भारी माना जाय और अपने को एक छटांक तो समझना चाहिए। अपने सुधार से भी संसार की उतनी मात्रा में सेवा हो गई जितना कि हजार मन की तुलना में एक छटांक का अनुपात है।

अपने सुधार परिष्कार में ही स्वार्थ की परिपूर्ण सिद्धि होती है। साधनों की अभिवृद्धि से सुविधाएँ भर बढ़ती हैं पर व्यक्ति का वजन तो गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता के सहारे ही बन पड़ता है। आकाँक्षा विचारणा, और आदतों में निकृष्टता घुसी पड़े हो तो समझना चाहिए कि इस आन्तरिक पिछड़ेपन के रहते कुबेर जैसी सम्पदा और इन्द्र जैसी समर्थता के रहते हुए क्षेत्र को भी कुढ़ाता, झुलसाता, और गिराता रहेगा। इसके विपरित जहाँ शालीनता, सज्जनता की कमी नहीं वहाँ स्वल्प साधनों में भी आनन्द उल्लास से भरा पूरा हँसता−हँसाता−खिलता−खिलाता जीवन जिया जा सकेगा। जहाँ सद् गुण रहेंगे वहाँ अभाव दरिद्रता नहीं टिकेगा। दुर्बलता रुग्णता के पैर भी नहीं जमेंगे। अपमान तिरस्कार सहने और लज्जित रहने आत्म−प्रताड़ना सहने जैसी स्थिति भी नहीं बनेगी। यह अत्यन्त सराहनीय स्वार्थ सिद्धि है। इसी में परमार्थ का भी समुचित समावेश है।

लोक निर्माण के लिए यों बहुत कुछ करने की आवश्यकता है पर उतना ने बन पड़े तो आत्म निर्माण से भी उसकी आँशिक पूर्ति होती है। इन दोनों महती आवश्यकताओं के समन्वय में जब युग धर्म की पुकार को भी सम्मिलित कर लिया तो तीर्थराज का त्रिवेणी संगम बन जाता है। जंग की माँग एक ही है कि अवाँछनीयताओं के प्रवाह को उलट कर उसे सत्प्रवृत्तियों की दिशा में मोड़ा−मरोड़ा जाय। मनःस्थिति बदले तो परिस्थिति सुसंस्कारिता के गह्वर से ही समृद्धि, सामर्थ्य और प्रगति के झरने फूटते हैं। समस्त संकटों का निवारण, श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा से बने दिव्यास्त्र ही कर सकते हैं। समस्याओं और विभीषिकाओं की वैतरणी पार करने से लिए दूरदर्शी विवेकशीलता − ऋतम्भरा प्रज्ञा− की नौका चाहिए। यह साध जुट सके तो सर्वनाशी विभीषिकाओं से उत्पन्न महाप्रलय जैसे विग्रह से मानवी अस्तित्व को बचाया जा सकता है। इसके लिए यह नहीं सोचना चाहिए कि मूर्धन्य लोग ही ऐसा परिवर्तन प्रस्तुत कर सकते हैं। वे आगे बढ़े तो स्वागत। अन्यथा प्रतीक्षा में हाथ पर हाथ रख बैठे नहीं रहा जा सकता। छोटों को ही मिल−जुलकर कुछ सोचना चाहिए और जो अपनी सीमित सामर्थ्य के अंतर्गत हैं वह कर गुजरना चाहिए।

एक बार कार्तिकी अमावस्या के घनघोर अन्धकार में प्रकाश की आवश्यकता पड़ी। सूर्य से प्रार्थना की, उनने इस आपत्ति कालीन अनुरोध को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। चन्द्रमा ने भी असमर्थता प्रकट की। कोई उपाय न देखकर एक दीपक ने जलना आरम्भ किया। दूसरे बुझे हुओं ने सोचा जो एक कर सकता है वह दूसरा क्यों न करें? जब बुराई छूत की तरह फैल सकती है तो अच्छाई की लहरें भी एक दूसरे को सहारा देते हुए आगे क्यों नहीं बढ़ सकती? दीपक एक दूसरे के निकट आते गये। जलों ने बुझों को जलाया और छदाम कीमत वाले दीपकों की पंक्ति देखते देखते सर्वत्र जलने लगी। कार्तिकी अमावस्या इन जुगनुओं की चादर ओढ़ कर सूर्य पत्नी जैसी गौरवान्वित होकर इठलाने लगी। सभी ने दीप मालिका की जय बोली और उस दिन से वह सहकारी आदर्शवादिता महालक्ष्मी की तरह पूजी जाने लगी।

छोटों के छोटे काम भी मिलजुल कर बड़ों के बड़े कामों की प्रतिद्वन्दिता कर सकते हैं। तिनकों से रस्सा बटा जाता है। धागे मिलकर वस्त्र बुनते है। ईंट परस्पर चिपटकर महल खड़े करती हैं। सीकों से बुहारी बनती है। बूंद–बूंद से घट भरता है। अणुओं के समन्वय से विराट् की संरचना हुई है। इन तथ्यों से अवगत लोगों को यह विश्वास करने में तनिक भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि छोटों में सज्जनता का दौर चल पड़े तो उनके संयुक्त प्रयासों का प्रतिफल समष्टि को सतयुगी परिस्थितियों से भरपूर बना सकती है। बड़ों की प्रतीक्षा में बैठे रहने की अपेक्षा यही अच्छा है कि छोटे लोग मिलजुलकर नव सृजन के प्रयास करें। उसका शुभारम्भ अपने अपने सीमित क्षेत्र को कार्यक्षेत्र बनाकर −छोटी समझ, थोड़ी सामग्री और अस्त व्यस्त परिस्थितियों में ही कुछ के लिए जुट पड़े।

रीछ वानरों, ग्वाल−बालों, बौद्ध भिक्षुओं, सत्याग्रहियों का इतिहास जिन्हें विदित है, वे जानते हैं कि यदि श्रद्धा अटूट हो तो स्वल्प सामर्थ्य के सहारे छोटे−छोटे प्रयास भी कितने बड़े संयुक्त परिणाम प्रस्तुत कर सकते हैं। छोटे सितारे आसमान में चमकते हैं, तो उतने भर से राहगीरों को दिशा मिल जाती है और ठोकर खाने से बचते हैं। इन्हीं उदाहरणों से प्रेरणा लेते हुए प्रज्ञा परिजनों को समय की पुकार के संदर्भ में कुछ सोचना चाहिए और कुछ करना चाहिए। सुख सुविधा बढ़ाने और साधन जुटाने के लिए जो श्रम किया जाता है, उसमें कटौती किये बिना अतिरिक्त उत्साह के आधार पर ऐसा कुछ भी नये सिरे से किया जा सकता है जिससे युग परिवर्तन में अपनी भूमिका हनुमान, अंगद न सही, गीध गिलहरी जैसी तो बन ही पड़े।

इस संदर्भ में वह न्यूनतम बिन्दु खोज निकालना होगा जिसे कर सकने में हर स्थिति का− हर व्यक्ति समर्थ हो सके। समय भी रबड़ की तरह है जो तनिक-सी खींचतान करने पर अपनी लम्बाई बढ़ा देती है। साधारण महिला का पेट भी खाली नहीं होता उसमें भी आतों समेत अन्यान्य अवयव पूरी तरह ठुँसे रहते हैं पर जब गर्भस्थ बालक भी उसी में घुस पड़ता है तो उसके लिए भी जगह बन जाती है। ठीक इसी प्रकार व्यस्तता रहते हुए भी यदि श्रद्धा उमंगे तो सदाशयता का विस्तार करने वाले चिन्तन एवं व्यवहार को भी उसी में ठूंसा जा सकता है। कुछ समय में उसके लिए भी जगह बन जाती है और बिना किसी कठिनाई के वह नया ढर्रा भी अपने ढंग से −अपनी धुरी पर घूमने लगता है। हमें इसी तरह सोचना चाहिए और जो सुधार परिवर्तन आवश्यक हो गया है उसे कर गुजरने का रास्ता निकालना चाहिए।

प्रज्ञा परिजनों के निमित्त नवयुग के संदर्भ में न्यूनतम कार्यक्रम की यही पृष्ठभूमि है वे घर छोड़कर सेवा कार्यों के निमित्त बाहर जा सकने की स्थिति में हों तो हर्ज नहीं। निजी जीवन क्रम में भी वे ऐसे सुधार परिवर्तन कर सकते है,जिनसे आत्म निर्माण और लोक निर्माण के दोनों प्रयोजन बिना किसी अतिरिक्त कठिनाई के बिना कोई अतिरिक्त योजना बनाये सहज स्वाभाविक रीति से सधते रहें। जो आर्थिक कठिनाई के कारण दान पुण्य नहीं कर सकते, दूसरों की सहायता नहीं कर सकते वे वर्तमान साधनों में ही कुछ ऐसा ही हेर−फेर कर सकते हैं कि उतने भर से आत्मिक प्रगति का नया दौर चल पड़े। व्यस्तता और अभावग्रस्तता के साथ बिना कोई छेड़खानी किये ऐसा हो सकता है कि दृष्टिकोण और कार्य पद्धति में थोड़ा-सा अन्तर कर देने मात्र से ऐसा क्रम चल पड़े जिसे नव सृजन में भावभरा योगदान कहा − और मुक्त कंठ से सराहा जा सकें।

अखण्ड ज्योति अपने प्रिय परिजनों में से प्रत्येक से इन शब्दों में एक ही अनुरोध करने चली है कि वे अपने छोड़ें। उनकी आयु इतनी हो गई है कि अपने पैरों खड़े हो सकते हैं, दीवार पकड़ कर चल सकते हैं और उत्साह दिखाएँ तो बिना किसी कठिनाई के पूरे आँगन में ठुमक–ठुमक कर चलने पर सारे परिवार में हर्ष उत्साह की एक लहर दौड़ा सकते हैं। प्रज्ञापुत्र बड़ी आयु के हैं वे अग्रिम पंक्ति में खड़े और युग प्रहरी की− जुझारू योद्धा की भूमिका निभा रहे हैं। किन्तु प्रज्ञा परिजन भी ऐसी स्थिति में हैं कि अधिक कुछ न कर पाने की बात कहते हुए भी इतना कुछ कर सकते हैं जिसे असंख्यों के लिए प्रेरणाप्रद एवं अनुकरणीय कहा जा सके।


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