आत्मिक विभूतियों का उभार, उत्कृष्ट जीवन में

January 1979

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घी की मूल सत्ता दूध के प्रत्येक कण में ओत-प्रोत है। प्रयत्न पूर्वक उसे मथ कर बाहर निकाला जाता है। आत्मिक विभूतियाँ और विशिष्टताएं जीवन चर्या की प्रत्येक मिनट और प्रत्येक क्रिया-कृत्य के साथ जुड़ी रहती है। विचारों की प्रत्येक तरंगों और आकाँक्षाओं की प्रत्येक उमड़ में वह घुली रहती है। फूल की गन्ध, सुषमा और सुन्दरता किसी विशेष स्थान पर रखी नहीं रहती वरन् उसके समस्त कलेवर में गुथी रहती है। मनुष्य का समग्र व्यक्तित्व ही उसकी आन्तरिक स्थिति का परिचायक है। किसी अंग विशेष को आत्मिक क्षमताओं का अतिरिक्त केन्द्र मानना भूल है।

साधना परख योगाभ्यासों में किन्हीं अवयवों को प्रमुखता देकर कई प्रकार की हलचलों से उन्हें प्रभावित किया जाता है। यह प्रयोगात्मक पद्धति है। व्यायामशालाओं में भी ऐसा ही होता रहता है। कई प्रकार के व्यायामों में ऐसा लगता है कि उनका प्रभाव अमुख अवयवों पर ही पड़ रहा है। फलतः समस्त शरीर को बलिष्ठ बनाने की कुँजी वही है। देखने में भले ही ऐसा लगता हो, पर वास्तविकता वैसी है नहीं। व्यायाम कोई भी क्यों न हो उसकी सफलता इसी तथ्य पर निर्भर रहेगी कि समस्त शरीर को बलिष्ठ बनाने की क्षमता उसमें है या नहीं।

आत्मबल का अनुपात जीवन के स्तर के साथ अविछिन्न रूप से जुड़ा है। सज्जनता और उदारता से भरापूरा जीवन क्रम ही वो मूल सम्पदा है जिसे मथने पर सिद्धियों और विभूतियों के नाम से जानी जाने वाली विशिष्टतायें उभर कर ऊपर आती है। कोई साधना ऐसी हो नहीं सकती दृष्टिकोण और आचरण में संकीर्णता एवं निकृष्टता भरे रहने पर भी वैसा कुछ परिणाम उत्पन्न कर सके जैसा कि अध्यात्म प्रयोगों के फलस्वरूप अपेक्षा की जाती है।


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